क्या मैं गलत लिख रहा हूं? तभी गहराई से बूझें हिंदू की इस साइकी, इस मनोविज्ञान को कि नेहरू को शेख अब्दुल्ला पर विश्वास होते हुए भी विश्वास नहीं था! नरेंद्र मोदी ने इतिहास जानते हुए भी मुफ्ती मोहम्मद और मेहबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री पद पर बैठाया। जाहिर है दिल्ली का हर हिंदू प्रधानमंत्री कश्मीर को ले कर भय में रहा है। उसने कश्मीर में वह नहीं किया जो वहां की रियलिटी थी और है। या जिस पर उपमहाद्वीप को इस्लाम में पकाने का 1948 से मिशन बनाए डायरेक्टरेट फॉर इंटर सर्विस इंटलीजेंस उर्फ आईएसआई एजेंसी का रोडमैप बना है। महाराजा हरिसिंह डरे हुए थे। आजाद भारत की पहली सरकार डरी हुई थी तो भारत का हर प्रधानमंत्री डरा हुआ। ये घाटी के उन झूठे नेताओं के कंधों पर बंदूक रख समाधान माने रहे जो अचेतन से पाकिस्तानी थे व दिल-दिमाग में हिंदुस्तानियत से नफरत पाले हुए। इन्होंने संविधान, धर्मनिरपेक्षता का चोंगा पहन, कंधे पर बंदूक जरूर रखी, वफादारी की कसमें खाईं लेकिन हाथों के दस्तखतों से, दिमागी साजिश से और मदरसों-मस्जिदों से ऐसा जहर फैलाया कि नतीजे में हिंदू भारत में हिंदू ही जान बचा कर भागे!
एक-एक कर घटनाक्रम जानें। शेख अब्दुल्ला ने गांधी और नेहरू का इस्तेमाल किया। वे स्वतंत्र कश्मीर के राष्ट्र प्रमुख बनने का सपना पाले हुए थे। लेकिन नेहरू समझते हुए भी डर-चिंता के कारण नासमझ बने रहे। अपने को 1953 में शेख की गिरफ्तारी भी नेहरू के भय में हुई लगती है। तब आईबी के डायरेक्टर बीएन मलिक, कर्ण सिंह, नेहरू के निजी सहायक द्वारका नाथ कचरू व बख्शी गुलाम मोहम्मद की फीडबैक या साजिश का कोई भी एंगल मानें, सबसे कोर सवाल है भरोसा किया तो क्यों किया और अविश्वास बना तो क्यों? दोनों स्थितियों में दिमाग क्या डर-चिंता में नहीं था? सोचें, शेख कैसे फायदा उठाते हुए थे और नेहरू सरकार कैसे ठगी जाती हुई?
हां, शेख ने गांधी-नेहरू का विश्वास जीत, प्रधानमंत्री बन कर घाटी में हिंदू जागीरों, जमींदारों की जमीन फ्री करवा कर उसे मुस्लिम खेतिहरों को बांट जनप्रियता बनाई। अनुच्छेद 370 बनवा, विलय या आजादी की दुविधा बना चुपचाप कश्मीर के खास होने व लोगों में आजादी के बीज बोए। मतलब आईएसआई का इन्डॉक्ट्रिनेशन शुरू होता उससे पहले ही शेख अब्दुल्ला ने पांच सालों में मुसलमानों में घाटी के खास होने, कश्मीरी उप राष्ट्रीयता उभारने, इस्लामी धर्मांधता व आजादी चाहने का चुपचाप वह यकीन याकि इन्डॉक्ट्रिनेशन बनवा दिया था, जिसे भारत सरकार का कोई नेता, अफसर, बुद्धिजीवी नहीं बूझ सका।
सवाल है भारत राष्ट्र उस वक्त क्या करता हुए था? सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह, आईबी डायरेक्टर बीएन मलिक, ब्रिगेडियर बीएन कौल, पंडित नेहरू के निजी सहायक (कश्मीर मामले में आंख-कान-नाक) डीएन कचरू या तो सियासी शतरंज खेलते हुए थे या साजिश रचते हुए। शेख अब्दुल्ला को हटाना भी है और बचाना भी है। तभी शेख की बरखास्तगी-गिरफ्तारी के साथ उनकी असलियत के भंडाफोड़ का नैरेटिव नहीं बनने दिया लेकिन घाटी में शेख चुपचाप अपनी आजादी का लड़ाका, शेर-ए-कश्मीर की हवा बना बैठे तो किसी को समझ नहीं आया करें तो क्या करें। तब के घटनाक्रम पर बीएन मलिक, शेख अब्दुल्ला आदि ने बाद में लिखा है। सबमें अपना निचोड़ है शेख अब्दुल्ला ने लोगों के दिल-दिमाग को टारगेट कर राजनीति की जबकि भारत की खुफिया एजेंसी आईबी, हिंदू सदर-ए-रियासत निजी खुन्नस-निजी बदले और कचरू ने नेहरू के मूड अनुसार फीडबैक बनाई! शेख अब्दुल्ला ने अलगाव के पेड़ को सींचा वहीं दूसरी तरफ भारत देश के कर्णधार यह प्रमाणित करते हुए थे कि हर शाख पर उल्लू बैठा है तो अंजामे गुलिस्तां क्या होगा!
शेख ने 1968 में एक उर्दू डायजेस्ट (Shabistan) को दिए इंटरव्यू में 1953 के टर्निंग प्वाइंट के लिए डीएन कचरू को जिम्मेवार ठहराया। पर मुझे अहम रोल आईबी प्रमुख बीएन मलिक और कर्ण सिंह का समझ आता है। मलिक कश्मीर के मामले में नौसखिया थे। बिहार पुलिस से डिप्टी डायरेक्टर पद से उनका सितंबर 1948 में आईबी में तबादला हुआ था। जनवरी 1949 में श्रीनगर के आईबी इंचार्ज ने दो विदेशी पत्रकारों को शेख अब्दुल्ला के दिए इंटरव्यू पर पूछताछ की तो शेख भड़के और उन्होंने दिल्ली में मंत्री गोपालस्वामी अयंगर से शिकायत की। अयंगर ने बीएन मलिक को बुला कर उस अफसर को हटाने के लिए कहां। दूसरा अफसर भेजा तो शेख इस बात से नाराज हुए कि उनसे क्यों नहीं पूछा गया! विदेश मंत्रालय में तब कश्मीर देख रहे संयुक्त सचिव वाईडी गुंडेविया ने तब की घटनाओं के सार में कहा है कि आईबी के लोगों की खांटी पुलिसिया एप्रोच से व बीएन मलिक की रिपोर्टिंग से बतंगड़ बना। अयंगर ने मलिक को लगातार कश्मीर जाने, नेताओं से संबंध-संपर्क बनाने की जरूरत समझाई थी मगर वे सितंबर 1948 से अगस्त 1949 के लगभग एक साल श्रीनगर जा ही नहीं पाए। अगस्त 1949 में गए तो 10 दिन घूम कर दिल्ली में अपने डायरेक्टर को रिपोर्ट में कहा शेख साहेब की मंशा पर शक नहीं करना चाहिए। डायरेक्टर ने गृह सचिव एचवीआर अयंगर को रपट भेजी। उन्होंने आगे सरदार पटेल और पंडित नेहरू को रिपोर्ट पहुंचाई। पंडित नेहरू तब बहुत खुश हुए (मतलब बीएन मलिक प्रिय) और उस रिपोर्ट को अपने दूतावासों को वितरित कराया। जबकि पटेल को रपट फालतू लगी और उन्होंने मलिक को बुला कर शेख अब्दुल्ला पर अपनी राय जताते हुए कहा कि रिपोर्ट को ऐसे नहीं बांटा जाना चाहिए था।
बीएन मलिक को कश्मीर से अपने करियर के फायदे समझ आए। वे फिर प्रो-एक्टिव हो घाटी में बिसात बिछाने लगे। 1949 के मध्य में पाकिस्तान ने पीर मकबूल जिलानी और एनसी नेता गुलाम मोहयूद्दीन कारा से पाक समर्थक सियासी कांफ्रेंस बनाई व घाटी में हथियार भेजना शुरू किया तो आईबी का रोल बढ़ना स्वाभाविक था। जुलाई 1950 में नेहरू ने बीएन मलिक को आईबी डायरेक्टर बनाया। धीरे-धीरे उनका कर्ण सिंह, नेहरू के निजी सहायक कचरू के साथ सोच-विचार, सियासी शतरंज का खेला बना। कह सकते हैं जुलाई 1950 से जुलाई 1953 के तीन सालों में बीएन मलिक अहम रोल में थे तो सूबे के प्रेसिडेंट उर्फ सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह ने शेख अब्दुल्ला, पंडित नेहरू से अपने पिता महाराजा हरिसिंह से सलूक और विरासत की बेइज्जती का बदला लेने की बिसात बिछाई। निःसंदेह जैसे शेख अब्दुल्ला ने अपना खेल जमाया वैसे ही कर्ण सिंह ने सलीके से पंडित नेहरू और शेख अब्दुल्ला का अपने पर भरोसा बनवा पहले अपने को स्थापित कराया। फिर अपने पिता, विरासत के अपमान का बदला लिया तो घाटी में बरबादी के बीज छितराए। उनकी शुरुआती बड़ी उपलब्धि शेख अब्दुल्ला की बरखास्तगी की थी। लंबी उपलब्धि भोले नेहरू-गांधी परिवार का विश्वास बनवा कर दशकों कश्मीर के महाराजा होने के नाम पर केंद्र सरकार से सत्तासुख भोगना था। आखिर में उनका निर्णायक वार शेख के बेटे फारूक अब्दुल्ला की राजीव गांधी से वह बरखास्तगी थी, जिससे घाटी में हिंदुओं को भगाने की भूमिका बनी।
मैं आगे चला गया हूं। 1953 के टर्निंग प्वाइंट से पहले का सत्य जानें। महाराजा हरिसिंह की बेआबरू छुट्टी, उनकी जगह कर्ण सिंह की बेमतलब युवराज कमान, लेकिन इसी कमान के हाथों गोपालस्वामी अयंगर के आइडिया में 'कश्मीर की संविधान सभा' का गठन करके उसके चुनाव से शेख अब्दुल्ला का सर्वशक्तिमान बनना और शेख की पैरवी से कर्ण सिंह को 17 नवंबर 1952 में सदर-ए-रियासत बनाना भारत सरकार के बिना रोडमैप के फैसले थे। जो भी हुआ वह इस डर में हुआ कि जैसा शेख चाहते हैं वैसा हो। सोचें, भारत के समानांतर ही कश्मीर के लिए एक संविधान सभा बनी लेकिन उससे कर्ण सिंह-नेहरू-शेख ने भारत में कश्मीर रियासत के विलय के फैसले को मानने की पुष्टि का ठप्पा नहीं लगवाया। जम्मू कश्मीर ने अपना संविधान बनाया लेकिन शेख अब्दुल्ला, कर्ण सिंह किसी ने उसमें धर्मनिरपेक्षता, समानता और समान अवसर व देश की एकता के प्रति वचनबद्धता के वे वाक्य नहीं डाले, जो भारत के संविधान में हैं। सही बात है कि भारत के संविधान में भी धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद शब्द इमरजेंसी में 1976 में जुड़े लेकिन उसके बाद वैसे ही जम्मू कश्मीर के संविधान में भी तो सेकुलर शब्द जुड़वाने की इंदिरा गांधी से लेकर मोदी सरकार को (अनुच्छेद 370 हटने से पहले तक) की जरूरत समझ आनी चाहिए थी? क्यों नहीं जरूरत समझ आई?
इसलिए कि घाटी के दिल-दिमाग से कश्मीरियत को उभार, उसे हिंदुस्तानियत में मिलाने की वैचारिक खोपड़ी तो तब बन सकती थी जब हिंदू नेता, अफसर भय, डर व नौकरी करने या सत्ता भोगने, वोट राजनीति की प्रवृत्ति से बाहर पहले निकलते। तभी चौबीसों घंटे सोचना संभव था कि कैसे मुसलमान को आधुनिक बनाया जाए।
तभी सत्य है कि 1953 में दिल्ली के गृह मंत्रालय या विदेश मंत्रालय की कश्मीर डेस्क के आईसीएस अफसर (बाद में आईएएस-आईपीएस), आईबी (बाद में रॉ जैसी एजेंसियां भी) और श्रीनगर के राज्यपालों सबने या तो दिल्ली के अपने आकाओं के कान भरे, उनके मूड को देख कर रिपोर्टें बनाई या कायरता दिखलाई। 1953 में नेहरू के याकि भारत राष्ट्र के कान भरने वाले आईबी चीफ बीएन मलिक ने बिना आधार की, चंडूखाने की कई गपशपी थ्योरियां दी हैं। पहले वे शेख साहेब पर शक नहीं करने की रिपोर्ट बनाते हुए थे फिर उनकी थीसिस थी कि जम्मू में 1952-53 में प्रजा परिषद् का हिंदुवादी आंदोलन हुआ तो शेख भड़के। उस आंदोलन के वक्त नेहरू ने मलिक को जम्मू भेजा और मामला सुलटा तो वे शेख से मिले लेकिन शेख ने उन्हें घास नहीं डाली व बेरूखी दिखाई तो शेख से वे सुलग गए। शेख के मंत्रियों बख्शी गुलाम मोहम्मद और डीपी धर से साठगांठ कर थीसिस बनाने लगे कि जम्मू में आंदोलन के बहाने शेख अब्दुल्ला भारत को किए वायदे से पिंड छुड़ाना चाहते हैं।
वह सब फालतू था। क्योंकि शेख पहले दिन से मुस्लिम संख्या पर अपनी अलग, डिक्टेट करने वाली सियासत करते हुए थे। वे शासन करते हुए घाटी में मुसलमान की आईडेंटिटी की भूख बनवाते हुए थे। इसे बीएन मलिक, कचरू, ब्रिगेडियर कौल व दिल्ली के नॉर्थ-साउथ ब्लॉक में बैठे मंत्री-अफसर समझते हुए भी इसलिए दिमाग दौड़ाने की स्थिति में नहीं थे क्योंकि न विकल्प था, न रोडमैप था, न विचार याकि लोगों में अल्टरनेटिव यकीन बनवाने का, हिंदुस्तानियत का इन्डॉक्ट्रिनेशन का माद्दा था और न समझ थी। तब था क्या? तो जवाब है बीएन मलिक नाम का वह एक शख्स, जिसका पुलिसिया दिमाग शेख को खत्म करने की, मनमाफिक सियासी बिसात बिछाने की ताकत तो लिए हुए था लेकिन भविष्य की दृष्टि और सोच के बिना! तभी 1953 का टर्निंग प्वाइंट यह भी सत्य लिए हुए है कि भारत के सर्वाधिक नाजुक सूबे की राजनीति पर ठूंठ पुलिस लाठी का जो वार हुआ, शेख की बिना आगा-पीछे सोचे जो गिरफ्तारी हुई तो वह घाटी की मनोदशा पर हथौड़ा था! वह घाटी में प्रदर्शनों और लोगों की मौत का प्रारंभ था। घाटी की कठपुतलियों को सुपुर्दगी थी। आईएसआई के लिए इस्लामी इन्डॉक्ट्रिनेशन का वह मैदान बनवाना था, जिससे बाद में फारूक अब्दुल्ला, सैयद मुफ्ती मोहम्मद, वीपी सिंह नाम के वे चेहरे-नियंता पैदा हुए, जिन्होंने हिंदुओं के देश में हिंदुओं को भगवाया और घाटी में आईएसआई का इस्लामियत मिशन पूरा करवाया।