संपूर्ण सत्य से साक्षात्कार ही युवा मुसलमानों को उन्हें कष्ट देने वाली विरासत से मुक्ति दिलाएगा
सदियों के इतिहास मूल्यांकन में सद्भाव की राई को दुर्भाव के पर्वत के सामने खड़ा कर संतुलित करने का छल होता है
शंकर शरण। काशी, मथुरा, अयोध्या, सोमनाथ, नालंदा और मुल्तान आदि असंख्य महान हिंदू स्थानों पर सदियों क्या होता रहा, इस पर 'साक्ष्यों' की माथापच्ची व्यर्थ है। यह मूल प्रश्न छोड़कर गौण बिंदुओं पर सिर पटकना है। उससे कुछ तय नहीं होता, बल्कि उससे सेक्युलर-वामपंथी नेताओं, बौद्धिकों की बन आती है। वे बाल की खाल निकालते हैं। उनका उद्देश्य मामले को जस का तस छोड़े रखना है। उन्हें सत्ताधारियों का भी सहयोग मिलता है, जो कठिन कार्य टालते हैं। साक्ष्यों की बहस मुख्यत: सच छुपाओ, झूठ बताओ का अभ्यास हो जाती है। सीताराम गोयल की पुस्तक 'भारत में इस्लामी साम्राज्य की कहानी' में इसके अनेक प्रमाण हैं। उदाहरणार्थ अपने हिंदू दरबारियों के दो-तीन मंदिरों को औरंगजेब द्वारा दिए गए मामूली अनुदान खूब उछाले जाते हैं, किंतु उसके लंबे शासन काल में असंख्य मंदिरों के विध्वंस और उन्हें अपवित्र करने का उल्लेख छिपाया जाता है। सदियों के इतिहास मूल्यांकन में सद्भाव की राई को दुर्भाव के पर्वत के सामने खड़ा कर संतुलित करने का छल होता है।
इतिहास के दो उदाहरण देखिए। प्रसिद्ध फारसी पुस्तक 'तारीखे-वसाफ' ने 13वीं शताब्दी में भारत का यह हाल दर्ज किया था, 'मुहम्मदी फौजों ने इस्लाम के लिए उस नापाक जमीन पर बाएं-दाएं, बिना कोई मुरव्वत मारना, कत्ल करना शुरू किया और खून के फव्वारे छूटने लगे। उन्होंने इस पैमाने पर सोना-चांदी, जवाहरात और तरह-तरह के कपड़े लूटे, जिसकी कल्पना नहीं हो सकती। उन्होंने इतनी बड़ी संख्या में लड़कियों और बच्चों को कब्जे में लिया कि कलम उसका वर्णन नहीं कर सकती। मुहम्मदी फौजों ने देश को बिल्कुल ध्वस्त कर दिया। यहां के बाशिंदों की जिंदगी तबाह कर दी। सोमनाथ समेत अनेक मंदिर उजाड़ दिए, देव मूर्तियां तोड़कर पैरों के नीचे रौंदी गईं, ताकि लोग याद रखें और इस शानदार जीत की चर्चा करें..। '
इस्लामी राज का हिंदुओं द्वारा दिया अपना विवरण बहुत कम मिलता है, किंतु जो मिलता है, उससे मुस्लिम इतिहासकारों की पुष्टि होती है। 14वीं शताब्दी में विजयनगर के कुमार कंपण की पत्नी गंगा देवी ने अपने 'मधुरविजयम' में मदुरई के बारे में लिखा है, 'हर दिन हिंदुओं के धर्म को अपवित्र किया जाता हैं। वे भगवान की मूर्ति तोड़ देते हैं और पवित्र ग्रंथों को आग में झोंक देते हैं। पूजा कर रहे हिंदुओं पर मुंह से पानी फेंकते हैं और हिंदू संतों को ऐसे परेशान करते हैं मानो वे सारे पागल हों।'
यह सब मुल्तान से लेकर मदुरई तक सदियों से होता रहा और आज भी होता मिल जाता है। तमाम इस्लामी शासकों ने ऐसा क्यों किया? इसका उत्तर मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा ठसक से दिया गया है। उन्होंने अपने नायकों को इस्लाम के शानदार प्रतिनिधियों के रूप में ही चित्रित किया। तब ऐसी कल्पना नहीं थी कि यहां इस्लामी साम्राज्यवाद अतीत की कष्टकर स्मृति बन जाएगा और इस्लाम के रिकार्ड को कभी मानवीय मूल्यों के पैमाने से भी देखा जाएगा। उनके पास केवल इस्लामी निर्देशों का पैमाना था। सो, मुस्लिम इतिहासकारों ने ईमानदारी से लिखा था कि मध्यकालीन मुस्लिम शासक इस्लाम के निर्देशों का पालन कर रहे थे, जब उन्होंने नरसंहार किए, गुलाम बनाया और स्त्रियों और बच्चों के साथ दुष्कर्म किया। यह केवल भारत ही नहीं, स्पेन, ग्रीस, यूगोस्लाविया, साइप्रस और जार्जिया आदि हर उस जगह हुआ जहां इस्लामिक हमलावर पहुंचे। इन हमलावरों का इतिहास चाहे मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा हो या यूरोपीय ईसाइयों ने, उसमें यही विवरण मिलता है कि जिस भी देश में इस्लाम ने निष्कंटक सत्ता पा ली, वहां किसी गैर-मुस्लिम समूह को बचने न दिया। यहूदियों, ईसाइयों का उनके अपने ही जन्मस्थान में सदियों तक उत्पीडऩ किया गया और फिर कई स्थानों से भगा दिया गया। जहां ईसाई अल्पसंख्यक किसी तरह बचे भी, जैसे मिस्र और लेबनान में, वे जिहाद की नई लहर के हाथों बेहद कठिन स्थितियां झेल रहे हैं। बांग्लादेश में हिंदुओं का विनाश अपने तरह की एक खौफनाक विभीषिका है।
इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार ने लिखा है, 'लोकप्रिय या राष्ट्रीय परंपराएं, विचार और संस्थाएं, जो जीवन के गहरे तारों को छूती हैं, उसे एक विशिष्ट रूप, स्वर और ऊर्जा प्रदान करती हैं, उनमें कोई सामंजस्य नहीं बना। इसलिए दोनों बड़े समुदाय, जो साथ-साथ जीते रहे, अपने-अपने दायरे में ही घूमते रहे और इसका कोई चिन्ह न था कि दोनों कभी मिल पाएंगे। मुस्लिम शासकों ने मंदिरों और मूर्तियों को निर्ममतापूर्वक तोड़ते रहने का अपना जोश कभी कम नहीं किया और इस मामले में उनका रवैया भारत की धरती पर मुहम्मद बिन कासिम के पैर रखने से लेकर 18वीं सदी तक अपरिवर्तित रहा।'
प्रो. मजूमदार द्वारा यह सब लिखे हुए भी छह दशक बीत चुके हैं। इस बीच केरल से लेकर कश्मीर और लेबनान से लेकर बांग्लादेश तक वही दृश्य बार-बार दोहराया जा रहा है। कहीं शांति अस्थायी होती है और किसी बहाने फिर वही कहानी शुरू हो जाती है। तब उपाय क्या है? सच्चे इतिहास ज्ञान का व्यापक प्रसार ही अचूक औषधि है, क्योंकि आम मुसलमानों को भी उनके नेता भ्रम में रखकर ही चलाते रहे हैं। बड़ी संख्या में मुसलमान भी इस्लामी मतवाद और उसके इतिहास से अनजान हैं। अत: एक स्वस्थ और मानवीय शिक्षा व्यवस्था अपने लोगों और मुस्लिम समाज के युवाओं के समक्ष तमाम तथ्यों को रखें। उन्हें इस सच से अवगत कराएं कि मध्यकालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार उपरोक्त सभी काम यहां के मुस्लिम शासकों और मजहबी नेताओं ने किए हैं। यही काम उन दूसरे देशों में भी किए गए, जहां-जहां इस्लामी फौजें गईं और अपना कब्जा किया। ये सभी काम सुन्ना, शरीयत आदि में निरूपित इस्लामी सिद्धांतों से मेल खाते हैं। इन सबका मूल्यांकन स्वाभाविक मानवीय विवेक, सहज नैतिक समझ और भाईचारे के प्राथमिक सिद्धांतों से होनी चाहिए। इसका असर होगा, क्योंकि मुस्लिम समुदाय के युवाओं में भी सहज मानवीय स्वभाव की बुद्धि, चेतना और नैतिकता उतनी ही है, जितनी किसी अन्य समुदाय के युवा लड़के-लड़कियों में।
सीताराम गोयल, बिल वार्नर, कपिल कपूर जैसे विद्वानों के अनुसार संपूर्ण सत्य से साक्षात्कार ही युवा मुसलमानों को मुक्त करेगा। तभी पूरी दुनिया को इस्लाम की कष्टप्रद विरासत से मुक्त होने का मार्ग मिलेगा। कृत्रिम और मिथ्याचारी कोशिशें इस्लामी मतवाद के सुगठित तंत्र को हराने में विफल रही हैं। उसका वास्तविक उपाय सच्चाई का सामना करने और कराने में ही है।
(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एïवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)