'उत्तमता की उत्तमता में भव्यता ने किया है नाच/मौखिक या लिखित, उत्तमता में सत्य की है सांच/भुजंग में लिपट कर भी हर पल जीवंत सत्य जांच/चाहे मिले कष्ट हज़ार, भव्यता में सत्य को न आंच।आज के बच्चे कल के भारत हैं, जिन्हें अपने देश को ही नहीं संभालना, बल्कि संवेदनशीलता से दूर मूल्य विहीन पथ की ओर बढ़ रहे विश्व को सही मार्ग दिखाना है। अत: बच्चों की मनोस्थिति की स्वतंत्र विवेचना में सत्य सर्वोपरि हो। बच्चे के कोमल मन में पल रहे अनगिनत सच को परखने की समझ से मिलाने का कार्य करते हैं स्कूल, अध्यापक व शिक्षा का माहौल। हमारी सोच, मानसिकता, चीज़ों को देखने का नज़रिया यदि मूल्य विहीन रहे तो उसमें नि:संदेह जिंदगी के खतरे से भी बढ़कर एक सोच, संस्कृति का पतन, एक जि़ंदगी को लील नहीं करेगा, बल्कि पीढिय़ों को अंधकार में ले जाने वाला है। सत्य अपने प्रत्यक्ष रूप में सिर्फ तभी परिचय कराता है जब मन चिंतन से परे विचार शून्य की अवस्था को पा ले। जिसका मिलना संभव तभी है, जब बंदिश से परे जीवन हो, मार्गदर्शक के साथ ज्यादा संपर्क हो। बच्चे हमेशा अपने पियर ग्रुप से बहुत कुछ सीखते ही नहीं, बल्कि उनके साथ अपनी हर बात सांझा करता है। बच्चे का जब मानसिक विकास होता है तो उसमें उसके पियर ग्रुप, घर का माहौल, स्कूल, सबका सांझा प्रभाव नजऱ आता है और उस मानसिक विकास को घडऩे का कार्य अध्यापक करते हैं। अध्यापक स्कूल में बच्चे को सिर्फ किसी विषय का ज्ञान नहीं कराते, बल्कि कक्षा कक्ष में वह बच्चे में मनोस्थिति के परिपक्वता के बीज अंकुरित करते हैं। जैसे एक गणित का अध्यापक एक प्रश्न का हल सिखाने के साथ-साथ बच्चे को जब प्रश्न खुद हल करने के लिए प्रेरित करते हैं तो वह बच्चे को जिंदगी की समस्याओं से जूझना सिखा रहे होते हैं। स्कूली बच्चे में धैर्य के बीज अंकुरित करते हैं जो सफल जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। धैर्य विहीन व्यक्ति कभी स्थिर नहीं होता व जि़ंदगी की कड़ी परीक्षाओं में टूट जाता है। अध्यापक बच्चे में पढ़ाई के साथ-साथ मूल्यों के इन बीजों को अवचेतन मन में गाड़ देते हैं। अनगिनत विषयों के माध्यम से अध्यापक कनसैप्ट क्लियर के साथ उसके सामूहिक विकास में लगे रहते हैं। लेकिन इस कोरोना काल में अध्यापकों ने कनसैप्ट क्लियर के तो कई विकल्प निकाले, ऑनलाइन कक्षा, यूट्यूब, हर घर पाठशाला इत्यादि लेकिन भावनामयी कड़ी जो एक स्कूल ही दे सकता है उससे बच्चे अछूते रहे। बच्चे की मनोस्थिति कैसी रही होगी, जब इतने लंबे अंतराल में उनके पास कोई दोस्त या पियर ग्रुप नहीं था। ऑनलाइन कक्षा में ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रहे थे।
अध्यापकों को स्कूल खुलने के बाद आम दिनों के विपरीत इस वक्त कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है। बच्चों की मनोस्थिति में गहरे परिवर्तन का आभास है। शायद इसमें घर का वातावरण भी जिम्मेदार रहा होगा। खासतौर पर निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जहां की आर्थिक स्थिति इस काल में काफी गड़बड़ाई। अधिकतर बच्चे कक्षा में आने व बैठने के बावजूद वे कक्षा में नहीं हैं। बच्चे अपना परिचय ऐसे दे रहे हैं जैसे वे किसी गहरे चिंतन में हैं। ऐसे लग रहा है जैसे वे अपने आपको पढ़ाई में केन्द्रित करना भूल गए हों। जिसका कारण मोबाइल में अधिक समय बिताना भी है। बिना मॉनिटरिंग के मोबाइल बच्चे को देना बहुत खतरनाक है व बच्चा इसका गलत प्रयोग कर मानसिक स्थिति बिगाड़ सकते हैं। बच्चों की मनोस्थिति पर जो यह काल असर कर गया, इसमें अभिभावक भी शायद कुछ हद तक जि़म्मेदार हो क्योंकि घर पर तनावमुक्त माहौल देना माता-पिता की नैतिक जि़म्मेदारी है और हर वक्त बच्चे के हाथ में मोबाइल देने की बजाय उन्हें अपने सामने 2-3 घंटे देना व उसके बाद खुद पढऩे को प्रेरित करना। पर यह शायद अभिभावक के लिए विभिन्न कारणों से संभव न हुआ हो। इस मानसिक दबाव के लिए कुछ हद तक हमारा समाज भी जि़म्मेदार है व शायद शिक्षा व्यवस्था भी। जो बच्चे के बौद्धिक विकास की बजाय सिर्फ नंबर लेने की होड़ पर आधारित है।
जबकि नंबर तो प्रश्न तक संबंधित है जबकि जीवन प्रश्नों से आगे समझ की अवधारणा का एक नाम है। समाज व अध्यापक का कार्य बच्चे की सोच को उस अवधारणा तक ले जाने का है। माता-पिता ही बच्चे के पहले गुरु हैं व कोरोना काल में तो यह जि़म्मेदारी अभिभावकों के कन्धों पर ज्यादा थी। प्रथम दृष्टया तो लगेगा कि विषय में पास होने से ही शिक्षा पूरी हो जाती है। जबकि पास होना या अच्छे अंक लेना जि़ंदगी में कामयाबी की अहम कड़ी नहीं बल्कि समझ को विकसित कर, सोच को सही दिशा देना व सकारात्मकता का हर पल अहसास व प्रयासरत व क्रियाशील रहना व हर स्थिति के साथ सामंजस्य बनाना पूर्ण कामयाबी की कड़ी है। विभिन्न बाधाओं के बावजूद कर्तव्य बोध का ज्ञान सफल जीवन की कड़ी है। यह समझने में शायद पढ़ा- लिखा अभिभावक भी पिछड़ गया व अपने बच्चों में सिर्फ नंबरों की होड़ की जो रेस लगाई है, उसमें बच्चा अवसाद ग्रसित हो जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। लेकिन स्कूल खुलने पर बच्चों को पूर्ववत उनके अपने बचपन से परिचय करवाना व साथ ही सीखने के लिए प्रेरित करना, इस वक्त अध्यापकों की नैतिक जि़म्मेदारी है। ऐसे में फिर से फस्र्ट टर्म परीक्षा करवाना भी कहां तक तर्कसंगत है। जो फस्र्ट टर्म परीक्षा पहले दे दी थी, वह भी स्कूल ने ही ली है यदि उसे ही फस्र्ट टर्म में मान्यता मिल जाए तो अध्यापक व अभिभावक दोनों को बच्चे की मनोस्थिति को सही दिशा देने को पूर्ण वक्त मिल जाएगा व समय को सीखने सिखाने की इस प्रक्रिया में तेजी से उपयोगी बनाया जा सकता है। साथ ही अभिभावक पर फीस का एक बोझ भी कम हो जाएगा। वैसे भी नंबर आधारित मूल्यांकन इस काल की मांग नहीं बल्कि समझ आधारित मूल्यांकन आज की प्राथमिकता है। इस वक्त अध्यापक की प्राथमिकता विषय पढ़ाने के साथ-साथ बहुत ज्यादा समय जो बच्चों ने पढ़ाई या को-करीकुलर एक्टिविटी के कारण मोबाइल में बिताया, कई बार बिना मानिटरिंग के गेम व अन्य गतिविधि में भी बिताया हो सकता है, उसके दुष्परिणाम को विद्यार्थियों के मस्तिष्क से हटाने में प्रयासरत रहना है और बच्चे के मानसिक उत्थान को उनकी शिक्षा के केन्द्र में निहित करना है।
रीना भारद्वाज
लेखिका रोहड़ू से हैं