थरूर, कनिमोझी और राजा के बहाने
अंग्रेजी की यह कहावत पिछले कई दिनों से मेरे दिलो-दिमाग पर दस्तक दे रही है।
शशि शेखर । मुर्दे न्याय नहीं मांग सकते, यह कर्तव्य जिंदा लोगों का है कि वे उनके लिए इंसाफ मांगें। अंग्रेजी की यह कहावत पिछले कई दिनों से मेरे दिलो-दिमाग पर दस्तक दे रही है। वजह? एक और हाई प्रोफाइल मामले में अदालत को सुबूत नहीं मिले हैं। सवाल उठते हैं कि क्या इस तरह के आपराधिक मुकदमों में सीबीआई अथवा अन्य जांच एजेंसियां ठीक से काम नहीं करतीं? क्या वे 'मैनेज'हो जाती हैं? या उन्हें 'किसी के'इशारे पर काम करना पड़ता है, और इस वजह से कभी-कदा वे राजनीतिक प्रतिशोध के औजार के तौर पर इस्तेमाल हो जाती हैं?
आप समझ गए होंगे कि मैं शशि थरूर की बात कर रहा हूं। 17 जनवरी, 2014 को उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर दिल्ली के एक पंचतारा होटल के कमरे में मृत पाई गई थीं। पुलिस की प्रारंभिक जांच के बाद पहली जनवरी, 2015 को अज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया। आगे की 'जांच के बाद'जांचकर्ताओं ने कांग्रेस के इस सर्वाधिक आकर्षक सांसद को भी नामजद कर दिया था। उन पर पत्नी के प्रति क्रूर बर्ताव और आत्महत्या के लिए उकसाने की गंभीर धाराएं लगाई गई थीं। थरूर नामवर हैं, लिहाजा हंगामा मच गया। शोर इतना जबरदस्त था कि लोगों को लगने लगा था कि कहीं इससे थरूर साहब का सार्वजनिक जीवन न खतरे में पड़ जाए, पर वह अडिग रहे।
वह लोकसभा जाते रहे, सार्वजनिक संवादों में हिस्सेदारी करते रहे, आरोप-प्रत्यारोप की इस वर्षा में उन्होंने चुनाव लड़ा और जीता। साढे़ सात साल की इस लंबी अवधि में उन्होंने कैसी मानसिक प्रताड़ना झेली होगी, यह कहने-सुनने से ज्यादा समझने की बात है। बहरहाल, दिल्ली की विशेष अदालत की जज गीतांजलि गोयल ने 97 गवाहों के परीक्षण के बाद पाया कि उनके खिलाफ लगाए गए किसी भी आरोप में दम नहीं है। वह आरोप मुक्त कर दिए गए हैं। क्या पुलिस ने इस प्रत्याशा में चार्जशीट लगा दी थी कि अदालत गवाहों के परीक्षण के दौरान खुद ही आपराधिक कारण ढूंढ़ लेगी? ऐसे में, दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगने लाजिमी हैं, पर वह अकेली नहीं है। भारत की हर जांच एजेंसी ऐसे ही कालौंछ भरे आरोपों की जद में है।
आपको 2-जी का मामला याद होगा। उस समय ऐसा लगता था, जैसे कांग्रेस और डीएमके के नेताओं ने भ्रष्टाचार की इंतिहा कर दी है। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री ए राजा और द्रमुक सांसद कनिमोझी को महीनों तक सीखचों के पीछे रहना पड़ा था। कनिमोझी तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि की बेटी हैं। उनके विरोधियों ने आरोपों के इस खोखले चने को इतना घना बजाया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में इसका प्रतिकूल असर पड़ा। द्रमुक सत्ता से गई और कांग्रेस अभूतपूर्व तौर पर पराजित हुई, लेकिन नतीजा क्या निकला? सीबीआई की विशेष अदालत ने आरोपियों को दोष मुक्त कर दिया। आप चाहें, तो पूछ सकते हैं कि इस दौरान उन्हें जो जलालत झेलनी पड़ी, उसकी भरपाई कौन करेगा? उन पर कीचड़ की बौछार करने वाले माफी मांगेंगे क्या?
बोफोर्स का मामला भी कुछ ऐसा ही था। राजीव गांधी उस समय सर्वकालिक सर्वाधिक सीटों के साथ सत्तानशीं थे। वह सबसे युवा प्रधानमंत्री थे और देश के नौजवानों को उनसे तमाम उम्मीदें थीं। दलाली के आरोपों ने उन्हें नायक से खलनायक बना दिया था। 1989 में उन्हें इसी के चलते सत्ताबदर होना पड़ा था। हुकूमत की इस जंग में हार-जीत होती रहती है, पर वह पराजय करोड़ों लोगों की नाउम्मीदी से उपजी थी। तब से अब तक 32 सावन-भादो गुजर गए और बोफोर्स का जिन्न भी बोतल में समा गया, लेकिन जिनके सपने टूटे, उनका क्या?
मैं रंज के साथ कहना चाहता हूं, आजादी के 74 सालों में देश की जांच एजेंसियों के दुरुपयोग में हर पार्टी की सरकार ने बराबर की हिस्सेदारी निभाई है। न कोई कम है, न ज्यादा। यही वजह है कि मद्रास हाईकोर्ट ने गुजरे सप्ताह कडे़ शब्दों में सीबीआई को पिंजड़े से मुक्त करने को कहा था। बताने की जरूरत नहीं कि देश की इस अग्रणी जांच संस्था को 'तोते'का खिताब खुद सर्वोच्च अदालत ने दिया था।
जब विधि-विधान के सटीक अनुपालन की बात होती है, तब मुझे दो लोग खासतौर पर याद आते हैं। 40 वर्षों से अधिक लंबे कार्यकाल में ये दो साधारण लोग मुझे असाधारण अनुभव दे गए। एक था रिक्शे वाला, जिसे अपनी पत्नी की हत्या के आरोप में आगरा जेल में सजा-ए-मौत दी जानी थी। फांसी के कुछ दिनों पहले एक संवाददाता को उससे मिलने का अवसर मिला था। वह जानता था कि अब जिंदा बचने की कोई उम्मीद नहीं बची, फिर भी वह बार-बार दोहरा रहा था कि बाबूजी, मैंने अपनी बीवी की हत्या नहीं की। मौत के इतने पास खड़ा शख्स क्या झूठ बोल सकता है? सयाने कहते आए हैं, मरता हुआ आदमी कभी झूठ नहीं बोलता।
इसी तरह, 1980 के दशक में लंबे समय से बिना अपराध जेल में बंद एक शख्स अखबारी खबरों की वजह से मुक्त हुआ था। दीपचंद नाम के उस गरीब इंसान को अंग्रेज हुकूमत में पुलिस ने शांति भंग करने की आशंका में गिरफ्तार किया था। इस धारा में आसानी से जमानत मिल जाती है, पर वह गरीब था, घरवालों के पास उसे छुड़ाने के लिए पैसे नहीं थे, लिहाजा वह जेल में सड़ने को अभिशप्त था। न जाने कब और कैसे वह कानपुर से नैनी जेल भेज दिया गया। दशक बीतते गए, पर वह वहीं पड़ा रहा। अखबार में खबर छपने के बाद अदालत और अधिकारियों ने मामले का संज्ञान लिया। तब तक पानी सिर के ऊपर गुजर चुका था। दीपचंद वार्धक्य की स्थिति में पहुंच गया था। उसे न अपने घर का पता याद था, न घर वालों की कोई स्मृति। जेल उसका अकेला आश्रय था। छूटने के बाद भी वह ताजिंदगी केंद्रीय कारागार के चारों ओर विक्षिप्त भाव से घूमता मिलता। बाद में उसी की दीवारों और दरवाजों पर सिर पटकते हुए उसने दम तोड़ दिया।
दीपचंद और उस रिक्शे वाले की कहानियां क्या बताती हैं? अंग्रेजों की बनाई हुई रीति-नीति आज भी कायम है। जो सत्ता में है, एजेंसियां भी उसी की हैं। अब इस दुष्प्रवृत्ति को बदलने का वक्त आ गया है। एक संप्रभु और लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को इंसाफ की राह पर चलते हुए भेदभाव रहित जीवन जीने का मूलभूत अधिकार है, पर ऐसा कब हो सकेगा?