Novel: मिनी का स्तब्ध होना लाजमी था। आखिर मिनी ने क्या सोचा था और क्या हुआ ? मिनी तो ये सोचकर आई थी कि डिलिवरी के दौरान ईश्वर करे उसकी जान चली जाए परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अब मिनी को लगने लगा कि ईश्वर नहीं चाहते कि मिनी अभी इस दुनिया को छोड़कर जाए। अब वो करे तो क्या करे उसके सामने यक्ष प्रश्न था। मिनी ने सोच लिया कि जब उसे जीना ही है तो उसे मजबूत बनना पड़ेगा और अन्याय का विरोध करना पड़ेगा।
सर कहकर गए थे मैं जल्दी ही आ जाऊंगा आपको लेने और एक महीने होने जा रहे थे न ही सर की कोई खबर आई न ही सर लेने आए। मिनी हर दिन इंतजार करती मगर अब क्या करती। उसने तो फिक्र में दवाइयां खानी भी छोड़ दी थी। न अपने तरफ ध्यान देती न बच्ची के तरफ बस उसका ध्यान इस बात पर रहता कि ऐसी क्या बात हो गई जो इतने दिन बाद भी सर नहीं आए ?
मां मिनी के इस हरकत से परेशान होने लगी। आखिर स्कूल खुलने के दिन भी पास आ गए। मिनी का गुस्सा परवान चढ़ गया। उसने ठान लिया कि वो भी कोई खबर ससुराल नहीं भिजवाएगी। उसने अपने स्कूल वाले गांव जाने की ठान ली।
मां ने फिर कहा- "मिनी! अब तुम्हें दहेज के सामान को ले जाना ही होगा, अब मैं और हिफाजत नहीं कर सकती।"
मां ने भैया के सहयोग से दहेज के सारे सामान ट्रक में डलवाए और मिनी अपने बेटा, बेटी, मां और भैया के साथ स्कूल वाले गांव में आ गई। गांव में रहते एक हफ्ते हो गए। सर की कोई खबर नहीं आई। एक दिन सर को पता चला कि मिनी गांव आ गई है तो अपने भतीजे के साथ गांव आए।
सर की आवाज सुनकर मां अवाक रह गई। मां ने पूछा- "आपको इतनी कमजोरी कैसे आई बेटा ? "
सर ने बताया कि उन्हें टाईफाइड हो गया था। मां ने कहा - "आपने कोई खबर भी नहीं दी ?"
सर ने कहा - "घर वालों को बोला था पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
मिनी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। उसने पहली बार गुस्सा किया था । मिनी ने कहा - "अभी भी आने की क्या जरूरत थी। मैने तो नहीं बुलाया। थोड़ी तबियत सही हो जाने के बाद आ जाते।"
सर ने कहा - "अभी तो ठीक है।"
मां ने सर के लिए खूब सारी दवाइयां बनाई और लगभग एक महीने में सर स्वस्थ हो पाए थे।
मां ने हर अच्छे बुरे वक्त में मिनी का साथ दिया था।
अब तो मिनी को दो बच्चों के साथ स्कूल और घर दोनों संभालना था। मां बीच बीच में घर जाती रहती थी। उस वक्त गांव के कुछ आत्मीयजनों के सहयोग को मिनी आजीवन भूल नहीं पाएगी। उन्होंने बच्चों को इतना प्यार दिया कि मिनी को पूरा गांव अपना मायका ही लगने लगा। दोनो बच्चों की देखभाल करना, दोनों बच्चों को अपने घर में पूरे समय रखना, खाना खिलाना, तबीयत खराब होने पर उपचार करना, यहां तक कि बच्चों की साफ सफाई का भी काम गांव के भैया और भाभी करने में जरा सा भी नहीं हिचकिचाते थे। दोनों बच्चों को गांव में हर कोई जानता था और सभी का अपार स्नेह बच्चों को मिलता था।
मिनी के स्कूल के बच्चे भी दोनों बच्चों से मिलने घर आते रहते थे। स्कूल परिसर में ही दोनो बच्चे पले बढ़े क्योंकि घर और स्कूल लगभग आमने सामने ही था।
धीरे धीरे बेटा बड़ा होने लगा । कभी कभी तो ऐसा होता कि एक तरफ ब्लैक बोर्ड में मिनी लिखती और एक तरफ बेटा चॉक पकड़ कर लिखने लगता। मिनी अपने विद्यार्थियों से कहती - "बच्चों आप लोग कृपया मेरी बातों को ध्यान से सुनें। बच्चे के तरफ ध्यान न दें क्योंकि ये तो रोज ही आता रहेगा। "
बच्चों में इतनी सहयोगी भावना थी कि बच्चे कहते - " जी मैम! आप पढ़ाइए हम पढ़ेंगे।"
मिनी को कभी कभी रोना आता था। आखिर दिन भर ध्यान तो उसे ही रखना था। चाहे वो कहीं भी रहे, बच्चे की फिक्र तो होती ही थी मगर उसने कभी अपने बच्चों की खातिर स्कूल के बच्चों के साथ अन्याय नहीं किया बल्कि वो स्कूल के बच्चों को भी अपने बच्चे जैसा ही स्नेह देती रही और पढ़ाने में भी कभी कोई कमी नहीं की इसलिए पालकों से भी मिनी को स्नेह और आदर मिलते रहे। अब तो सर भी मिनी के साथ रहने लगे थे।
एक बार जब मिनी और सर शुरू शुरू गांव में रहने लगे थे तब अचानक एक हजार रूपये की जरूरत पड़ी। तब मिनी कितने घरों में गई थी अपनी बात रखने पर उसे एक हजार रूपिए नहीं मिल पाए थे।
परंतु अब गांव वालों से ऐसा विश्वास का रिश्ता कायम हो चुका था कि मिनी वहां की बेटी बन चुकी थी।
मिनी ने वहां महिलाओं की टीम भी बनाई थी जो हर शनिवार को रामायण का पाठ करते थे और खूब भजन का दौर चलता था। वहां दो बस्ती थी एक स्टेशन के इस पार और दूसरी उस पार। शनिवार को दोनों तरफ की महिलाओं का मिलना होता था। सभी शनिवार का बेसब्री से इंतजार करते। चाहे गणेश उत्सव हो या शरद उत्सव हो , होली, दिवाली , तीज सभी बड़े ही प्रेम और सौहार्द्र से मनाते थे। विद्यालय का सांस्कृतिक कार्यक्रम भी यादगार हुआ करता था। विद्यालय में ग्राम वासियों की सक्रिय भागीदारी हुआ करती थी।
मिनी ने वहां 6 साल गुजारे। इन 6 वर्षों में जैसे गांव में स्नेह और सौहार्द्र बढ़ता ही चला गया। उस समय एक जिले से दूसरे जिले में ट्रांसफर का जैसे ही नियम बना सर ने मिनी की सहमति से अपने जिले में ट्रांसफर करवा लिया। गांव को छोड़ते हुए मिनी और सर दोनों को इतनी तकलीफ हुई कि उन्होंने कसम खा ली कि अब जहां भी रहना होगा कभी किसी जगह इतना अधिक लगाव नहीं रखेंगे कि वहां से जाते वक्त लोग भी दुखी हो जाएं और हम भी।
बहुत ही नम आंखों से गांव वालों ने विदाई दी। अगर सर ये न कहते कि उन्हें अपने घर जाना है अपने भाइयों के अपने परिवार के बीच रहना है तो शायद गांव वाले मिनी और सर को गांव से स्थानांतरण करवा कर जाने ही नहीं देते। गांव की एकता गांव का अपनापन कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।................ क्रमशः
रश्मि रामेश्वर गुप्ता
बिलासपुर छत्तीसगढ़