उपन्यास: Part 14- औषधि का असर

Update: 2024-09-22 11:11 GMT
Novel: जंगल से लाई हुई औषधि ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। मिनी ने देखा कि माँ के पैर धीरे-धीरे ही सही पर ठीक हो रहे हैं। माँ का स्वास्थ्य भी पहले से अच्छा हो रहा है। जो पैर पोलियो ग्रस्त लगता था वो भी सही हो रहा है। मिनी की खुशी का ठिकाना नही रहा। अप्रैल, मई, जून का महीना भी बीत गया। अब फिर से जुलाई का महीना आ चुका था। माँ को बिस्तर पर रहते पूरे 1 वर्ष हो चुके थे पर माँ के स्वास्थ्य में सुधार देखकर मिनी की ऊर्जा और बढ़ गई थी। उसे लगता था, धीरे-धीरे ही सही, माँ को अपने पैरों पर खड़ी कर लेगी।
जुलाई के महीने में फिर वैद्य के पास जाना था। सर ने मिनी से कहा- "देखो! अब आप सावधानी बरतना। एक तो रास्ता ऐसे ही दुर्गम है, उस पर आप मेरा ध्यान अब भटकाने की कोशिश मत करना।" मिनी ने हामी भर दी-" जी! अब मैं ध्यान रखूंगी " कहकर दोनो घर से निकले। जैसे ही जंगल करीब आने लगा, सड़क निर्माण कार्य शुरू हो चुका था। कम से कम 3 कि.मी. तक गिट्टी के ऊपर बाईक चलानी पड़ी। कभी मुरम के ऊपर, कैसे भी कर के वैद्य के पास पहुँचे।
माँ की स्थिति में सुधार सुनकर वैद्य भी खुश हुए। अब दवाइयां लेकर वैद्य के घर से निकले ही थे कि थोड़ी दूर जाते ही गाड़ी पंचर हो गई। गनीमत गांव में एक व्यक्ति मिला जिसने टेम्परेरी बना दिया और बोला कि अभी तो काम चल जाएगा सर् फिर भी आपको फिर से बनवाना होगा। अब दोनो ने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि शुक्र है अभी गांव से निकले नही थे इसलिए गाड़ी बन भी गई नहीं तो क्या होता।
जैसे ही 20 कि.मी.गाड़ी चली और घनघोर जंगल आया, गाड़ी फिर से पंचर। अब तो दोनो की हालत खराब होने लगी। दोपहर का समय था। चुभने वाली धूप थी। भूखे प्यासे अलग थे। जंगल के बीचों बीच । दोनो की बोलती बंद पर दोनो रुके नही। सर लगातार गाड़ी को घसीट कर चला रहे थे। 1 कि. मी. फिर 2 फिर 3 फिर 4 अब गाड़ी को घसीटते हुए 5 कि . मी. हो चुके थे। दोपहर का सन्नाटा हर तरफ पसरा हुआ था। सर पसीने से लतपथ थे। मिनी बार -बार कह रही थी - "आप थक गए हैं , थोड़ी देर कही रुक जाते हैं" पर सर नही माने। सन्नाटे को देखते हुए कहीं रुकना भी सही नही था। कुछ दूर मिनी ने बाईक को घसीटने की कोशिश भी की पर थोड़ी दूर भी नही कर पाई। आखिर सर अकेले ही बाईक को घसीटते रहे। साँसें फूलने लगी थी। दोपहर 2 बजे का समय था। दूर-दूर तक कोई भी नज़र नही आ रहा था। डर
में दोनो के क
दम भी रुकने का नाम नही ले रहे थे। आखिर 5 कि.मी. के बाद एक कमरा दिखा। वहाँ 4 लोग बैठकर सायकल वगैरह बनाते दिखे। सर ने कहा- "मुझे चक्कर आ रहा है। आओ , यहाँ थोड़ी देर रुक जाते है।"
वो पंचर बनाने वाले की ही दुकान थी। दोनो घबराए हुए दुकान पर रुके। ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि वे लोग बहुत ही भले इंसान थे। उन्होंने दोनो को पंखे के आगे बैठाया । उनके पास सिर्फ उनके पीने के लिए, बॉटल में बहुत कम पानी था। आस-पास बोर भी नही था फिर भी खुश होकर दोनो को पानी पिलाये। मिनी सोच रही थी कि हम लोग इनसे कितने डरे हुए थे पर ईश्वर की इतनी कृपा कि इन्होंने भगवान के जैसे ही हमारी जान बचाई । थोड़ी देर बैठने के बाद जान में जान आई। वैद्य को उन लोग जानते थे। उनकी खूब तारीफ किये। पंचर भी बनाई। और फिर दोनो खुश होकर घर पहुँचे।..........................क्रमशः
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