अंपायरों को कोई पसंद नहीं करता लेकिन आप उनके बिना खेल भी नहीं खेल सकते

ओपिनियन

Update: 2022-04-26 10:58 GMT
शेखर गुप्ता का कॉलम: 
राजधानी के जहांगीरपुरी क्षेत्र में दंगों के बाद बुलडोजर और ध्वस्तीकरण अभियान फिर सुर्खियों में है, जहां उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने खासकर मुस्लिमों के स्वामित्व वाली संपत्तियों को निशाना बनाया। बचाव में तर्क ये दिया कि केवल अतिक्रमण और अनधिकृत निर्माण ध्वस्त किए जा रहे हैं।
भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री और राजधानी में डिमॉलिशन मैन- जो 1992 से 1995 के बीच दिल्ली विकास प्राधिकरण के आयुक्त (भूमि) पद पर सेवारत थे- के तौर पर ख्यात रहे के.जे. अल्फोंस ने बातचीत में कहा था कि ध्वस्तीकरण अभियान तभी प्रभावी होते हैं, जब पहले कुलीन वर्ग के अवैध कब्जों को निशाना बनाया जाए।
वे बताते हैं कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने एकाध ही अलग-थलग बसी झुग्गी-बस्ती ध्वस्त की थी। इसने मुझे 1999 के अपने उस लेख की याद दिला दी, जो मैंने उस समय लिखा था जब न्यायपालिका अतिक्रमणों पर संज्ञान ले रही थी। यह फिर प्रासंगिक हो गया है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक ढांचे में निचले पायदान पर रहने वालों को निशाना बनाया जा रहा है और अमीर और ताकतवर लोगों को हमेशा की तरह खुली छूट मिली हुई है।
लेकिन इस स्तंभकार जैसा कोई मुक्त-बाजार का हिमायती शिकायत क्यों कर रहा है? क्योंकि हमें सरकार की जरूरत है। दरअसल, लाइसेंस-कोटा राज की तुलना में एक मुक्त बाजार, नियंत्रण मुक्त और उपभोक्ताओं को राजा मानने वाली समृद्ध अर्थव्यवस्था में तो सुशासन की आवश्यकता अधिक होती है।
क्या कभी सोचा है कि हमारे मध्यम और उच्च-मध्यम वर्ग, कुछ अतिरिक्त आय और इसलिए थोड़ी बचत कर पाने वाले लोग आर्थिक सुधारों को लेकर नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हैं? एक हालिया सर्वेक्षण ने यह क्यों दिखाया कि हमारे 70 फीसदी युवा संरक्षणवाद के पक्ष में हैं? हर्षद मेहता उनकी नजर में क्या है? बहुत अधिक रेग्युलेशन का नतीजा या बहुत कम का?
या फिर 1993-94 में बाजार में शुरुआती उछाल के दौरान रातोंरात उभरी सैकड़ों निजी कंपनियों की घटना का, जिसने आईपीओ के जरिए पेंशनभोगियों और वेतनभोगियों से 10,000 करोड़ रुपए से अधिक जुटाए, और फिर गायब हो गया? यदि डिरेग्युलेशन का नतीजा इस तरह के झांसे के तौर पर ही सामने आता है तो क्या पुराने माई-बाप सरकार वाले दिन ज्यादा बेहतर नहीं थे, जब उद्योग भवन के बाबू लाइसेंस पर कुंडली मारे बैठे रहते थे और शेयर से जुड़े पूंजीगत मुद्दों का नियंत्रण उनके हाथ में होता था?
लेकिन नॉन-गवर्नेंस को डिरेग्युलेशन मान लेना खतरनाक है। कोई भी मुक्त बाजार अच्छी सरकार और मजबूत कानूनों के बिना सफल नहीं हो सकता। एक मुक्त बाजार को सरकार-संचालित अर्थव्यवस्था से भी अधिक कानूनों की आवश्यकता होती है। कानून अच्छे और निष्पक्ष होने चाहिए, लागू करने के लिहाज से डिरेग्युलेटरी होने चाहिए, और फिर इन पर अमल और निगरानी सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए। यदि बाजार अपने आप में जवाबदेही की गारंटी होता तो सबसे सफल मुक्त अर्थव्यवस्थाओं में इस तरह के मजबूत नियामक तंत्र नहीं होते।
बाजार, कानून और सरकारें मिलकर जवाबदेही सुनिश्चित करती हैं। हमारे मंत्री, वित्त सचिव, सीबीआई प्रमुख और यहां तक कि सेबी के मुखिया भी इस बात की शिकायत करते हैं कि हमारे पैसे लेकर गायब हुई कंपनियों के प्रमोटरों का पता लगाना और उन्हें दंडित करना मुश्किल है। सीधा सवाल यह है कि देश के शीर्ष बैंकों और वित्तीय संस्थानों की तरफ से चलाई जा रही मूल्यांकन एजेंसियों के प्रभारी अधिकारियों को क्यों नहीं पकड़ा जाता, जिनके प्रमाणपत्र प्रमोटर बड़े गर्व से लहराते घूमते थे?
हम तो इसलिए ठगे गए न, क्योंकि हमने सोचा था कि इनका मूल्यांकन सम्मानित संस्थानों ने किया है। दूरसंचार क्षेत्र में जारी तमाशा यह समझने के लिए एक अच्छा उदाहरण है कि कैसे हमने डिरेग्युलेशन को नो-रेग्युलेशन समझने की भूल कर दी है। सेवाएं बेहतर हुई हैं, अभूतपूर्व रूप से सस्ती भी हैं और इस सबका श्रेय निजीकरण को दिया जाना भी सही लगता है। लेकिन इस सबके बीच ट्राई की भूमिका के बारे में सोचें, जिससे निजी ऑपरेटर्स के साथ-साथ पुराने खिलाड़ी एमटीएनएल और डीओटी भी चिढ़ते हैं।
वे टैरिफ घटाते रहते हैं और कोई गलती दिखने पर अंपायर की तरह सीटी भी बजाते हैं। अंपायरों को तो कोई भी पसंद नहीं करता लेकिन आप उनके बिना खेल भी नहीं खेल सकते। हमें सरकार की जरूरत है या नहीं, यह बहस पुराने भारतीय ताने-बाने में ही उलझी है, जहां हम किसी चीज से इतने प्रभावित हो जाते हैं कि आगे-पीछे सब भुला देते हैं।
हम चुनाव अभियानों, मतदान, धांधली और परिणामों में इस कदर उलझ जाते हैं कि भूल जाते हैं यह सब किसलिए है। मुझे कई साल पहले डॉ. मनमोहन सिंह के साथ हुई बातचीत याद है, जब वे वित्त मंत्री थे। वे अर्थव्यवस्था और राष्ट्र की स्थिति पर चिंतित थे। उन्होंने कहा, 'हमारा तब तक कोई भविष्य नहीं है, जब तक हम अपने लोगों को उन सेवाओं के लिए उचित शुल्क के भुगतान के लिए राजी नहीं कर लेते जो सरकार उन्हें प्रदान करती है- जैसे बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा आदि।'
लेकिन ऐसी सरकारें हमें इसके लिए कैसे राजी कर सकती हैं, जो दूसरों को मुफ्त बिजली की लूट, बिना टिकट यात्रा, नियमों-कायदों की धज्जियां उड़ाने और अवैध निर्माण करने की अनुमति देती हैं, वहीं अधिकारी हाउस टैक्स के लिए हमें परेशान करते रहते हैं और पूरी तरह से कानूनी कॉलोनियों में हमारी कथित तौर पर बड़ी बालकनी ध्वस्त करने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं?
मजबूत, निष्पक्ष और दखल में सक्षम
कोई देश, खासकर जो भारत की तरह इतने उद्यमों से संपन्न हो, मुक्त बाजार के बिना विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ सकता। लेकिन वहां सरकार का होना जरूरी है, जो सम्राट के तौर पर नहीं, बल्कि अंपायर के रूप में होनी चाहिए। अंपायर को मजबूत और निष्पक्ष होने के साथ-साथ नियमों के उल्लंघन को लेकर सशंकित रहना चाहिए और उसमें ऐसी स्थिति में दखल की इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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