नए कृषि कानूनों से किसानों को अधिक विकल्प व निजी निवेश में भी मिलेगा प्रोत्साहन
नए कृषि कानूनों से किसानों को मिलेंगे ज्यादा विकल्प
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। जिस देश में 'उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी भीख निदान' जैसा दोहा प्रचलित हो, वहां की खेती-किसानी घाटे का सौदा बन जाए तो इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। यह सच है कि देश में खेती की बढ़ती लागत, प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि, मिट्टी की उर्वरा शक्ति में ह्रास, पानी की किल्लत, सस्ते कृषि उत्पादों के आयात के चलते खेती घाटे का सौदा बन चुकी है। मोदी सरकार भारतीय कृषि की इस तस्वीर को दुरुस्त करने के वादे के साथ सत्ता में आई है। इसी कड़ी में उसने कृषि क्षेत्र में बाजार अर्थव्यवस्था का आगाज करते हुए तीन नए कानूनों को लागू किया है।
नए कृषि कानूनों से किसानों को मिलेंगे ज्यादा विकल्प
पहले कानून के अनुसार किसान अपनी कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) द्वारा अधिसूचित मंडियों से बाहर कहीं भी बेच सकेंगे। दूसरे कानून के अनुसार किसान अनुबंध वाली खेती और अपनी उपज की मार्केटिंग कर सकते हैं। तीसरे कानून के अनुसार अनाज, दालों, खाद्य तेल, आलू, प्याज के भंडारण-विपणन को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण मुक्त कर दिया गया है। सरकार का तर्क है कि इन नए कानूनों से किसानों को ज्यादा विकल्प मिलेंगे और कृषि उत्पादों की कीमत को लेकर भी प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। इसके साथ ही कृषि बाजार, प्रसंस्करण, आधारभूत संरचना में निजी निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा।
किसानों के मन में सबसे बड़ा डर: एमएसपी की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी
हालांकि किसानों के मन में सबसे बड़ा डर यह है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी और उन्हेंं अपनी उपज औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर होना पड़ेगा। दूसरे, मंडियों के बाहर कारोबार होने से उनके पास पैसा नहीं आएगा और फिर वे बंद हो जाएंगी। इससे किसानों के पास कीमत निर्धारण की कोई व्यवस्था नहीं बचेगी। इसीलिए वे मांग कर रहे हैं कि एमएसपी को अनिवार्य बनाया जाए।
नए कानूनों का विरोध उन्हीं राज्यों के किसान कर रहे जहां समर्थन मूल्य पर बड़े पैमाने पर खरीद होती है
इस संबंध में सबसे बड़ी बात यह है कि नए कानूनों का विरोध उन्हीं राज्यों के किसान संगठन कर रहे हैं जिनमें समर्थन मूल्य पर बड़े पैमाने पर खरीद होती है। गौरतलब है कि देश के मात्र छह फीसद किसान समर्थन मूल्य पर अनाज बेचते हैं और इन छह फीसद किसानों में 84 फीसद पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान हैं। केंद्र एवं राज्य सरकारें पंजाब-हरियाणा से हर साल 90,000 करोड़ रुपये का अनाज खरीदती हैं, लेकिन यह खरीद सीधे किसानों से न होकर बिचौलियों-आढ़तियों के जरिये होती है। इसके एवज में इन आढ़तियों को कमीशन मिलता है। पंजाब-हरियाणा में खेती-किसानी से लेकर राजनीति तक में इनकी गहरी पैठ है। जाहिर है जब मंडियों से बाहर कारोबार होने लगेगा, तब इन आढ़तियों का महत्व कम हो जाएगा। शायद इसीलिए ये किसानों की आड़ लेकर नए कानूनों का विरोध कर रहे हैं।
आढ़तियों की लॉबी किसानों में भ्रम पैदा कर रही: एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी
आढ़तियों की लॉबी किसानों में यह भ्रम पैदा कर रही है कि नए कानूनों से एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि वह मंडी व्यवस्था के समानांतर खरीद-बिक्री का एक तंत्र विकसित कर रही है, ताकि प्रतिस्पर्धा बढ़े और किसानों को उनकी उपज की अच्छी कीमत मिल सके। यह प्रयोग महाराष्ट्र में कामयाब रहा है जहां एफपीओ (किसान उत्पाद संगठन) निजी क्षेत्र से सीधे कारोबार कर रहे हैं। यह भ्रम भी बेबुनियाद है कि आगे चलकर सरकार किसानों से अनाज की खरीदारी बंद कर देगी।
पीडीएस के लिए सरकार को हर साल छह करोड़ टन अनाज चाहिए, सरकारी खरीद नहीं होगी बंद
उल्लेखनीय है कि संसद से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून पारित हुआ है, जिसके तहत सरकार देश के 80 फीसद लोगों को रियायती दर पर अनाज मुहैया करा रही है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत बंटने वाले इस अनाज के लिए सरकार को हर साल छह करोड़ टन अनाज चाहिए। ऐसे में सरकारी खरीद बंद होने का सवाल ही नहीं उठता। इसी तरह का भ्रम एमएसपी खत्म होने को लेकर फैलाया जा रहा है, जबकि सरकार लिखकर देने को तैयार है कि एमएसपी खत्म नहीं होगी।
एमएसपी ने भारत में असंतुलित कृषि विकास को बढ़ावा दिया
हालांकि एमएसपी ने भले ही किसानों को एक न्यूनतम कीमत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो, लेकिन गहराई से देखा जाए तो इसने भारत में असंतुलित कृषि विकास को ही बढ़ावा दिया है। एमएसपी अभी 23 फसलों के लिए घोषित किया जाता है, लेकिन सरकारी खरीद गेहूं, धान, गन्ना, कपास जैसी चुनिंदा फसलों और कुछेक इलाकों (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) तक सीमित रही है। यही कारण है कि किसानों का आंदोलन पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सिमटा है। वास्तव में सरकार नए कानूनों के जरिये फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने की दूरगामी योजना पर काम कर रही है, ताकि कृषि जैव विविधता के विनाश, गेहूं-धान की एकफसली खेती, मिट्टी-पानी-हवा के प्रदूषित होने और भूजल संकट आदि से बचा जा सके। दरअसल खेती में कामयाबी की गाथा लिखने वाले प्रगतिशील किसान उन्हीं फसलों के बल पर आगे बढ़े हैं, जिनकी एमएसपी तय नहीं होती है।
छोटे किसानों की समस्या को दूर करने के लिए अनुबंध खेती का प्रावधान किया गया
गौरतलब है कि शहरीकरण, बढ़ती क्रय शक्ति, मध्य वर्ग का विस्तार, उदारीकरण-वैश्वीकरण जैसे कारणों से लोगों की खान-पान की आदतों में बदलाव आ रहा है। अब अनाज की जगह डेयरी उत्पाद, मांस, पोल्ट्री, फलों और सब्जियों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इनकी खेती अधिकतर छोटे किसान करते हैं, लेकिन उनके पास भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन की क्षमता नहीं है। इसी समस्या को दूर करने के लिए अनुबंध खेती का प्रावधान किया गया है। इसके तहत कंपनियां या बड़े खरीदार छोटे किसानों से उनकी उपज खेत में ही खरीद लेंगी। अनुबंध खेती में भी किसानों के हितों का भरपूर ध्यान रखा गया है। कुल मिलाकर इन कानूनों के लागू होने से भारतीय कृषि में एक नई क्रांति आएगी। इससे किसानों की आय बढ़ेगी।