भारतीय राजनीति का नया एजेंडा

छह-सात दशक पुरानी एक स्मृति ध्यान में आ रही है

Update: 2022-06-23 19:10 GMT

छह-सात दशक पुरानी एक स्मृति ध्यान में आ रही है। हमारे गांव में हर साल जन्माष्टमी के अवसर पर बहुत बड़ा उत्सव होता था। उसमें गांव के ही कलाकार अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियां भी देते थे और कुछ भाषण भी होते थे। पूरे गांव में एक बुजुर्ग अकाली जत्थेदार भी था। उसको भी जन्माष्टमी में जनता को संबोधित करने का अवसर मिलता था। वह हर साल अपनी एक ही कविता पढ़ता था और उसे तरन्नुम में गाता भी था। उसकी एक पंक्ति मुझे अभी भी याद है। 'हुण राजे नीं जम्मदे रानियां नूं।' उस समय मुझे इसका भीतरी अर्थ तो समझ नहीं आता था, लेकिन हम तालियां ख़ूब पीटते थे क्योंकि उसने हमें पहले ही बुला कर कहा होता था कि हर दूसरी पंक्ति पर ताली बजाना है। लेकिन अब पिछले सात-आठ साल से इसका अर्थ समझ ही नहीं आने लगा है, बल्कि उसका अर्थ दिखने भी लगा है। सामान्य भाषा में इसका अर्थ है कि अब युग बदल गया है। अब राजा का जन्म किसी रानी के पेट से नहीं होता। अंग्रेज़ी वाले इसको अपने ढंग से बताते हैं कि अब राजा रानी के पेट से नहीं, बल्कि मतपेटी के पेट से पैदा होता है। लेकिन जिन दिनों वह जत्थेदार राजा के रानी के पेट से न पैदा होने की घोषणा कर रहा था, उन दिनों नेहरु को हिंदुस्तान का बादशाह कहा जाने लगा था। तब जत्थेदार को आशा रही होगी कि नेहरु के बाद मतपेटी वाले राजाओं का युग आ जाएगा। नेहरु के बाद जत्थेदार जि़ंदा था या नहीं, इसका अब मुझे ध्यान नहीं है, लेकिन जत्थेदार की आशा पूरी नहीं हुई। देश भर में राज परिवार पैदा हो गए। उनके बेटे-बेटियां ही राजे बनने लगे। अलबत्ता अब वे अपने बच्चों को मतपेटी में छिपा कर रखने लगे थे ताकि आम आदमी को लगे कि राजा मतपेटी में से निकला है। राजवंश भी फलते-फूलते रहे और लोकतंत्र को भी किसी प्रकार की हानि नहीं हुई। हां यह जरूर हुआ कि राजवंशों के बच्चे देसी-विदेशी शिक्षा संस्थानों में जरूर घूम आते थे ताकि यहां के आम लोगों को गोरे महाप्रभुओं की तरह आतंकित कर सकें। लेकिन पिछले कुछ साल से शायद उस अकाली जत्थेदार की आशा पूरी होने लगी है।

अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने थे तब भी राजवंशों को आश्चर्य हुआ था। एक प्रश्न गूंजता रहता था। बैकग्राऊंड क्या है? गांव का आदमी नाचता था। बैकग्राऊंड भारतीय है। इस पहेली को समझना शायद थोड़ा मुश्किल है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक कहा करते थे, इस समय एक इंडिया है और एक भारत है। इंडिया यानी वे लोग जो अभी भी अंग्रेज़ की नक़ल को गौरव बता कर गौरवान्वित हो रहे हैं। भारत यानी जहां देश की मूल पहचान यानी सनातन पहचान सुरक्षित ही नहीं बल्कि पल्लवित हो रही है। इसलिए अटल जी के प्रधानमंत्री बनने पर इंडिया के एक-दो प्रतिशत लोग हैरान थे। ज़ाहिर है दुखी भी तो होंगे ही। सिर धुन रहे थे, क्या ज़माना आ गया है। सचमुच ज़माना बदलना शुरू हो गया है। जब मां गंगा ने सोमनाथ के प्रदेश से नरेंद्र मोदी को वाराणसी बुला लिया था, तभी शक होने लगा था भारत जाग रहा है और मतपेटियों के रास्ते ही अंगड़ाई ले रहा था। मां गंगा ने जब मोदी को प्रधानमंत्री बना दिया तब मुझे उस जत्थेदार के वे शब्द अचानक याद आ गए। इस बार तो यह प्रश्न और भी ज़ोर से गूंजा, बैकग्राऊंड क्या है? लेकिन उसके लिए इंडिया वालों को खोज नहीं करनी पड़ी। हलकान नहीं होना पड़ा। मोदी ने ख़ुद ही मां गंगा के किनारे हाथ में गंगाजल लेकर हुंकार भर दी, मैं रेलवे स्टेशन पर चाय बेचता था। मैं संघ का प्रचारक था। इंडिया वालों ने नाक-भौंह सिकोड़ ली। क्या ज़माना आ गया है। लेकिन इससे एक युग बीत गया और दूसरा नया युग शुरू हुआ। यह नया युग भारत का युग था। राजा सचमुच मतपेटी में से निकलना शुरू हुआ था। जब अंग्रेज़ यहां से गए थे तो भारत वाले तो गांव-गांव में ढोल मंजीरा बजा रहे थे, लेकिन इंडिया वालों की हालत ख़राब होने लगी थी। नीरद चौधरियों ने कहा था, अब अंग्रेज़ों के बिना भारत रहने लायक़ नहीं बचा। इंडिया के लिए यह बेगानी हो गया है। नीरद चौधरी तो सचमुच अपने अंग्रेज़ मालिकों के साथ इंग्लैंड ही चले गए थे। लेकिन दूसरों ने यहीं रहकर इंडिया के शासन को बचाने के लिए लड़ाई लड़ने की रणनीति बनाई। जरूर उन्हें इसमें अपने गोरे मालिकों की प्रत्यक्ष-परोक्ष मदद मिली होगी। कुछ सीमा तक उन्हें कामयाबी भी मिली।
गोरे लोगों द्वारा छोड़ी धरती पर नए राजवंशों की फसल उग आई। लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में मां गंगा ने वाराणसी में बाज़ी पलट दी। देश का एजेंडा इंडिया के हाथ से छीन कर भारत के हाथों में दे दिया। ख़तरनाक गलियों की भूलभुलैयों से विश्वनाथ बाहर निकल आए। शताब्दियों से शिव के दर्शनों की प्रतीक्षा कर रहे नंदी बाबा को शिव के होने का समाचार मिल गया। नारद जी ख़बर लाए। नंदी बाबा पिछले तीन सौ साल से भी ज्यादा से इसी समाचार की प्रतीक्षा कर रहे थे। पिछले सत्तर साल से भारत भूमि पर उग आए राजवंश अप्रासंगिक होने लगे। नेहरु-गांधी परिवार के समस्त स्रोत भारत ने बंद कर दिए हैं। इन्हीं ऊर्जा स्रोतों से यह परिवार अपना घर भर रहा था। नया चौटाला राजपरिवार अपने भूत के भार से दब कर दम तोड़ रहा है। बादल राज परिवार जनता के ग़ुस्से का शिकार होकर अपने घाव सहला रहा है। लालू राजपरिवार और करुणानिधि राज परिवार भी इस लोकतांत्रिक सेंक को अनुभव करने लगा है। कोंकण क्षेत्र में ठाकरे राजपरिवार अभी सागर के किनारे अपनी जडें़ जमा ही रहा था। राजवंश को स्थापित करने और सत्ता संभाले रखने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेलने पड़े। शरद पवार और राहुल गांधी के आगे नतमस्तक होना पड़ा। वैचारिकता की केंचुली उतार कर फेंकनी पड़ी। वैसे भी राज परिवारों के लिए 'विचार' एक ऐसा आभूषण है जो यदा-कदा विशेष मौक़ों पर गहनों की तरह इस्तेमाल किया जाता है और उत्सव की समाप्ति पर संभालकर या तो संदूक में रख दिया जाता है या फिर बैंक के लॉकर में जमा करवा दिया जाता है।
राजवंश को सत्ता की खाद से अच्छी तरह महाराष्ट्र की जमीन में रोपने के लिए उन्होंने बाला साहिब ठाकरे की विचार पूंजी को बैंक लॉकर में रख दिया। लेकिन अब एजेंडा भारत तय करता है, इंडिया नहीं। भारत ने ठाकरे राजवंश का सद्य आरोपित पौधा उखाड़ दिया और वहां विचार पूंजी को लेकर राजवंशियों से प्रश्न पूछने शुरू कर दिए तो पूरा राजवंश 'वर्षा' छोड़कर मातोश्री में चला गया। और अब द्रौपदी मुर्मू भाजपा की ओर से भारत के राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी होंगी। ओडीशा के सुदूरस्थ मयूरगंज जिला के पिछड़े क्षेत्र के एक गांव की रहने वाली द्रौपदी मुर्मू। संभाल समाज की मुर्मू झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं। संभाल समाज कैसा है, इसके संकेत फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल में जगह-जगह मिलते हैं। कौन मुर्मू? इंडिया में फिर सवाल पूछने का सिलसिला शुरू हो गया है। होना ही था। लेकिन उत्तर भी आने शुरू हो गए हैं। अरे भाई! देखा नहीं, जो राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी बनने की घोषणा के बाद कृतज्ञतावश सामने के शिव मंदिर में जाकर झाड़ू लगा रही थी और नंदी बैल के कान में कुछ कह भी रही थीं। मुर्मू की यह कृतज्ञता महानगरों में बैठे चंद इंडिया वालों को समझ नहीं आएगी क्योंकि उनका दिल हिंदुस्तान की विरासत में नहीं, बल्कि आयातित पश्चिमी विरासत में धड़कता है। वे भावी राष्ट्रपति की इस भावना और कृत्य पर शायद नाक-भौं भी सिकोड़ेंगे। लेकिन अब उससे कुछ असर नहीं पड़ता। अब एजेंडा भारत तय करता है, इंडिया नहीं। मुर्मू ही असली भारत की प्रतीक हैं। अब तो चर्चा यह शुरू हो गई है कि भाई यह यशवंत सिन्हा कौन हैं? यह प्रश्न ही बताता है कि एजेंडा बदल गया है। युग बदल गया है।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री
वरिष्ठ स्तंभकार
ईमेल : kuldeepagnihotri@gmail.com
सोर्स - divyahimachal


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