इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष

राजधानी स्थित इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा लगाकर वर्तमान मोदी सरकार ने पिछले 50 वर्षों से अधिक से चले आ रहे विवाद को समाप्त कर दिया है। इंडिया गेट पर अंग्रेजी साम्राज्य के दौरान जब 1911 में भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाने का फैसला किया गया था

Update: 2022-09-11 03:30 GMT

आदित्य चोपड़ा: राजधानी स्थित इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की प्रतिमा लगाकर वर्तमान मोदी सरकार ने पिछले 50 वर्षों से अधिक से चले आ रहे विवाद को समाप्त कर दिया है। इंडिया गेट पर अंग्रेजी साम्राज्य के दौरान जब 1911 में भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाने का फैसला किया गया था तो नई दिल्ली शहर नये तरीके से बसाया गया था मगर इस इलाके में बने भवनों के स्थापत्य में भारत की संस्कृति की छाप भी थी। मसलन संसद भवन की इमारत परसांची के गोलाकार बौद्ध स्तूप की छाया थी। वर्तमान राष्ट्रपति भवन का स्थापत्य भी केरल, कर्नाटक व केरल की सीमा पर बने एक हजार आठ खम्भों के जैन मन्दिर से प्रेरित था। परन्तु इसके साथ ही अंग्रेजों ने अपने कुछ स्थायी चिन्ह भी बनवाये थे जिनमें इंडिया गेट प्रमुख था जो कि प्रथम विश्व युद्ध में शहीद भारतीय सैनिकों की स्मृति में बनाया गया था और उसके पास ही अंग्रेजी साम्राज्य की ताकत के प्रतीक रूप में ब्रिटिश नमूने की एक छतरी (केनोपी) बाद में बनाई गई जिसमें ब्रिटेन के सम्राट किंग जार्ज पंचम की प्रतिमा स्थापित की गई। जार्ज पंचम की यह प्रतिमा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य की तस्वीर रूप में स्थापित थी। भारत के स्वतन्त्र होने पर 1967 तक यही स्थिति बनी रही हालांकि राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक जाने वाली सड़क का नाम किंग्सवे के स्थान पर राजपथ कर दिया गया और इससे क्विंस वे का नाम बदल कर जन पथ कर दिया गया था। परन्तु इंडिया गेट पर जार्ज पंचम की प्रतिमा लगातार अकड़ से खड़ी रही। 1967 के आम चुनावों से पहले 1966 में दिल्ली महानगर की लोकतान्त्रिक संरचना में एक परिवर्तन हुआ और उपराज्यपाल के शासन को लोकोन्मुख बनाने की गरज से महानगर परिषद का गठन किया गया जिसे दिल्ली की नागरिक प्रशासनिक सेवाओं के अधिकार दिये गये जबकि दिल्ली नगर निगम पृथक से थी। महानगर परिषद के पहले अध्यक्ष मीर मुशत्याक बनाये गये। परन्तु 1967 में इस महानगर परिषद के पहली बार चुनाव हुए जिनमें भारतीय जनसंघ को भारी बहुमत प्राप्त हुए। जनसंघ ने महानगर परिषद के मुख्य कार्यकारी पार्षद पद पर प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा को चुना। श्री मल्होत्रा जनसंघ की राष्ट्रवादी विचार धारा के उस समय बहुत बड़े संवाहक माने जाते थे और अखिल भारतीय स्तर पर जनसंघ का बहुत बड़ा चेहरा भी समझे जाते थे क्योंकि पूरे देश में केवल दिल्ली का ही एकमात्र शासन था जहां जनसंघ अपने बूते पर सत्ता में आयी थी। दिल्ली नगर निगम में भी इसका बहुमत आया था और लाला हंसराज तब इसके मेयर चुने गये थे। महानगर परिषद व नगर निगम दोनों ही स्थानों पर जनसंघ का शासन था। सत्ता में आने पर श्री मल्होत्रा ने दिल्ली से अंग्रेजी उपनिवेश के चिन्ह मिटाने का व्यापक अभियान चलाया और बहुत से भवनों व स्थानों व सड़कों के नाम भारतीय शहीदों के नाम पर रखे। तभी उन्होंने मांग की कि इंडिया गेट पर लगी जार्ज पंचम की प्रतिमा को हटाया जाये और वहां नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा स्थापित की जाये। उन्होंने महानगर परिषद से इस बारे में प्रस्ताव भी पारित कराया। उस समय केन्द्र में स्व. इन्दिरा गांधी की सरकार थी और इंडिया गेट का क्षेत्र विविध मन्त्रालयों व प्रशसकीय खंडों के अधिकार क्षेत्र में आता था। तब इस मसले पर देश में काफी बहस छिड़ी। केन्द्र व इंदिरा जी का रुख इस मसले पर यह निकल कर आया कि इंडिया गेट पर महात्मा गांधी की प्रतिमा लगनी चाहिए। परन्तु जनसंघ अपनी मांग पर कायम रहा। एक बार यह फैसला लगभग हो गया था कि इंडिया गेट पर राष्ट्रपिता की प्रतिमा ही लगेगी मगर तब यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या अंग्रेजों के चंगुल से देश को छुड़ा कर स्वतन्त्रता दिलाने वाले महात्मा गांधी की प्रतिमा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य की प्रतीक छतरी (केनोपी) के नीचे लगेगी? महात्मा गाधी तो जीवन पर्यन्त अंग्रेजों की दासता के सख्त विरोधी रहे और उन्होंने अंग्रेजी कपड़ों तक का बहिष्कार किया। यह प्रश्न बहुत गंभीर और विचारोत्तेजक था। मगर जार्ज पंचम की प्रतिमा को हटाने के मुद्दे पर कोई विवाद नहीं था अतः इसे 1968 में हटा दिया गया था। गांधी या सुभाष बोस की प्रतिमा के विवाद के चलते अन्त में यह फैसला हुआ कि छतरी को खाली ही छोड़ दिया जाये और महात्मा गांधी की प्रतिमा भी न लगाई जाये। परन्तु प्रोफैसर मल्होत्रा की मानना था कि दिल्ली में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की कुर्बानी की याद दिलाने का कोई न कोई प्रतीक जरूर होना चाहिए। अतः उन्होंने फैसला किया कि दरियागंज के निकट जामा मस्जिद जाने वाली सड़क को जोड़ने वाले चौराहे पर स्थित एडवर्ड पार्क को नेताजी को समर्पित किया जाये। इस पार्क में किंग एडवर्ड की मूर्ति स्थापित थी। महानगर परिषद ने फैसला किया कि किंग एडवर्ड की मूर्ति हटा कर उसके स्थान पर नेताजी की मूर्ति लगाई जाये और पार्क का नाम बदल कर नेताजी सुभाष पार्क रखा जाये। आज इस पार्क में नेताजी की मूर्ति है। दरअसल 1967 से 1971 के बीच जनसंघ के शासन में दिल्ली में बहुत विकास कार्य हुआ था। अन्तर्राज्यीय बस अड्डा बनाया गया जिसे राणा प्रताप बस अड्डा का नाम दिया गया। फूलघड़ी बनाई गई और अंग्रेजी नामों को हटा कर भारतीय शहीदों के नाम रखे गये। जैसे चांदनी चौक फव्वारे का नाम भाई मतिदास चौक रखा गया। कई पुस्तकालयों के नाम बदले गये। यही से जनसंघ ने यह नारा उठाया था कि 'हमने दिल्ली बदली है-देश भी हम बदलेंगे'। कांग्रेस ने इसके जवाब में कहा था कि 'सिर्फ नाम बदलने के अलावा जनसंघ ने दूसरा कोई काम नहीं किया।

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