ओडिशा, बंगाल और तमिलनाडु की राजनीति में नवीन,ममता और स्टालिन फैक्टर
नवीन पटनायनक, ममता बनर्जी और अब उसमें एक और नाम जुड़ गया है एम.के. स्टालिन का. इन तीनों में ऐसी क्या खास बात है कि
Faisal Anurag
नवीन पटनायनक, ममता बनर्जी और अब उसमें एक और नाम जुड़ गया है एम.के. स्टालिन का. इन तीनों में ऐसी क्या खास बात है कि नगर और पंचायतों के चुनावों उनकी ताकत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. ओडिशा और पश्चिम बंगाल के निकाय चुनावों की जीत के दूरगामी महत्व हैं, तो तमिलनाडु में द्रविड़ विचारधारा के नाम पर लोकप्रियता हासिल की है. वैसे तो द्रविड़ राजनीति का दावा करने वाले दूसरे कई राजनैतिक दल हैं, लेकिन अपने छोटे से कार्यकाल में सामाजिक न्याय के साथ न्यायसंगत विकास का एक अलग मॉडल खड़ा कर दूसरे राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. लेकिन सबसे बड़ी कामयाबी तो नवीन पटनायक और ममता बनर्जी के नाम दर्ज हो रही है, जो अपने अपने राज्यों में लगभग अपराजेय छवि बना चुके हैं.
आमतौर पर राजनैतिक नरेटिव तो यही है कि निकाय चुनाव स्थानीय मुद्दों और व्यक्तियों के आधार पर जीते— हारे जाते हैं. लेकिन यही बात इन तीनों राज्यों के बारे में नहीं कही जा सकती है. सत्तारूढ़ दलों का निकाय चुनावों में परचम लहराना आम परिघटना है. लेकिन इन तीनों राज्यों के संदर्भ में केवल इतनी सी बात नहीं है. वामपंथी दल तब तक पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में सत्ता में रहे वे चुनाव जीतते रहे. केरल पहला राज्य है जिसने निकायों के माध्यम से ग्रासरूट डेमोक्रेसी के अनेक प्रयोग किए. इसमें पंचायत स्तर पर बजट बनाने और बजट आबंटन भी है. लेकिन यही बात देश के अन्य राज्यों में नहीं कही जा सकती. खास कर हिंदीभाषी राज्यों में पंचायती राज सामंती वर्चस्व की प्रवृति को पूरी तरह तोड़ने में कामयाब नहीं हुयी है. महिला आरक्षण के बावजूद देखा गया है कि किस तरह "मुखियापति" या "प्रधानपति" जैसे असंवैधानिक सत्ताकेंद्र उभर आए हैं.
नवीन पटनायक 21 वीं सदी के एक ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने सबसे पिछड़े माने जाने वाले राज्य में प्रगति और लोगों की जिंदगियों को बदलने की दिशा में ठोस कदम उठाया है. 2000 से वे लगातार मुख्यमंत्री हैं. बिजू जनता दल और भारतीय जनता पार्टी ने मिलजुल कर चुनाव लड़ा और कांग्रेस को सत्ता से अपदस्त कर दिया. लेकिन कुछ ही सालों के भीतर नवीन पटनायक ने भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन तोड़ दिया. इसके बाद उनकी राजनैतिक ताकत लगतार मजबूत होती गयी है.
नव उदारवादी अर्थनीति के दबाव और प्राकृतिक संसाधनों पर कॉरपारेट के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद पटनायक ने एक लोक कल्याकारी नीति को भी जमीन पर उतारा है. ओडिशा आर्थिक सूचकांकों में पिछले 20 सालों में अनेक राज्यों को पीछे छोड़ तेजी से आगे बढ़ा है. हालांकि नीति आयोग के गरीबी सूचकांक में वह नीचे से आठवें नबंर पर है.नवीन पटनायक और ममता बनर्जी में ऐसी क्या समानता है कि दोनों ही अपने राज्यों में विपक्षी दलों के लिए कोई बड़ी चुनौती नहीं हैं. ममता बनर्जी भी 2012 में सत्ता में आने के बाद से लगतार मजबूत हुई हैं.
दोनों राज्यों के निकाय चुनाव बता रहे हैं कि उनकी ताकत पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुई है. हालांकि एम.के. स्टालिन तो 2021 में ही पहली बार सत्तासीन हुए हैं लेकिन एक साल के भीतर ही द्रविड़ आंदोलन की विरासत पर जिस तरह जमीन पर उन्होने उतारा है, उससे उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन कर उभर रही है, जो केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के लिए भी प्रतिबद्ध है. तमिलनाडु की राजनीति में स्टालिन के फैसलों ने राजनैतिक और सामजिक बदलाव की नींव रख दी है.
पिछले साल भर में देश में सबसे ज्यादा विदेशी निवेश हासिल करने वाली स्टालिन की सरकार ने शिक्षा,स्वास्य,धार्मिक सांप्रदायिक सद्भाव, दलितों,महिलाओं,पिछड़ों और आदिवासियों की हिस्सेदारी तय करने के प्रयास चर्चा में हैं. यहां तक कि मंदिरों के पुरोहित संरचना को भी उन्होंने बदल दिया है. सबसे बड़ी बात यह है कि इससे राज्य की आंतरिक शांति और सद्भाव पहले से मजबूत ही हुए है. द्रविड़ दलों की राजनीति पूरी तरह बदलने लगी है.हिंदी बोलने वाले राज्यों में जहां स्थानीय निकाय चुनावों में निर्णायक तत्व जाति,धर्म और परंपरा ही होती है. वहीं इन राज्यों सहित केरल में भी ज़मीनी कवरेज, ढेर सारी कल्याण योजनाओं और नेताओं के व्यक्तिगत भागीदारी और समाजिक इंसाफ से जोड़कर देखा जा रहा है. देश के अन्य राज्यों की राजनीति के लिए यह एक सीखने वाला उदाहरण है.
नवीन पटनायक ने पिछले 22 सालों में कभी भी राष्ट्रीय राजनीति में दिलचस्पी प्रदर्शित नहीं की है. लेकिन ममता बनर्जी की दिलचस्पी सर्वविदित है. आने वाले दिनों में केंद्रीय राजनीति में एम. के स्टालिन की भूमिका भी महत्वूपर्ण होने जा रही है. आने वाले दिनों में यदि 2024 की केंद्रीय राजनीति में विपक्ष का साझा गठबंधन बनेगा तो उसमें इन तीनों मजबूत क्षेत्रीय नेताओं की बड़ी भूमिका होने की संभावना है. तीनों नेता केंद्रीय स्तर पर निकाय चुनावों के बाद और भी ताकतवर हो गए हैं. 102 लोकसभा सीटें इन राज्यों में हैं और क्षेत्रीय राजनीति के अनेक दलों पर इन तीनों मुख्यमंत्रियों का प्रभाव है.