नाम पहचान
आदमी की पहचान आखिर बनती किससे है। उसका व्यक्तित्व बनता किससे है। कहते हैं, नाम कमाओ। मगर नाम क्या वास्तव में व्यक्ति की पहचान है। या व्यक्ति अपने नाम, अपने पद से अलग भी कुछ होता है।
Written by जनसत्ता: आदमी की पहचान आखिर बनती किससे है। उसका व्यक्तित्व बनता किससे है। कहते हैं, नाम कमाओ। मगर नाम क्या वास्तव में व्यक्ति की पहचान है। या व्यक्ति अपने नाम, अपने पद से अलग भी कुछ होता है। अगर उसका नाम न रहे, उसका पद न रहे, तो क्या उसकी पहचान भी नहीं रहेगी। क्या इसीलिए लोग जीते-जी ऐसा कुछ करके अपनी पहचान कायम करने का प्रयास नहीं करते कि जिससे लोग उसे उसके न रहने पर भी याद रखें। पर सवाल यहां भी वही कि क्या इस दुनिया में अपनी पहचान, अपना नाम बना लेना भर ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है या इसके आगे भी कोई दुनिया है, जिसमें अपनी पहचान कायम करनी होती है। नाम और पहचान को लेकर इस तरह के विमर्श सदा से चलते आ रहे हैं।
एक बार एक प्रतापी राजा ने एक सिद्ध संत से पूछा, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं? संत समझ गए कि राजा अज्ञानी और अहंकारी है। उन्होंने कहा, हां मैंने ईश्वर के दर्शन किए हैं। तब राजा ने कहा, क्या आप मुझे भी ईश्वर के दर्शन करा सकते हैं? संत ने कहा, बिल्कुल करा सकता हूं। मगर क्या आप इसके लिए तैयार हैं? राजा ने कहा, बिल्कुल तैयार हूं। अभी करा दीजिए।
तब संत ने कहा, एक कागज पर अपना परिचय लिख दीजिए। राजा पहले तो झुंझलाया कि संत मेरा परिचय लिखवा रहा है। पर उसने लिख दिया- राजा, फलां राज्य का। संत ने वह कागज देखा, फिर कहा- अभी तो आप राजा हैं। कल को अगर राजा न रहे, तो फिर आपका परिचय क्या होगा।
राजा कुछ झेंपा, फिर कागज पर सिर्फ अपना नाम लिख दिया। संत ने फिर कहा, यह नाम तो किसी और का दिया हुआ है, जिसे आप अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आपकी अपनी पहचान क्या है? जब आप अपनी पहचान समझ जाएं, तो आइएगा, मैं ईश्वर से मिला दूंगा। राजा लज्जित था।