हालांकि, विधानसभा के मामलों में आदेश विधान सभा अध्यक्ष के कार्यालय से निर्गत होते हैं, मुख्यमंत्री कार्यालय से नहीं. फिर भी इसके राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब सरकार को ही करना होता है.
हेमंत सोरेन पहली बार मुख्यमंत्री बने हैं, हो सकता है, उनको इस फैसले का दूरगामी प्रभाव नहीं मालूम हो लेकिन सेकुलरिज्म की दुहाई देने वाली 140 वर्ष पुरानी काँग्रेस पार्टी को जरूर इसका निहितार्थ पता होगा. इतनी बड़ी पार्टी ऐसे मसले पर इतनी बड़ी चूक नहीं करती है.
कांsorenग्रेस को पता होगा कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इस तरह के फैसले को अदालतों में सही ठहराना कितना मुश्किल होगा. बीजेपी सदन के अंदर और बाहर इस फैसले का विरोध कर रही है लेकिन बीजेपी की तरफ से संकेत मिल रहे हैं कि वो इस फैसले को लेकर अदालत ज़रूर जाएंगे. वैसे स्पीकर को विधान सभा परिसर के अंदर बहुत सारे संवैधानिक अधिकार हासिल होते हैं, लेकिन सिर्फ एक धर्म के पक्ष में ऐसे आदेश निकालना उनकी मंशा पर भी सवाल खड़ा करता है.
जब विधान सभा अध्यक्ष के इस फैसले की बात हो रही है, मुझे एक दिल्ली की एक सोसाइटी की बात याद रही है, जहां हिन्दू बहुतायत में थे, लेकिन साथ में बाकी धर्मों के लोग भी रह रहे थे. जब सोसाइटी के चेयरमैन से महिलाओं ने छोटा सा मंदिर बनवाने का आग्रह किया तो उन्होने कहा कि मंदिर बनाने के साथ ही बाकी धर्मों के लोग भी पीछे पड़ जाएंगे. सबके लिए पूजा स्थान बनाना संभव नहीं होगा. ये एक मौलिक समझ है, जिसे सोसाइटी का मालिक तक समझ सकता है. फिर विधान सभा की तरफ से "चूक" कैसे हुई होगी, समझ से परे है.
भले ही विधान सभा के अंदर अलग से किसी मस्जिद की तामीर नहीं की गई है, लेकिन सवाल ये उठ रहा है कि आप दूसरे धर्मों के खिलाफ भेदभाव करने वाले ऑर्डर कैसे निकाल देते हैं? क्या झारखंड की 3 करोड़ की आबादी में मुसलमान के अलावा, हिन्दू, आदिवासी और ईसाई धर्म को मानने वाले लोग नहीं हैं? उनके लिए कौन सोचेगा?
विरोध किसी एक धर्म का नहीं है, 81 सदस्यों की संख्या वाले विधान सभा में जिन चार मुस्लिम विधायकों के लिए अलग से नमाज पढ़ने की व्यवस्था की गई है? वैसी व्यवस्था अन्य धर्म को मानने वाले लोगों के लिए क्यों नहीं की गई? क्या अन्य धर्मों के लोग दोयम दर्जे के नागरिक हैं? क्या संविधान उन्हें अपने धर्म को पालन करने का अधिकार नहीं देता?
संविधान में 42 वा संशोधन करने के बाद एक शब्द डाला गया सेकुलरिज्म. मकसद यही था कि सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखा जाएगा, जबकि भारत में रहने वाले 80 प्रतिशत निवासी हिन्दू या सनातन धर्म को मानते हैं. एसआर बोम्मई-बनाम-यूनियन ऑफ इंडिया मामले में नौ जजों के बेंच का फैसला था कि सेकुलरिज़्म भारतीय संविधान के मूल स्वरूप का हिस्सा है, इसके साथ आप छेड़छाड़ नहीं कर सकते. राज्य के सामने सभी धर्म समान हैं, आप किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकते. धार्मिक आजादी का हक सबको है, लेकिन क्या राज्य किसी खास धर्म के साथ भेदभाव करेगा? क्या संविधान इसकी इजाजत देता है?
विधान सभा स्पीकर अगर चाहते तो एक बड़ी मिसाल कायम कर सकते थे, वो चाहते तो पूजा के लिए सबके लिए एक साथ बड़ा सा कमरा खुलवा देते. इसमें किसी को कोई आपत्ति होती क्या? फिर तो शायद ये मुद्दा ही नहीं बनता, फिर विवाद ही खड़ा नहीं होता. कम से कम इससे झारखंड के सभी लोगों को विश्वास हो जाता कि सरकार संविधान से चल रही है और सबको एक नजर से देख रही है.