वह दुनिया की सबसे लम्बी अवधि तक जेल में रहने वाली राजनीतिक कैदी भी करार दी गईं। मगर उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को कभी नहीं छोड़ा और उन्हें इसी वजह से गांधी की पुत्री की संज्ञा भी दी गई। दिल्ली विश्वविद्यालय से 1964 में स्नातक की डिग्री लेने वाली सू-की को नोबेल शान्ति पुरस्कार भी प्रदान किया गया मगर अपने ही देश में उन पर सैनिक शासन ने बार-बार जुल्म ढहाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
इसके साथ यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि 1935 तक म्यांमार (बर्मा) भारत का ही हिस्सा था। इसी वर्ष अंग्रेजी शासन ने इस देश को भारत से अलग किया था और इसके लिए पृथक राज व्यवस्था अपनी निगरानी में कायम की थी। इस देश को अंग्रेजों से मुक्त कराने में सू-की के पिता आंग-सान की ही प्रमुख भूमिका थी और इस देश के राष्ट्रपिता का दर्जा प्राप्त था। सू-की उनकी सबसे छोटी बेटी ही हैं। म्यांमार में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है कि यहां के सैनिक जनरल चुने हुए लोगों के हाथ में सत्ता सौंपने से इन्कार कर रहे हैं और अपनी दमनकारी नीतियां चला रहे हैं, आम जनता की इच्छा को दबा रहे हैं।
1988 में जब सैनिक शासन के खिलाफ इस देश में जन-तूफान उठा था तो सू-की ने ही अपनी नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी पार्टी का गठन किया था और 1990 में सैनिक शासन द्वारा चुनाव कराना मजबूरी हो जाने पर इनमें भाग लिया था और 81 प्रतिशत सीटों पर विजय प्राप्त की थी। मगर फौज ने उन्हें सत्ता सौंपने से इन्कार कर दिया और उन्हें जेल में डाल दिया, तब 1991 में उन्हें अहिंसा के रास्ते से जनान्दोलन चलाने के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
2010 में पुनः देश में मिलिट्री शासन ने चुनाव कराये जिनका सू-की ने बहिष्कार किया क्योंकि फौज चुनावों में विजय के बावजूद चुने हुए प्रतिनिधियों को सत्ता सौंपने में आना-कानी कर जाती थी। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के चलते जब 2015 में पुनः चुनाव हुए तो सू-की की लीग फार डेमोक्रेसी पार्टी ने इसमें भाग लिया और 86 प्रतिशत स्थानों पर विजय प्राप्त की ।
तब तक सैनिक शासन ने संविधान में ऐसे संशोधन कर डाले थे कि चुनाव में विजयी नेता को पूरी सत्ता न मिले और फौज की शिखर भागीदारी कायम रहे। अतः सू-की प्रशासनिक परिषद की अधिशासी मुखिया बनी। तब से लेकर वह इस पद पर काम कर रही थीं मगर विगत नवम्बर चुनावों में उनकी पार्टी को पुनः जबर्दस्त जीत मिलने से सैनिक शासक इस तरह बौखला गये कि विगत 1 फरवरी को उन्हें जेल में नजरबन्द कर दिया गया और इसके विरोध में सड़कों पर उतरे लोगों पर सेना ने दमन करना शुरू कर दिया।
फौजी सरकार की इस नीति के खिलाफ म्यांमार के लोगों में इस कदर रोष उत्पन्न हो रहा है कि वहां की पुलिस के जवान फौजी शासन के आदेश मानने से इन्कार करने लगे हैं। उनसे अपने ही लोगों पर गोली चलाने के लिए इसलिए कहा जा रहा है कि वे अपनी जायज मांगों के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। अतः स्वतन्त्र भारत में पहली बार म्यांमार पुलिस के 19 जवानों ने मिजोरम सीमा में प्रवेश करके शरण मांगी है। ये पुलिस के जवान निहत्थे ही भारतीय क्षेत्र में आये हैं और कह रहे हैं कि वे अपनी ही फौजी सरकार के उन आदेशों का पालन करने में असमर्थ हैं जो उन्हें अपने ही लोगों की जान व माल का भक्षक बनाते हैं। हालांकि भारत में म्यांमार से रोहिंग्या व 'चिन' शरणार्थी पहले से ही आये हुए हैं मगर पुलिस शरणार्थी पहली बार आये हैं।
यह बहुत संजीदा कूटनीतिक मसला है जिसका हल भारत सरकार को ढूंढना होगा मगर इसके साथ पूरी अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी को यह भी तय करना होगा कि म्यांमार में जब पुलिस बल के जवान ही स्वयं को असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो आम नागरिकों की हालत कैसी होगी ? बेशक भारत राजनीतिक दर्शन या सिद्धान्तों के निर्यात के कारोबार में कभी नहीं रहा मगर वह मानवीय अधिकारों के लिए पूरी दुनिया में पुरजोर आवाज उठाता रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में यदि किसी भी स्थान पर नागरिकों के जायज अधिकारों को दमन करने की नीतियां अपनाई जाती हैं तो भारत ने हमेशा आवाज उठाई है। यहां तक कि जब 2000 के करीब पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक सरकार का तख्ता पलट करके जनरल मुशर्रफ ने सत्ता कब्जाई थी तो राज्य सभा में मौजूद समाजवादी नेता 'स्व. जनेश्वर मिश्र' ने मांग की थी कि भारत की सरकार को वहां लोकतन्त्र को बचाने के हक में आवाज उठानी चाहिए।