मानसून सत्र : जनता के सवालों पर बहस कब, सांसदों को दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा
कि मानसून सत्र प्रतिस्पर्धात्मक शोर में नहीं डूबेगा और सांसदों को मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने का समय मिलेगा।
रोमानियाई-फ्रांसीसी विचारक एवं नाटककार यूजीन इओनेस्को ने कहा था कि जवाब नहीं, बल्कि सवाल हमारे मन को आलोकित करता है। हालांकि ज्ञानोदय का वादा इस बात पर निर्भर करता है कि प्रश्न पूछे जाते हैं या नहीं। संसद का मानसून सत्र प्रारंभ हो चुका है। सैद्धांतिक रूप से संसद-सत्र के दौरान सांसद सरकार का ध्यान उन लोगों की चिंताओं की ओर दिलाते हैं, जो उन्हें अपना प्रतिनिधि चुनते हैं।
लेकिन व्यावहारिक तौर पर सांसदों का ध्यान ज्यादातर दलगत राजनीति पर रहता है और अपने मतदाताओं को परेशान करने वाली चिंताओं पर उनका ध्यान कम रहता है। करदाताओं के करोड़ों रुपये खर्च कर चलने वाली संसदीय प्रक्रिया तेजी से कटु बयानबाजी के अवसर में तब्दील हो गई है। क्या मौजूदा सत्र में सांसद जनता के सवालों पर कुछ समय खर्च करेंगे? जनता को परेशान करने वाले और उनके जीवन एवं जीविका को प्रभावित करने वाले मुद्दों की एक लंबी सूची है।
यहां उनमें से कुछ मुद्दों का जिक्र किया जा रहा है, जिन्हें सांसद शासन की स्थिति की वास्तविक तस्वीर जानने के लिए उठा सकते हैं। मानसून अपने साथ पूर्वानुमानित तस्वीरें लेकर आया है। असम से लेकर गुजरात और उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक, राज्य दर राज्य बाढ़ ने शहरों और कस्बों में तबाही मचाई है। उल्लेखनीय है कि इनमें से कई शहर स्मार्ट शहरों की सूची में है। पुणे 50 मिलीमीटर से ज्यादा बारिश नहीं झेल सका।
गौरतलब है कि अक्सर शासन की विफलताओं को जलवायु परिवर्तन के व्यापक बहाने के तहत दफन कर दिया जाता है और 'अभूतपूर्व' कहकर उसकी भीषणता बताई जाती है। स्मार्ट सिटी की कहानी अपने आप में व्यापक अध्ययन का विषय है। फिलहाल सांसद पूछ सकते हैं कि इस पर कितनी राशि खर्च की गई है और क्या इस कार्यक्रम में आपदा से निपटने के लिए कोई खाका या आवंटन है।
समय आ गया है कि सांसद सरकार को शहरों के अध्ययन का सुझाव दें, ताकि कस्बों, शहरों और राज्यों में पानी की कमी और अधिकता की संवेदनशीलता का मानचित्रण किया जा सके! महामारी ने जीवन, जीविका और बच्चों की शिक्षा को काफी नुकसान पहुंचाया है। 15 लाख से ज्यादा स्कूलों के 24.7 करोड़ छात्र इससे प्रभावित हुए, क्योंकि स्कूल 18 महीने से ज्यादा समय तक बंद रहे। एएसईआर (असर) की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, छह से 14 वर्ष के 4.6 फीसदी बच्चे स्कूलों से बाहर पाए गए।
यह सच है कि शिक्षा राज्य का विषय है, लेकिन बच्चों के स्कूल छोड़ने के निहितार्थ राष्ट्रीय हैं। आदर्श रूप में यूडीआईएसई (भारत में स्कूलों के बारे में एक डाटा बेस) के पास इसका उत्तर होना चाहिए, लेकिन आज के डिजिटल शासन के युग में इसकी नवीनतम रिपोर्ट वर्ष 2020–21 की ही है। सांसदों को घोषित कार्यक्रम के आंकड़े और आकलन के बारे में सवाल पूछना चाहिए। कितने बच्चे स्कूल से बाहर हैं? शिक्षकों के खाली पदों का स्तर क्या है?
ऑनलाइन पढ़ाई के लिए इंटरनेट एवं उपकरण तक पहुंच के बारे में क्या विचार है? सुधार के किसी भी मूल्यांकन के लिए आधार की जरूरत होती है। इन पंक्तियों के लेखक ने पहले भी इस कॉलम में बेरोजगारी और खाली पदों के विरोधाभास को उजागर किया था। मोदी सरकार ने हाल ही में सरकारी विभागों में 18 महीने में दस लाख पदों को भरने की घोषणा की है। यह स्वागत योग्य विचार है, लेकिन राज्यों में खाली पदों के बारे में क्या योजना है?
बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में स्वास्थ्य, शिक्षा और पुलिस विभागों में बड़ी संख्या में रिक्त पद हैं। केंद्र सरकार में खाली पदों की संख्या (8.5 लाख से ज्यादा) ज्ञात है, लेकिन राज्यों में खाली पदों की जानकारी नहीं है। सांसदों को राज्य स्तर पर खाली पदों की जानकारी मांगनी चाहिए और उन्हें भरने के लिए दबाव बनाना चाहिए। सांसद राज्य सरकारों को रियायत क्यों दे रहे हैं? एक के बाद एक सामने आने वाली घटनाओं ने राजनीतिक अर्थव्यवस्था की भ्रामक तस्वीरों को और बढ़ा दिया है।
भारत ने हमेशा रोजगार की एक सुसंगत तस्वीर पेश करने के लिए संघर्ष किया है, जबकि इसने 1950 के दशक में आंकड़ा संग्रह करने और उसके विश्लेषण का बीड़ा उठाया था। समय-समय पर किए जाने वाले श्रमबल सर्वेक्षण उत्तर से ज्यादा प्रश्न सामने रखते हैं। सरकारी खर्च से मानव-श्रम घंटों, निजी उद्यमों द्वारा भर्ती/छंटनी, ईपीएफओ नामांकन, ई-श्रम प्लेटफार्म पर पंजीकरण और मनरेगा के रिकॉर्ड पेरोल भुगतान पर आंकड़े हैं, पर सुगम संयोजन नहीं है।
निश्चित रूप से इन्हें फिल्टर करके एक पूर्ण नहीं, तो आंशिक तस्वीर प्राप्त की जा सकती है। रोजगार पर एक विश्वसनीय त्रैमासिक रिपोर्ट के लिए सांसदों को संसद और स्थायी समितियों में अभियान चलाना चाहिए। सूक्ष्म, लघु और मध्यम श्रेणी के उद्यम (एमएसएमई) अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं-जो न सिर्फ रोजगार पैदा करते हैं, बल्कि उत्पादन एवं निर्यात में भी बड़ी भूमिका निभाते हैं। हालांकि कर्ज पाने की उनकी क्षमता व्यवस्थागत पूर्वाग्रह के कारण सीमित है।
श्रम संबंधी स्थायी समिति की अगस्त, 2021 की रिपोर्ट बताती है कि दस में से आठ एमएसएमई के पास संस्थागत ऋण की कमी है। यह सच है कि महामारी के दौरान एमएसएमई को ऋणों के पुनर्गठन योजनाओं के जरिये समर्थन दिया गया था। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिनके पास बैंक ऋण तक पहुंच नहीं थी, वे बंद हो गए। सांसदों को एमएसएमई को दिए जाने वाले ऋण परिदृश्य पर एक श्वेत पत्र की मांग करनी चाहिए। शुरू में वे इस पर सरकार से जवाब मांग सकते हैं कि औपचारिक संस्थागत ऋण तक कितने पंजीकृत एमएसएमई की पहुंच है।
इसके बाद सभी क्षेत्रों में सूक्ष्म उद्यमों को शामिल कर इसे विस्तृत किया जा सकता है। ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर सांसद विचार कर सकते हैं, हालांकि बहुत से अन्य मुद्दे भी हैं। मसलन, नए शहर निर्माण की क्या स्थिति है, कितने राज्यों ने नई श्रम संहिता को अपनाया है, विभिन्न शहरों के बीच कितनी मेट्रो परियोजनाएं निर्धारित हैं, क्या बैंक किसानों को सोलर फार्म्स के लिए कर्ज दे रहे हैं? और भी कई मुद्दे हैं। संसद सत्र राष्ट्र की स्थिति पर बहस एवं विचार करने के लिए बुलाया जाता है। उम्मीद है, और यह केवल एक उम्मीद है, कि मानसून सत्र प्रतिस्पर्धात्मक शोर में नहीं डूबेगा और सांसदों को मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने का समय मिलेगा।
सोर्स: अमर उजाला