मोदी-योगी की डबल इंजन सरकार ने रचा उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सफलता का नया इतिहास

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सफलता पाई जबकि पंजाब में 'आप' ने प्रचंड बहुमत पाकर सबको चौंकाया

Update: 2022-03-10 15:48 GMT

डा. एके वर्मा।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में सफलता पाई जबकि पंजाब में 'आप' ने प्रचंड बहुमत पाकर सबको चौंकाया। पंजाब में कांग्र्रेस को अपनी अंतर्कलह का परिणाम भोगना पड़ा। भाजपा और अकाली दल के साथ न आने से उनका भी सफाया हो गया, लेकिन सबसे चौंकाने वाला परिणाम उत्तर प्रदेश में रहा। राजनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने प्रचंड बहुमत से दोबारा सत्ता प्राप्त कर इतिहास रचा। विगत 25 वर्षों में वह ऐसे पहले मुख्यमंत्री बने, जिसने लगातार दूसरी बार उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल की है। तमाम कयासों के बावजूद अखिलेश यादव सत्ता से वंचित रह गए। 400 सीटें प्राप्त करने का उनका दावा हवा-हवाई सिद्ध हुआ। सपा को 2017 के मुकाबले कहीं अधिक सीटें और लगभग सात प्रतिशत ज्यादा वोट मिलने की संभावना है।

उत्तर प्रदेश के जनादेश से स्पष्ट है कि हम परंपरागत चश्मे से राजनीति का विश्लेषण नहीं कर सकते। तीन मूल प्रवृत्तियों ने पूरा परिदृश्य बदल दिया। प्रदेश जाति से वर्ग और अस्मिता से आकांक्षा के साथ ही समावेशी राजनीति की ओर चल पड़ा है। मतदाता जाति, मजहब के दायरे को तोड़ अपनी आकांक्षाएं पूरी करने को कृतसंकल्प है। जब बदलते परिवेश ने पारिवारिक एवं सामाजिक निष्ठाएं तक तोड़ दी हैं, तो राजनीतिक निष्ठाएं स्थायी कैसे रह सकती हैं? लोगों की राजनीतिक निष्ठाएं तेजी से बदल रहीं हैं। यदि ऐसा न होता तो योगी सरकार को इतने वोट कहां से मिलते? भाजपा ने न केवल अपना 2017 का जनाधार सुरक्षित रखा, वरन उसमें वृद्धि भी की। 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' केवल जुमला नहीं, एक वास्तविकता है, जो जनादेश में व्यक्त हुआ। प्रश्न यह है कि भाजपा ने इसे हकीकत में बदला कैसे? इसमें मुख्यमंत्री योगी की अहम भूमिका है, जिन्होंने सुरक्षा और लोककल्याण जैसे शासन के मूल उद्देश्यों को प्रदेश में सामाजिक विकास का आधार बनाया। उन्होंने दृढ़ता से अपने राजनीतिक-प्रशासनिक दायित्वों को पूरा किया। कोविड महामारी में स्वयं ग्रस्त होने के बावजूद तत्परता से उसके प्रबंधन में डटे रहे और शहर-शहर जाकर उपचार प्रबंधन देखा, जबकि विपक्षी दलों ने ऐसी कोई पहल नहीं की। महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों की गंभीर समस्या का जिस ढंग से योगी ने निदान किया, उसने भी उन्हें लोकप्रिय बनाया। विगत दो वर्षों से प्रत्येक गरीब परिवार को दो बार मुफ्त राशन देकर उन्होंने गरीबों का आशीर्वाद बटोरा। अपनी दृढ़ राजनीतिक इच्छा के चलते उन्होंने मुस्लिमों का तुष्टीकरण किए बिना उनके साथ सभी योजनाओं में समानता का व्यवहार किया। पूर्ववर्ती सरकारें मुस्लिमों को भाजपा का भय दिखाकर और उनमें 'पीडि़त' होने का भाव भरकर उन्हें मुख्यधारा से काटने के साथ वोटबैंक के रूप में इस्तेमाल करती रहीं।
विगत पांच वर्षों में यूपी में न तो दंगे हुए और न किसी मुस्लिम को यह समझ आया कि योगी का वह कौन सा काम है, जिससे भेदभाव की बू आती हो। इसीलिए 2017 में नौ प्रतिशत के मुकाबले इस बार करीब 18 प्रतिशत मुस्लिमों ने भाजपा को वोट दिया। योगी की विजय में पसमांदा मुस्लिमों और मुस्लिम महिलाओं का भी योगदान है। पश्चिमी यूपी में जाट-मुस्लिम गठजोड़ विमर्श प्रचारित कर कहा गया कि सपा-रालोद गठबंधन से इनके बीच दूरियां घट जाएंगी। यह कुछ वैसा ही प्रयोग था, जो 2019 में दलित-पिछड़ों को मिलाने के लिए अखिलेश ने मायावती के साथ किया था। इस बार पश्चिमी यूपी में भाजपा को 2017 के 34.5 प्रतिशत के मुकाबले 71 प्रतिशत अर्थात 36 प्रतिशत अधिक जाट वोट मिले। चूंकि 2019 में भाजपा को 91 प्रतिशत जाट वोट मिले थे, इसलिए उसकी तुलना में 20 प्रतिशत की कमी जरूर आई।
सपा गठबंधन का वोट प्रतिशत 2012 के 29 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 35 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है। यह बढ़ोतरी 80 प्रतिशत मुस्लिम और 20 प्रतिशत जाटव समर्थन से मिली। अखिलेश का यह अनुमान सही था कि उन्हें करीब 35 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं, लेकिन सारा खेल बसपा ने बिगाड़ दिया, जिसका 40 प्रतिशत जाटव वोट भाजपा को चला गया। यह अखिलेश का तीसरा असफल प्रयोग था। इससे पहले 2017 में उन्होंने कांग्रेस, 2019 में बसपा और इस बार कई छोटे-छोटे दलों से गठबंधन किया था। हालांकि वह यह भूल गए कि जितने ज्यादा प्रत्याशी गठबंधन के होंगे, उतनी सीटों में वे न केवल उन्हें कमजोर करेंगे, वरन गठबंधन प्रत्याशियों को सपा का वोट हस्तांतरित न करा पाने के कारण उन्हें नुकसान भी पहुंचाएंगे। हार का ठीकरा 'ईवीएम' पर फोडऩा जनादेश का अपमान है, जो पार्टी को और क्षति पहुंचाएगा। सपा को यदि सफल होना है तो उसे अपना वैचारिक आधार, दलीय संगठन और सामूहिक नेतृत्व सशक्त करना होगा तथा अपनी परंपरागत 'मुस्लिम-तुष्टीकरण' और 'आपराधिक' छवि से बाहर निकलना होगा।
मायावती का परंपरागत मतदाता प्रतिबद्ध जरूर था, लेकिन अब दलित समझ गया है कि बहनजी उससे दूर चली गई हैं और 'कमल के फूल' से उन्हें सभी फायदे मिल रहे हैं। प्रदेश में सुरक्षित सीटों के लगभग सभी सांसद और विधायक भाजपा के हैं, जो दलितों में पार्टी की अच्छी पैठ बनाए हुए हैं। कांग्रेस ने प्रियंका के तमाम प्रयासों के बावजूद निराश किया। लगता है पार्टी विचारधारा, संगठन और नेतृत्व तीनों स्तरों पर दिशाहीन हो गई है और सफल राजनीति का पहला ककहरा 'जनता से जुड़ाव' भूल गई है। 'सोशल इंजीनियरिंग' कोई खरीफ या रबी की फसल नहीं, जो तीन-चार महीने में काट ली जाए, प्रभावी बनाने के लिए उसे 'राजनीतिक फसल चक्र' से स्थायी रूप से गूंथना पड़ेगा। एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए यह स्थिति शोचनीय है।
योगी को मिली जीत में प्रधानमंत्री मोदी का भी बड़ा हाथ है, क्योंकि करीब 11 प्रतिशत मतदाताओं ने केवल मोदी की वजह से भाजपा को वोट दिया। भले ही शांति-व्यवस्था, महिला सुरक्षा, मुफ्त-राशन और कोविड-प्रबंधन पर लोगों ने मुख्यमंत्री की सराहना की हो, मगर महंगाई, बेरोजगारी और छुट्टा पशु के मुद्दे गंभीर हैं, जिन पर त्वरित कार्रवाई जरूरी है। भाजपा विधायकों की अकर्मण्यता, निष्क्रियता और भ्रष्टाचार की भूख से भी जनता परेशान रही। यह योगी और मोदी की छवि के प्रतिकूल है। जनता सुरक्षा, शांति-व्यवस्था और विकास में व्यवधान नहीं चाहती थी, इसलिए उसने 25 वर्षों में पहली बार किसी सरकार को दोबारा मौका देकर इतिहास रचा है। वास्तव में डबल इंजन की सरकार का जो असर यूपी में दिखा, वही काफी कुछ गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में भी।
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