विधायक बनाम पत्नी
एक विधायक की पत्नी कितनी मासूम या कितनी खामोश है, इससे कहीं विपरीत ऐसी परिस्थितियां क्यों पैदा की जा रही हैं
दिव्याहिमाचल.
एक विधायक की पत्नी कितनी मासूम या कितनी खामोश है, इससे कहीं विपरीत ऐसी परिस्थितियां क्यों पैदा की जा रही हैं कि हर बार प्रेस कान्फं्रेस करके यह महिला अपने घरेलू विवाद को अदालत से बड़ा कर रही है। धर्मशाला के विधायक विशाल नैहरिया व उनके मंगल सूत्र से बंधी रही एचएएस अधिकारी ओशिन शर्मा के मामले को इतना गंभीर क्यों बनाया जा रहा है कि हर बार एक प्रेस कान्फ्रेंस का ड्रामा स्टेज हो जाता है। मामला व्यक्तिगत होते हुए भी राजनीतिक और सार्वजनिक मंच पर यह बहस कर रहा है कि जिस विधायक को जनताह्य ने चुना, उसके पारिवारिक जीवन को शैतान बनाने के घटनाक्रम में एक प्रशासनिक अधिकारी को बार-बार मंच क्यों बनाना पड़ रहा है। क्या हमारी अदालती व्यवस्था या कानून की शरण इतनी कमजोर है कि महिला अधिकारी, एक उपेक्षित औरत बन जाती है या इससे हटकर भी यहां कुछ अलग कहानी बनाई जा रही है। हिमाचल की अदालतों में पारिवारिक मामलों की कमी नहीं और न ही प्रताड़ना के मामले कम होंगे, लेकिन कोई भी पक्ष इस तरह मीडिया के लिए गाहे बगाहे कहानी पेश नहीं करता।
ओशिन शर्मा ने पुनः बिलासपुर में जो कुछ कहा है, उसका सीधा दोषारोपण केवल विधायक पर ही नहीं, बल्कि इस बार जयराम सरकार को भी कठघरे में खड़ा कर दिया गया है। वह हिमाचल की कानून-व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय प्रणाली और सामाजिक ताने बाने के छिन्न भिन्न होते संकेत गढ़ती हुई अदालती प्रणाली को भी प्रश्नांकित करती है। इस पूरे प्रकरण की वैल्यू केवल एक पक्ष की साफगोई से निहित नहीं हो सकती और न ही यह माना जा सकता है कि विधायक पर लगे सारे आक्षेप संतुलित व ईमानदार हंै। अगर एचएएस महिला बार-बार खुद को निर्दोष साबित करते हुए मासूम बना रही है तो इसका यह अर्थ कैसे मान लिया जाए कि दूसरा पक्ष उसके कथन से प्रताडि़त नहीं हो रहा। फिलहाल ओशिन शर्मा के कैरियर पर तो कोई आंच नहीं देखी जा रही, जबकि वह भी अपने पद की गरिमा को भूल कर अपने विरोध की आग में अपने पति ही नहीं, बल्कि एक विधायक के चरित्र को जनता की नजरों में गिरा रही है। अगर पारिवारिक विवादों के फैसले सार्वजनिक मंचों या प्रेस कान्फ्रेंस में होने लगेंगे, तो अदालती प्रक्रिया पर कौन भरोसा करेगा। अदालत में चल रहे एक पारिवारिक मामले की बुनियाद में जाहिर तौर पर औरत के अधिकार कहीं अच्छी तरह अभिव्यक्त व सुनिश्चित किए जा सकते हैं, लेकिन यहां तो एक अधिकारी जो अभी प्रोबेशन पर है, अपनी कचहरी जमा कर पूरी व्यवस्था पर दोषारोपण करते हुए निर्णय दे रही है।
क्या यह पद की गरिमा के अनुरूप या प्रशासनिक आचरण के खिलाफ नहीं। अगर कल ऐसे प्रशासनिक अधिकारी के निर्णयों पर जनता की अंगुलियां उठती हुईं, इसी तरह के बयानों से भर जाएं, तो क्या होगा। हम विधायक के निजी जीवन में किसी भी पक्ष का समर्थन नहीं करते हुए भी यह पूछना चाहते हैं कि न्यायालय में चल रहे मामले पर इस महिला अधिकारी की टिप्पणियों का क्या निष्कर्ष निकाला जाए। जाहिर तौर पर परिवार की जंग में वह सरकार को भी लपेट रही है, जो एक तरह से मामले को अदालत से बाहर निकाल कर बदरंग कर रहा है। प्रकरण को जिस मुकाम पर ओशिन शर्मा खींच रही हैं, उसका समर्थन करते हुए सत्ता के खिलाफ एक विरोधी पक्ष खड़ा हो सकता है, लेकिन परिवार की लड़ाई का राजनीतिक दोहन सही नहीं होगा। बिलासपुर में एचएएस अधिकारी का विलाप किसी साधारण औरत का नहीं है, वह बाकायदा हिमाचल प्रदेश की प्रशासनिक सेवा के चयन से निकली हुई एक ओजस्वी शख्सियत है। उनकी जिम्मेदारियों के फलक पर प्रदेश की प्रशासनिक सेवाओं का चित्रण भी हो रहा है। यहां कानून के पहलू में एक विधायक का चरित्र, राजनीतिक गठबंधन, विधायक बनाम एचएएस पत्नी का संयोग, दंपत्ति की महत्त्वाकांक्षा, व्यावसायिक-व्यावहारिक निपुणता, सार्वजनिक जीवन के संयम, अपने-अपने पदों के संतुलन और छवियों का द्वंद्व भी देखा जा रहा है। इस युद्ध में कौन ज्यादा बदनाम होगा या कर पाएगा, इससे भी अहम सवाल यह है कि हिमाचल जैसे समाज में जिस नारी सशक्तिकरण या कबायली प्रगति की हम गर्व के साथ बात करते हैं, वहां एक महिला एचएएस अधिकारी के चिंतन-मनन पर सबसे बड़ा प्रश्न चिन्ह यह हो सकता है कि उसे न्याय पद्धति पर भरोसा क्यों नहीं है। कम से कम इस सोच में कुछ न कुछ तो खोट है।