मासिक धर्म अभिशाप नहीं, सामान्य तथ्य

मासिक धर्म एक ऐसा विषय है जिस पर खुलकर चर्चा करना आज भी हमारे समाज में अच्छा नहीं समझा जाता

Update: 2022-05-27 19:12 GMT

मासिक धर्म एक ऐसा विषय है जिस पर खुलकर चर्चा करना आज भी हमारे समाज में अच्छा नहीं समझा जाता। विशेषकर अविकसित और विकासशील देशों के समाज में इस विषय के प्रति नासमझ और अवहेलना ने महिला के शरीर में आने वाले मासिक सामान्य तथ्य को एक गंभीर समस्या बना दिया है। इसी सोच को बदलने के लिए प्रतिवर्ष 28 मई को विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस मनाया जाता है। विश्व में औसतन महिलाओं के लिए मासिक धर्म चक्र 28 दिनों का होता है और मासिक धर्म की अवधि पांच दिनों तक रहती है। इसलिए साल के पांचवें महीने की 28 तारीख को यह दिन मनाया जाने लगा। हर वर्ष की तरह इस वर्ष इस दिवस का विषय 'मासिक धर्म को जीवन का एक सामान्य तथ्य बनाने के लिए 2030 तक एक वैश्विक आंदोलन का रूप देना' बनाया गया है। यह विषय एक सामान्य बात है, लेकिन इसकी भ्रांतियों ने इसे समस्या का रूप दे दिया है। हमें इस विषय के प्रति समाज का ध्यान वैज्ञानिक रूप से खींचने के लिए मुख्य चार बिंदुओं पर कार्य करना होगा, सही सूचना, समझ पैदा करना, क्षेत्र की सामाजिक व सांस्कृतिक भ्रातियों को वैज्ञानिक सोच के माध्यम से दूर करके साकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करना और इस विषय पर संवाद शुरू करना। सर्वप्रथम लड़कियों की माताओं और घर की बुजुर्ग महिलाओं को अपनी बेटियों को मासिक धर्म शुरू होने से पहले ही मानसिक तौर पर तैयार करना होगा ताकि शुरू होने पर वे अवैज्ञानिक भ्रांतियों के कारण तनाव, डर और झूठी खबर का शिकार न हो सकें, क्योंकि किसी भी विषय पर पहली बार मिलने वाली सूचना ही उस विषय पर समझ पैदा करती है। दुर्भाग्यवश परिवार में इस विषय पर संवाद न होने के कारण पहली बार लड़कियों के शरीर में होने वाली सामान्य जैविक प्रक्रिया समस्या बन जाती है। अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू हमारे देश के विभिन्न क्षेत्र में व्याप्त, इस विषय से संबंधित सामाजिक व सांस्कृतिक भ्रांतियां हैं जिसने समाज में वैज्ञानिक सोच को पैदा होने ही नहीं दिया। मासिक धर्म की अवस्था में महिलाओं को रसोईघर, धार्मिक स्थल और कई शुभ स्थलों में जाने की अनुमति नहीं दी जाती।

विशेषकर धर्म के नाम पर उस अवस्था में अशुभ माने जानी वाली महिलाओं को घरों में कई गुप्त नामों से पुकारा जाता है और अलग कमरे में रहने की व्यवस्था की जाती है। हालांकि समय के साथ-साथ पशुओं को बांधने वाली जगह के साथ लगे कमरे में न रहकर, वे घर में ही बने कमरे में रहती हैं। इन सभी व्यवस्थाओं की अतार्किक सोच के कारण महिलाओं व लड़कियों पर पड़ने वाले शारीरिक व मानसिक कुप्रभाव का कभी भी विश्लेषण नहीं किया जाता। क्योंकि इस सोच के कारण ही इस विषय के प्रति विशेषकर युवा लड़कियों में नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा होता है। इस दृष्टिकोण के कारण न तो उन दिनों वो स्कूल जाती हैं और न ही इस विषय के प्रति वैज्ञानिक व सही सूचना अपने अध्यापकों से लेने का प्रयास करती हैं। यह अलग बात है कि उस समय उनकी सूचना का मुख्य स्रोत उनकी माताएं होती हैं। लेकिन अन्य पहलू यह है कि उनकी माताओं का इस विषय के प्रति अनुभव, उनकी शिक्षा व उनका ज्ञान कितना तार्किक है, इसका अध्ययन करना भी बहुत जरूरी है।
इस विषय से संबंधित अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू मासिक धर्म स्वास्थ्य और स्वच्छता है। बेशक केन्द्रीय व राज्य सरकारों के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण विभाग द्वारा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत लड़कियों को सैनेटरी पैड उपलब्ध करवाने के लिए स्कूल व कालेजों में कई प्रयास किए जा रहे हैं और स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत भी इस विषय को विशेष रूप से जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन मुख्य बात यह है कि क्या यह विषय मासिक धर्म स्वच्छता के नाम पर सिर्फ सैनेटरी पैड उपलब्ध करवाने तक सीमित है? वर्तमान में सैनेटरी पैड के प्रयोग के बाद उसके अवैज्ञानिक तरीके से फैंकने के कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले नुकसान का आकलन न के बराबर है। इसके अलावा सैनेटरी पैड का प्रयोग कब, दिन में कितनी बार और किस प्रकार करना है, ऐसे कई प्रश्न हैं जिनका जवाब किसी भी मार्गदर्शिका में नहीं मिलता। यह विषय मात्र शारीरिक बदलाव से नहीं जुड़ा है, बल्कि मानसिक बदलाव से संबंधित चुनौतियों के प्रति ध्यान न देने के कारण यह समस्या का रूप लेता जा रहा है। हमें इस विषय पर परिवार व समाज में संवाद पैदा करना होगा क्योंकि संवाद न होने के कारण कई भ्रांतियों ने इस विषय को अवसाद में धकेल दिया है। सिर्फ सैनेटरी पैड उपलब्ध करवाना और उस पर विज्ञापन के माध्यम से चर्चा, इस विषय की महत्ता को उजागर नहीं कर सकती। इस विषय की महत्ता समाज द्वारा इस विषय पर महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने से होगी क्योंकि इस विषय की गंभीरता का सबसे बड़ा कारण महिलाओं की शर्म और सामाजिक व सांस्कृतिक रूढि़वादी मानसिकता है। पैडमेन फिल्म का डॉयलॉग है कि हम औरतों के लिए बीमारी से मरना शर्म के साथ जीने से बेहतर है। तो आइए, हम सब मिलकर इस विषय को जन आंदोलन का रूप दें।
निधि शर्मा
स्वतंत्र लेखिका

सोर्स- divyahimachal 


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