शर्म की मुलाकात ईमानदारी से: कहते हैं कि शर्म से डूब मरो, लेकिन आज तक किसी ने यह नहीं बताया कि कोई शर्म से कहां जाकर डूब मरे?
मैंने अक्सर लोगों को एक-दूसरे से यह कहते हुए तो सुन रखा था कि तुमको शर्म भी नहीं आती!
भूपेंद्र सिंह| मैंने अक्सर लोगों को एक-दूसरे से यह कहते हुए तो सुन रखा था कि तुमको शर्म भी नहीं आती! लेकिन एक दिन मुझे शर्म स्वयं सामने से आती हुई दिखलाई पड़ गई। वह शर्म जो कभी हट्टी-कट्टी हुआ करती थी, आज सींक-सलाई हो गई थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था। जब वह मेरे पास से गुजरी, तब मैंने उसे टोकते हुए पूछ ही लिया, 'कहां से आ रही हो और किधर जा रही हो?' वह झुंझलाती हुई बोली, 'यह मत पूछिए कि मैं कहां से आ रही हूं, मगर यह जरूर बता सकती हूं कि मैं कहां जा रही हूं?' मैंने कहा, 'चलो, यही बता दो।' शर्म अपने दोनों पैरों को पटकती हुई बोली, 'मैं डूबकर मरने जा रही हूं।'
शर्म से डूब मरो, लेकिन कहां
मुझे यह बात तो पहले से ही पता थी कि लोग जब किसी बात पर क्रोधित होते हैं, तब सामने वाले से कहते हैं कि शर्म से डूब मरो। यह दीगर बात है कि आज तक किसी ने यह नहीं बताया कि कोई शर्म से कहां जाकर डूब मरे? इसी नाते लोग इस बात को निर्लज्जतापूर्वक एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया करते हैं। इस डूब मरने वाली बात का मुहावरे के तौर पर चलन भी एक आम बात है। वैसे भी डूबने के लिए तालाब, पोखर, कुएं, बावड़ियां वगैरह बची ही कहां हैं? भूजल दोहन के इस क्रूर समय में मनुष्य और जल, दोनों का स्तर रसातल में पहुंच चुका है। आदमी का खुद का पानी इतना मर चुका है कि वह पानी के मरने तक की परवाह नहीं करता। इसके चलते शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरने की कहावत भी अब बेमानी हो चुकी है।
'काबा किस मुंह से जाओगे गालिब, शर्म तुमको मगर नहीं आती'
शर्म के डूबकर मरने के लिए जाते हुए देखना अपने आप में एक विरल घटना थी, जो आज साक्षात मेरी आंखों के सामने घटित हो रही थी। मुझे विश्वास तो नहीं हो रहा था, लेकिन उस पर भरोसा करने के सिवा और कोई चारा भी तो नहीं था। यदि इस विश्वास को हम अपनी जिंदगी से निकाल दें तो हमारा जीना मुहाल हो जाएगा। इसी विश्वास के चलते जब हम बीमार होते हैं, तब उपचार करने वाले चिकित्सक को धरती के भगवान के रूप में पाते हैं। यह अलग बात है कि इसमें भी अपवाद हुआ करते हैं। हरेक क्षेत्र में मजबूरी का फायदा उठाने वाले निर्लज्ज व्यक्ति अपनी धन पिपासा के चलते कुछ बेशर्मी वाले काम करते ही हैं। ऐसे ही लोगों के लिए चचा गालिब लिख गए हैं, 'काबा किस मुंह से जाओगे गालिब, शर्म तुमको मगर नहीं आती।'
'कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना'
उधर शर्म मेरे सामने खड़ी थी और इधर मैं विश्वास पर चिंतन करने लग पड़ा था। खैर, शर्म ने मुझे झकझोरते हुए मेरी तंद्रा को भंग किया और कहने लगी, 'मैंने तो अब यह अंतिम निर्णय ले लिया है कि डूब मरूंगी। आज के समय में लोग मुझसे अधिक बेशर्मी से वास्ता रखने लग गए हैं। एक दौर वह भी हुआ करता था, जब मनुष्य अपने चरित्र और नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए मेरी आड़ लिया करता था। वह समाज से डरता था और कोई भी निर्लज्ज कृत्य करने से पहले सौ बार सोचता था कि लोग क्या कहेंगे? आज इंसान की बेशर्मी का आलम यह हो गया है कि वह खुलेआम गाता हुआ घूम रहा है-कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।'
जब तक धरती पर ईमानदारी बनी रहेगी, तब तक शर्म भी बची रहेगी
मैंने कहा, 'इतना निराश होने की भी जरूरत नहीं है। शर्म, लाज, हया तो मनुष्य के आभूषण हुआ करते हैं। सोचो भला, जब तुम ही न रहोगी, तो मानवता दरिद्रता के फूलों की माला पहने हुए कितनी विद्रूप दिखाई पड़ेगी?' शर्म खिसियानी हंसी हंसते हुई बोली, 'यही बात तुम राजनीति, मजहब और उद्योग-व्यापार में लिप्त उन लोगों को जाकर क्यों नहीं समझाते हो, जिन्होंने अपनी शर्म बेच खाई है। आज सभी क्षेत्र धंधे में बदल चुके हैं। पैसा ही भगवान हो गया है। इससे पहले कि मैं जितनी भी बची हुई हूं, लोग उसे भी बेच दें, मेरा मर जाना ही बेहतर होगा।'
मैं शर्म का हाथ पकड़कर उसे वहां ले गया, जहां उसकी बड़ी बहन ईमानदारी की कुटिया थी। हालांकि ईमानदारी की सेहत भी ठीक नहीं दिख रही थी। फिर भी उसने लपककर शर्म को अपने गले से लगा लिया। दोनों सगी बहनें एक दूसरे से लिपटकर देर तक रोती रहीं। मैं यह सोचकर आश्वस्त हुआ और वापस लौट आया कि जब तक इस धरती पर ईमानदारी बनी रहेगी, तब तक शर्म भी बची रहेगी।