मेरठ : स्वेच्छा से अंदमान गए थे विष्णु शरण दुबलिश

पिछले दिनों बरेली केंद्रीय जेल में दुबलिश जी की स्मृति में हमने एक द्वार का नामकरण और शिलालेख लगवाया जहां वह कैद रहे थे।

Update: 2021-12-10 02:23 GMT

मेरठ की गलियों से गुजरता हुआ मैं उस मुख्य सड़क पर आ गया हूं, जहां वैश्य अनाथालय की पुरानी विशाल इमारत है। नौ अगस्त, 1925 के 'काकोरी कांड' के बाद क्रांतिकारी दल के नेता रामप्रसाद बिस्मिल ने केंद्रीय समिति के सदस्यों की एक गुप्त बैठक मेरठ के इसी अनाथालय भवन में बुलाई थी। 'रुद्र' नाम से भेजे गए एक सांकेतिक पत्र में उन्होंने साथियों को लिखा था कि हमारे पितामह का श्राद्ध संस्कार इस महीने (सितंबर) की तेरहवीं तारीख (रविवार) को होगा, जिसमें उनकी उपस्थिति अनिवार्य है।

उन्होंने यह भी सूचित किया था कि नियत समय पर पहुंचने के लिए इस महीने की बारहवीं तारीख को दिल्ली के लिए प्रस्थान करें। वहां से आपको बड़ी आसानी से गाड़ी मिल जाएगी। आप मुझे अनाथालय में मिल सकेंगे। उन दिनों विष्णु शरण दुबलिश इस संस्था के अधीक्षक थे, जिन्हें काकोरी केस में पकड़े जाने के बाद सात वर्ष की सजा मिली। दरअसल, मेरठ में साथियों को बुलाए जाने से जुड़ा पत्र मुखबिरी के चलते पकड़ में आ गया, जिससे दल की बहुत हानि हुई।
मुकदमे में फैसला सुनाए जाने के बाद दुबलिश जी और मन्मथनाथ गुप्त को लखनऊ से नैनी केंद्रीय कारागार भेज दिया गया, जहां जेल अधीक्षक कर्नल पामर ने इनके पहुंचते ही कहा, 'ईंट की दीवार के ऊपर लात चलाने से दीवार का कुछ न बिगड़ेगा, पैर को ही चोट लगेगी। जेल एक बहुत अच्छी पद्धति है। यह बहुत बारीक-बहुत ही बारीक पीसती है।' यह सुनकर दुबलिश जी तपाक-से बोले, 'जेल बहुत अच्छी चक्की है, किंतु हम भी लोहे के चने हैं।'
पामर इस पर खिन्न हो गया और उसने मन्मथनाथ के साथ दुबलिश को 14 दिन की 'कोठरी' की सजा सुना दी। फिर तो भीतरी संघर्ष और भी मुखर हो गया। उन पर निगरानी के साथ ही 'साइकिल' (चक्कर) से हटाकर वे 'सांसत' (खतरनाक बंदी रखने का स्थान) में भेज दिए गए, जहां एकदम भीतरी हिस्से में भेजकर उन्हें 'दुबाड़ा कैदी' करार दिया गया। चीफ कोर्ट ने सरकार की अपील पर दुबलिश जी की सजा दस वर्ष कर दी। जेलर लेडली, दुबलिश जी से बहुत घबराता था।
फिर वहां विलियमसन आया, जो यह देखकर हैरान था कि वहां दुबाड़ों में दुबलिश जी की बहुत इज्जत है। इसी समय वहां बंदियों ने बगावत कर दी, जिसे दबाने के लिए विलियमसन गारद के एक सिपाही से रायफल छीनकर दुबलिश जी को मारने दौड़ा। वह हर किसी से पूछ रहा था, 'दुबलिश कहां है?' इसी समय दुबलिश जी के एकाएक बैरक से निकलकर सामने आ खड़े होते ही घबराहट में उसके हाथ से रायफल नीचे गिर गई। इसके बाद दुबलिश जी को पकड़ लिया गया। दंगाई कैदी पीटे गए। उन पर मुकदमा चला।
दुबलिश जी इस मुकदमे में फंसे हैं, यह जानकर पंडित जवाहरलाल नेहरू जेल में वकील आनंदी प्रसाद दुबे के साथ उनसे मिलने पहुंचे। नेहरू ने जहां तक हो सका, सफाई पक्ष की मदद की। इस्तगासे के वकील इस नतीजे पर पहुंचे कि दुबलिश जी निर्दोष हैं, पर वह आनंदी प्रसाद को अपना वकील न रखें। इस पर दुबलिश जी ने उत्तर दिया कि छूटना ही उनके जीवन का ध्येय नहीं है। कुछ सिद्धांत ऐसे हैं, जिन्हें वह कभी छोड़ नहीं सकते। इसके बाद उनके खिलाफ गवाहियां गुजरीं और उन्हें आजीवन कारावास की सजा दे दी गई।
बाद में अपील में यह अवधि 15 वर्ष कर दी गई, पर उन्होंने स्वेच्छा से अंदमान जाना तय किया। 1937 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बनने पर क्रांतिकारियों की रिहाई हो गई, लेकिन उन्हें छूटने में देर लगी। बाहर आकर वह कांग्रेस के काम में जुट गए। उन्होंने भीतर रहे साथियों को छुड़ाने की सघन कोशिशें कीं और 1940 व 1942 में फिर जेल गए। 1921 में भी जब मवाना तहसील सत्याग्रह का केंद्र बनी, तब गोरे सिपाहियों के हमले में दुबलिश जी पर लाठियां पड़ीं और उन्हें सवा साल जेल में रखा गया।
देश के आजाद होने पर वह विधानसभा और लोकसभा के सदस्य बने। दुबलिश जी का जन्म मेरठ के मवाना कस्बे में हुआ था, जहां आज भी उनका घर-परिवार है। यहां रखी उनकी एक प्रतिमा वर्षों से जमीन के एक टुकड़े के लिए प्रतीक्षारत है। मेरठ शहर में बना 'विष्णु शरण दुबलिश मार्ग' किसी तरह उनकी क्रांतिकारी कीर्ति के अनुरूप नहीं है। यहीं दुबलिश जी के परिवारीजन के मध्य 'हरि सदन' में बैठा मैं दुबलिश जी के 1984 के दिनों को याद करता हूं, जब वह बहुत अस्वस्थ थे।
उस समय लोकसभा में उनकी बीमारी पर चिंता व्यक्त करने पर उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से स्वीकृत चिकित्सा राशि लेने से उन्होंने इन्कार कर दिया था। वह चाहते थे कि यदि सरकार सचमुच उनके जीवन की रक्षा करना चाहती है, तो मेरठ मेडिकल कॉलेज को निर्देश दे कि वहां के डॉक्टर समुचित इलाज की व्यवस्था करें। वह काकोरी बंदियों में अकेले क्रांतिकारी थे, जिन्हें उनकी इच्छानुसार अंदमान भेजा गया।
चौधरी चरणसिंह उनका बहुत सम्मान करते थे। 17 नवंबर 1986 को उनके निधन के साथ ही क्रांतिकारी संग्राम के काकोरी-युग की स्मृतियां भी विलीन हो गईं। उनकी सक्रियता के चलते ही सत्तावनी क्रांति के बाद पुनः मेरठ शहर मुक्ति-युद्ध के इतिहास में अपनी सघन उपस्थिति दर्ज करा सका। पिछले दिनों बरेली केंद्रीय जेल में दुबलिश जी की स्मृति में हमने एक द्वार का नामकरण और शिलालेख लगवाया जहां वह कैद रहे थे।


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