राज्यसभा चुनावों का चक्रव्यूह
भारत ने स्वतन्त्रता के बाद जिस द्विसदनीय संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनाया उसमें लोकसभा और राज्यसभा की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का इस वजह से अनुसरण किया जिससे भारत के विविध समाज के हर वर्ग का संसद में प्रतिनिधित्व ‘लोक से लेकर संभ्रान्त’ जन तक हो सके।
आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत ने स्वतन्त्रता के बाद जिस द्विसदनीय संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली को अपनाया उसमें लोकसभा (प्रत्यक्ष चुनाव) और राज्यसभा (परोक्ष चुनाव) की ब्रिटिश संसदीय प्रणाली का इस वजह से अनुसरण किया जिससे भारत के विविध समाज के हर वर्ग का संसद में प्रतिनिधित्व 'लोक से लेकर संभ्रान्त' जन तक हो सके। हालांकि इसे लोक और संभ्रान्त में बांटने पर कुछ राजनीतिक विज्ञानी खफा हो सकते हैं मगर ब्रिटिश सरकार द्वारा 1919 से छोड़ी गई राज्य विधान परिषदों व केन्द्रीय परिषद की विरासत का इससे बेहतर भारतीय कर कुछ और हो ही नहीं सकता था जिससे नव स्वतन्त्र भारत में लोकतन्त्र की लहर को ऊपर से लेकर नीचे तक संवेग के साथ बहाया जा सके। स्थूल रूप में हम इसे भारत द्वारा अपनायी गई राजनीतिक प्रणाली के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार देख सकते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर भारत की बहुराजनीतिक प्रणाली के तहत उन सभी दलों को प्रतिनिधित्व मिल सके जिन्हें जनता का राज्यवार समर्थन हासिल होता हो। इसके साथ ही प्रत्यक्ष सदन लोकसभा के हर पांच साल बाद होने वाले चुनावों में किसी भी राजनीतिक दल द्वारा खड़े किये एजेंडे के भावावेश में आकर मिली उसे समर्थन की शक्ति को विभिन्न राज्यों में विभिन्न राजनीतिक दलों को मिले जनसमर्थन की शक्ति से सन्तुलन कायम किया जा सके क्योंकि राज्यसभा के सदस्यों का चयन केवल विधानसभा में चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा ही किये जाने का नियम बनाया गया था। राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव करने की जिम्मेदारी विधायकों पर छोड़ने का मन्तव्य यह भी था कि राष्ट्र के विकास के मार्ग में वे उन विशेषज्ञता प्राप्त लोगों की सेवाएं ले सकें जिनकी सामाजिक साख सन्देहों से परे होने के साथ क्षुद्र राजनीतिक हितों से भी ऊपर हो । मगर इन सबसे ऊपर लक्ष्य यह था कि लोकसभा चुनावों में विशिष्ट समय की उठी जनभावनाओं के कारण जनसमर्थन मिलने पर सरकार बनाने वाले राजनीतिक दल के उन कार्योंं पर लगाम कसी रह सके जो अखिल भारतीय स्तर पर भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक विरासत व भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्यों में स्वीकार्य होते न देखे जा सकें। इसी वजह से लोकसभा द्वारा पारित किसी भी कानून को राज्यसभा से भी अनुमोदित कराना जरूरी बनाया गया केवल वित्तीय मामलों (मनी बिल) को छोड़ कर जैसे बजट आदि। लोकसभा अध्यक्ष को ही इस बारे में अंतिम अधिकार भी दिया गया कि वह सरकार के किसी भी विधेयक के चरित्र की व्याख्या मनी बिल या अन्य बिल ( विधेयक) के रूप में कर सकें। हालांकि इसका सम्बन्ध राष्ट्रपति चुनाव से भी जाकर जुड़ता है मगर इसका विवरण प्रस्तुत करना कुछ पंक्तियों में संभव नहीं है। मोटे तौर पर साधारण संदर्भों में यही कहा जा सकता है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे संसद के 'दिमाग' के रूप में स्वीकार किया जिसकी वजह से इस सदन में आजादी के बाद से एक से बढ़ कर एक महान विभूतियां आईं। इनमें आचार्य नरेन्द्र देव से लेकर एस.एम. द्विवेदी व श्री प्रणव मुखर्जी व नानाजी देशमुख के नाम लिये जाने जरूरी हैं। परन्तु आजादी के 75वें साल में राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव हो रहे हैं और कुल 57 सांसदों का चुनाव होना है जिनमें से 41 अभी तक निर्विरोध चुन भी लिये गये हैं। इन 41 सांसदों में हमें केवल दो-तीन नाम ही एेसे मिलते हैं जिनकी प्रतिष्ठा राष्ट्रीय स्तर पर सर्वमान्य हो। इनमें से श्री पी. चिदम्बरम व कपिल सिब्बल को छोड़ कर शेष सभी सीमित अर्थों में योग्य कहे जा सकते हैं। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या भारत में प्रतिभा की कमी है? विश्व में भारत की प्रतिभा का डंका बजते देख हम यह नहीं कर सकते। इसका मतलब यही निकलता है कि राजनीतिक दलों में प्रतिभा खोजने की इच्छा नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो लोग चुने गये हैं वे इसके पात्र नहीं है। उनकी पात्रता अन्ततः राजनीतिक दलों को ही सिद्ध करनी होती है और पिछले 15 साल में राज्यसभा चुनावों के नियमों में जो परिवर्तन किया गया है उसके अरूप उनकी पात्रता बनती है। यह देखना राजनीतिक दलों का काम ही है कौन सा व्यक्ति उनके लिए राज्यसभा में अधिक उपयोगी साबित हो सकता है अतः जो भी नेता इस उच्च सदन में जा रहे हैं वे देश काल परिस्थिति के अनुसार अपनी भूमिका निभायेंगे। इनमें हम अधिसंख्य राजनीतिज्ञों को ही देखते हैं।संपादकीय :कश्मीरियों को आगे आना होगा...कश्मीर : जय महाकाल बोलो रेबाबा के बुल्डोजर का कमालसंघ प्रमुख का 'ज्ञान- सन्देश'याद आएंगे ये पल...हिन्दुओं का 'काबा' काशी ज्ञानवापी मनमोहन सरकार के दौरान राज्यसभा चुनाव के जो नियम बदले गये उससे इस सदन के मूल चरित्र पर भी प्रभाव पड़ा जिसकी वजह से हम देख रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की लुटिया डुबाने वाले मान्यवर प्रमोद तिवारी को राजस्थान से प्रत्याशी बनाया गया है। यह मात्र एक नमूना है। जो भी लोग राज्यसभा में पहुंच रहे हैं उन सभी को बधाई। लेकिन दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश व केरल में विधानसभा के उपचुनाव दो सीटों पर भी हुए हैं। सबसे रोचक मामला उत्तराखंड का है जिसे उपचुनावों में मुख्यमन्त्री हराने वाला प्रदेश भी माना जाता है मगर इस राज्य की चम्पावत सीट पर भाजपा के मुख्यमन्त्री पुष्कर सिंह धामी ने ऐसी तूफानी विजय प्राप्त की कि पिछले सारे रिकार्ड तोड़ डाले। धामी को 58 हजार से अधिक वोट मिले और विरोधी कांग्रेस प्रत्याशी निर्मला घटोरी को केवल तीन से कुछ अधिक मत। दूसरी तरफ केरल में अर्नाकुलम् जिले की सीट पर कांग्रेस की श्रीमती उमा थामस ने मार्क्सवादी पार्टी के नेता जो जोसेफ को 22 हजार से अधिक मतों से पराजित किया। इस सीट पर अभी तक सबसे अधिक मतों से जीतने का यह रिकार्ड है। हम राज्यसभा चुनावों की विधानसभा उपचुनावों से तुलना नहीं कर सकते हैं मगर भारत की विविधता को जरूर महसूस कर सकते हैं।