Mangrove: झींगे की खेती से मैंग्रोव को खतरा, औद्योगीकरण और खनन से पहले ही झेल रहा चुनौती
चूंकि अधिकांश स्थानीय लोग महज मजदूर हैं और इसमें रसूखदार लोगों का धन लगा है, इसलिए वह योजना जमीन पर नहीं दिखी।
ओडिशा के केंद्रपाड़ा जिले में भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है, जो 'रामसर स्थल' के रूप में संरक्षित है। भितरकनिका ओड़िया के दो शब्दों से मिलकर बना है- 'भितर' अर्थात आंतरिक और 'कनिका' अर्थात जो असाधारण रूप से सुंदर है। अभयारण्य में 55 प्रकार के मैंग्रोव हैं, जहां मध्य एशिया और यूरोप से आने वाले प्रवासी पक्षी अपना डेरा जमाते हैं।
यह ओडिशा का बेहतरीन जैव विविधता वाला दुर्लभ स्थान है। समुद्र से सटे इसके तट पर अजूबे कहे जाने वाले ओलिव रिडले कछुए अंडे देते हैं, तो खारे पानी वाले विलक्षण मगरमच्छों को भी देखा जा सकता है। यहां मिले 23 फुट लंबे मगरमच्छ का नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। कहा जाता है कि देश के खारे पानी के मगरमच्छों की सत्तर फीसदी आबादी यहीं रहती है, जिनका संरक्षण 1975 में शुरू किया गया था। यूनेस्को द्वारा संरक्षित इस मैंग्रोव को बढ़ते औद्योगीकरण और खनन से पहले से ही खतरा रहा है और अब झींगे की खेती ने इसके सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है।
उड़ीसा हाईकोर्ट ने 27 जुलाई, 2021 को राज्य सरकार को आदेश दिया था कि भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान और उसके आसपास से झींगे की खेती के सभी घेरों को तत्काल समाप्त किया जाए। नतीजतन राज्य सरकार ने इन्हें हटाने का आदेश तो दे दिया है, लेकिन दूसरी तरफ वह इस क्षेत्र में झींगा खेती को भी बढ़ावा दे रही है।
झींगा पालन ओडिशा में खनन के बाद दूसरी सबसे बड़ी विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली गतिविधि है। कहा जाता है कि इसे पर्दे के पीछे से शक्तिशाली राजनेता, नौकरशाह और व्यवसायी संचालित करते हैं। एक तो इस काम में बहुत अधिक मुनाफा है, दूसरा, समुद्र तट होने के कारण खारे पानी की उपलब्धता के चलते झींगे का उत्पादन सरल है। तीसरा, लगभग दस हजार लोग इस कार्य से अपना जीवकोपार्जन चला रहे हैं। इसलिए सरकार इस पर कोई कड़ी कार्रवाई नहीं करना चाहती। अनुमान है कि भितरकनिका मैंग्रोव के आसपास कोई 17 हजार 780 हेक्टेयर में झींगे के घेरे बने हुए हैं।
जलवायु परिवर्तन के चलते साल-दर-साल बढ़ रहे चक्रवाती खतरे के कारण यहां मैंग्रोव या वर्षा वन का बेहद महत्व है। मैंग्रोव वन धरती तथा समुद्र के बीच एक उभय प्रतिरोधी (बफर) की तरह कार्य करते हैं तथा समुद्री आपदाओं से तटों की रक्षा करते हैं। ये तटीय क्षेत्रों में तलछट के कारण होने वाले जान-माल के नुकसान को रोकते हैं। तटीक इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों को जीवन-यापन का साधन इन वनों से प्राप्त होता है। ऐसे में महज कुछ धन के लिए झींगा उत्पादन कर मैंग्रोव को नुकसान पहुंचाने का अर्थ है आपदा को आमंत्रण देना। दुनिया में जहां भी वर्षा वनों में झींगे के घेरे बनाए गए, वहां कीटनाशक, एंटीबायोटिक्स और कचरों के ढेर ने वर्षा वनों को लीलना शुरू कर दिया। इंडोनेशिया में तो कई जगह भारी पर्यावरणीय संकट का सामना करना पड़ा। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, झींगे की खेती के कारण 1980 के बाद से दुनिया भर में मैंग्रोव का लगभग पांचवां हिस्सा नष्ट हो गया। धरती के बढ़ते तापमान को नियंत्रित करने में इन वनों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
इतने गंभीर पर्यावरणीय संकट और भितरकनिका के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे झींगा उत्पादन पर जिला प्रशासन ने ढेर सारे स्वयं सहायता समूह, सहकारी समितियां बना दी हैं और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है। जिला प्रशासन का दावा है कि कोर्ट ने तो गैरकानूनी घेरों को हटाने के लिए कहा है, जिन्हें हटा दिया गया है। जबकि हाईकोर्ट के एमिकस क्युरी ने अदालत को बताया है कि जिला प्रशासन ने ईमानदारी से हवाई सर्वे नहीं किया है। सितंबर, 2021 में जर्मनी के पर्यावरण मंत्रालय की एजेंसी इंटरनेशनल क्लाइमेट इनिशिएटिव के राजदूत भितरकनिका आए थे, जिन्होंने वैकल्पिक रोजगार के लिए एक बड़ी योजना की घोषणा की थी। चूंकि अधिकांश स्थानीय लोग महज मजदूर हैं और इसमें रसूखदार लोगों का धन लगा है, इसलिए वह योजना जमीन पर नहीं दिखी।
सोर्स: अमर उजाला