दरअसल आईआईटी मैथमेटिकल मॉडल के हिसाब से देश में कोरोनावायरस की तीसरी लहर (Corona Third Wave) अक्टूबर से नवंबर के बीच आ सकती है. वहीं कुछ जानकार मानते हैं कि इस लहर में बच्चों को सबसे ज्यादा खतरा होने वाला है. देश के बड़े शहरों में तो कुछ अच्छे अस्पताल हैं, जहां बच्चों की देखभाल हो सकती है. लेकिन छोटे शहरों में मेडिकल सुविधाओं के बुनियादी ढांचे की बेहद कमी है. अगर तीसरी लहर दूसरी लहर की तरह भयावह रही और बच्चों पर कहर बनकर टूटी तो छोटे शहरों में बड़ा नुकसान हो जाएगा. निर्मला सीतारमण ने कहा की गारंटी योजना में नई परियोजनाओं का 75 फ़ीसदी भाग कवरेज होगा और 50 फ़ीसदी उन परियोजनाओं का होगा जो अपने आप को एक्सपेंड करना चाहती हैं. इस योजना के तहत 3 साल तक के लिए लगभग 100 करोड़ रुपए दिए जाएंगे. जिस पर 7.95 फ़ीसदी ब्याज लगेगा. लेकिन सवाल उठता है कि क्या केवल कर्ज की गारंटी से ही छोटे शहरों की मेडिकल व्यवस्था का भला हो पाएगा.
छोटे शहरों में मेडिकल व्यवस्था का क्या हाल है
देश की 64 फ़ीसदी आबादी रूरल इंडिया में रहती है. लेकिन उनकी देखभाल के लिए 30 फ़ीसदी हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर भी नहीं है. सरकारी गाइडलाइन के मुताबिक हर 5000 जनसंख्या पर एक सब सेंटर और हर 30,000 जनसंख्या पर एक प्राइमरी हेल्थ सेंटर का होना जरूरी है. वही जहां जनसंख्या 1.2 लाख हो वहां एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर का होना जरूरी है. लेकिन क्या यह पैमाने जमीनी स्तर पर मौजूद हैं? इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक 12 मार्च 2021 को लोकसभा में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी चौबे ने कहा था कि देश के रूरल इंडिया में 23 फ़ीसदी सब सेंटर की कमी है, 28 फ़ीसदी प्राइमरी हेल्थ सेंटर की कमी है. जबकि 37 फ़ीसदी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की कमी है. राज्य स्तर पर देखेंगे तो सबसे खस्ताहाल बिहार का है, जहां रूरल इलाके में 53 फ़ीसदी सब सेंटर, 46 फ़ीसदी पब्लिक हेल्थ सेंटर और 83 फ़ीसदी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की कमी है. वहीं दूसरे नंबर पर है उत्तर प्रदेश है यहां 40 फ़ीसदी सब सेंटर, 49 फ़ीसदी पब्लिक हेल्थ सेंटर और 53 फ़ीसदी कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की कमी है.
स्पेशलिस्ट के मामले में भी छोटे शहर बदहाल हैं
देश के रूरल इलाकों में जो तय मानक है, उसके हिसाब से 21,340 स्पेशलिस्ट की जरूरत पब्लिक हेल्थ सेंटरों में होती है. लेकिन इस वक्त इन सेंटरों में केवल 3,881 स्पेशलिस्ट ही काम कर रहे हैं. स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री अश्विनी चौबे ने 30 मार्च 2020 को लोकसभा में एक रिपोर्ट पेश की थी जिसमें यह आंकड़े दिए गए थे. इन आंकड़ों की माने तो देश के रूरल इलाकों में लगभग 81 फ़ीसदी स्पेशलिस्ट की कमी है. सोचिए जिस देश की 64 फ़ीसदी आबादी रूरल इलाकों में रहती हो, वहां 81 फ़ीसदी स्पेशलिस्ट की कमी कितनी बड़ी बात है और अगर इन इलाकों में तीसरी लहर कहर बरपाती है तो यह इन शहरों के लिए कितना खतरनाक साबित हो सकती है.
राज्य स्तर पर आंकड़ों को देखें तो सबसे ज्यादा स्पेशलिस्ट की कमी पश्चिम बंगाल के रूरल इलाकों में है, वहां इनकी कमी 94.9 फ़ीसदी है. वहीं गुजरात दूसरे नंबर पर है जहां इनकी कमी 91.9 फ़ीसदी है. इसके बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार आते हैं.
निजी अस्पताल छोटे शहरों में नहीं जाना चाहते
छोटे शहरों में सरकारी अस्पतालों की क्या हालत होती है यह किसी से नहीं छुपी है और निजी अस्पतालों की बात करें तो बड़े निजी अस्पताल छोटे शहरों में जाना नहीं चाहते. मेडिकल उद्योग से जुड़े लोग मानते हैं कि छोटे शहरों में उन्हें डॉक्टर नहीं मिलते. बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, एसोसिएशन आफ हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स के महानिदेशक गिरधर ज्ञानी कहते हैं कि सरकार को योग्य चिकित्सक मुहैया कराने के बारे में सोचना चाहिए. अगर बड़े अस्पताल छोटे शहरों में चले भी जाएं तो वह तब तक काम नहीं कर पाएंगे जब तक उनके पास योग्य और पेशेवर डॉक्टर मौजूद नहीं होंगे. कोरोना की दूसरी लहर में छोटे शहरों का हाल सबसे ज्यादा बदहाल था, वहां के अस्पतालों से लाशों का निकलना रुक ही नहीं रहा था. प्रयागराज, भागलपुर, कोटा, नैनीताल, कबीरधाम जैसे जिले कोरोना की दूसरी लहर में सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. और इसका सबसे बड़ा कारण रहा छोटे शहरों में अच्छी सुविधाओं वाले अस्पतालों का ना होना.
3100 मरीजों पर एक बेड, ग्रामीण भारत में सरकारी अस्पताल
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट 2019 के मुताबिक देश में करीब 26,000 सरकारी अस्पताल हैं. इनमें 21,000 रूरल इलाकों में हैं. जबकि 5 हजार हॉस्पिटल शहरी इलाकों में हैं. ये तो बात हुई अस्पतालों की, लेकिन असली मुद्दा है अस्पतालों में उपलब्ध बेडों का. 2019 में जब कोरोना गांवों तक नहीं पहुंचा था तब 17,00 मरीजों पर एक बेड था, जबकि बीबीसी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में उस समय एक बेड पर लगभग 31,00 मरीज आते थे. हालांकि कि कोरोना आने के बाद अस्पतालों में बेडो की संख्या जरूर बढ़ाई गई है.
लेकिन अस्पतालों की संख्या आज भी उतनी ही है. राज्य स्तर पर देखें तो इसमें सबसे खराब हालत बिहार का है, जहां 16 हजार मरीज पर एक बेड है. वहीं रूरल हेल्थ स्टैटिक्स की रिपोर्ट के मुताबिक, रूरल इंडिया में 26,000 लोगों पर एक एलोपैथिक डॉक्टर मौजूद है. जबकि WHO के नियम के मुताबिक हर 1000 मरीजों की संख्या पर एक डॉक्टर का होना आनिवार्य है. वहीं डॉक्टरों के मामले में पश्चिम बंगाल और बिहार सबसे खराब हालत में हैं. पश्चिम बंगाल में 70 हजार लोगों पर एक डॉक्टर है और बिहार में 50 हजार लोगों पर एक डॉक्टर है. यह आंकड़े ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019 से लिए गए हैं.