साक्षरता और सुशासन

भारत में साक्षरता शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। जो महिलाएं शिक्षित हैं, वे साक्षर बच्चों की एक पीढ़ी पैदा कर सकती हैं और यही पीढ़ी देश में कुशल कार्यबल बन सकती है।

Update: 2022-03-26 05:11 GMT

सुशील कुमार सिंह: भारत में साक्षरता शक्ति का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। जो महिलाएं शिक्षित हैं, वे साक्षर बच्चों की एक पीढ़ी पैदा कर सकती हैं और यही पीढ़ी देश में कुशल कार्यबल बन सकती है। स्पष्ट है कि साक्षरता में कौशल और प्रतिभा का संदर्भ निहित है। जब बाजार में अवसरों की मांग बढ़ेगी और जीवन स्तर में सुधार होगा, तो प्रति व्यक्ति आय भी ऊंची होगी और देश की आर्थिकी छलांग लगाएगी।

गरिमामय और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए व्यक्ति को साक्षर होना बहुत जरूरी है। साक्षरता मुक्त सोच को जन्म देती है। आर्थिक विकास के साथ-साथ व्यक्तिगत और सामुदायिक कल्याण के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त आत्मसम्मान और सशक्तिकरण भी इसमें निहित है। अब सवाल यह है कि जब साक्षरता इतने गुणात्मक पक्षों से युक्त है, तो फिर अभी भी हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित क्यों है? क्या इसके पीछे व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है या फिर सरकार की नीतियां और मशीनरी जवाबदेह है? कारण कुछ भी हो, मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि साक्षरता का अभाव सुशासन की राह में बड़ा रोड़ा है।

सुशासन एक जन केंद्रित संवेदनशील और लोक कल्याणकारी भावनाओं से युक्त ऐसी व्यवस्था है जिसके दोनों छोर पर केवल व्यक्ति ही होता है। यह एक ऐसी अवधारणा है जहां से सामाजिक-आर्थिक उत्थान अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है। बदले दौर में सरकार की नीतियां और जन अपेक्षाएं भी बदली हैं। बावजूद इसके पूरा फायदा तभी उठाया जा सकता है, जब देश निरक्षरता से मुक्त होगा।

गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद 1951 में 18.33 फीसद लोग साक्षर थे, जो 1981 में बढ़ कर इकतालीस फीसद हो गए थे। लेकिन जनसंख्या के अनुपात में यह क्रमश: तीस करोड़ से बढ़ कर चवालीस करोड़ हो गए थे। ऐसे में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की कल्पना अस्तित्व में आई। पांच मई 1988 को शुरू हुए इस मिशन का उद्देश्य था कि लोग अनपढ़ न रहें।

कम से कम साक्षर तो जरूर हो जाएं। इस मिशन ने असर तो दिखाया, लेकिन शत-प्रतिशत साक्षरता हासिल कर पाने में यह नाकाम रहा। इसी के ठीक तीन बरस बाद 25 जुलाई 1991 को आर्थिक उदारीकरण का पदार्पण हुआ और 1992 में नई करवट के साथ भारत में सुशासन का बिगुल बजा। साक्षरता और सुशासन की यात्रा को तीन दशक से अधिक वक्त हो गया। जाहिर है, दोनों एक-दूसरे के पूरक तो हैं, मगर अभी देश में इन दोनों का पूरी तरह स्थापित होना बाकी है।

भारत में साक्षरता सामाजिक-आर्थिक प्रगति की कुंजी है। साक्षरता और सुशासन का गहरा रिश्ता है। दुनिया के किसी भी देश में बिना शिक्षित समाज के सुशासन के लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं है। साक्षरता से जागरूकता को बढ़ाया जा सकता है और जागरूकता से स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता को बढ़त मिल सकती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निरक्षरता मिटाने के मकसद से 1966 में यूनेस्को ने अंतरराष्ट्रीय साक्षरता दिवस की शुरुआत की थी। इसका कार्यक्रम का उद्देश्य था कि 1990 तक किसी भी देश में कोई भी व्यक्ति निरक्षर न रहे।

मगर ताजा स्थिति यह है कि भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार साक्षरता चौहत्तर फीसद ही है। जबकि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के 2017-18 के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में साक्षरता 77.7 प्रतिशत थी। इतना ही नहीं, साक्षरता दर में व्यापक लैंगिक असमानता भी विद्यमान है। साक्षरता का शाब्दिक अर्थ है- व्यक्ति का पढ़ने और लिखने में सक्षम होना। आसान शब्दों में कहें तो जिस व्यक्ति को अक्षरों का ज्ञान हो और वह पढ़ने-लिखने में सक्षम हो, सरकार की नीतियों, बैंकिंग व्यवस्था, खेत-खलिहानों से जुड़ी जानकारियां, कारोबार से जुड़े उतार-चढ़ावों जैसी चीजों को समझ सके। साक्षरता के जरिए लोकतंत्र की मजबूती से लेकर आत्मनिर्भर भारत की यात्रा भी सहज हो सकती है।

भारत के केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने हाल में वयस्क शिक्षा को बढ़ावा देने और निरक्षरता खत्म करने के लिए 'पढ़ना-लिखना अभियान' की शुरुआत की है। इस अभियान का उद्देश्य 2030 तक देश में साक्षरता दर सौ फीसद तक ले जाने का है। जाहिर है, यह अभियान 'साक्षर भारत-आत्मनिर्भर भारत' के ध्येय को भी पूरा करने में मदद कर सकती है। गौरतलब है कि संपूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को ध्यान में रख कर ही साल 2009 में 'साक्षर भारत कार्यक्रम' शुरू किया गया था। इसमें यह निहित था कि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर अस्सी फीसद तक पहुंचाना है।

हालांकि साल 2011 की जनगणना के अनुसार देश की साक्षरता दर चौहत्तर फीसद ही थी। कोविड-19 के चलते साल 2021 में होने वाली जनगणना संभव नहीं हो पाई। ऐसे में साक्षरता की मौजूदा स्थिति क्या है, इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है। मगर जिस तरह 2030 तक शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य रखा गया है, उसे देखते हुए कह सकते हैं कि 2031 की जनगणना में आंकड़े देश में अशिक्षा से मुक्ति की ओर होंगे।

सुशासन की परिपाटी भले ही बीसवीं सदी के अंतिम दशक में परिलक्षित हुई हो, मगर साक्षरता को लेकर चिंता जमाने से रही है। साक्षरता और जागरूकता की उपस्थिति सदियों पुरानी है। यदि बार-बार अच्छा शासन ही सुशासन है, तो इस तर्ज पर अशिक्षा से मुक्ति और बार-बार साक्षरता पर जोर देना सुशासन की मजबूती भी है। असल में कौशल विकास के मामले में भारत में बड़े नीतिगत फैसले या तो हुए नहीं, और यदि हुए भी तो साक्षरता और जागरूकता में कमी के चलते उसे काफी हद तक जमीन पर उतारना कठिन बना रहा। 'स्किल इंडिया' कार्यक्रम सुशासन को एक अनुकूल जगह दे सकता है, बशर्ते इसके लिए जागरूकता का दायरा बढ़ाया जाए।

गौरतलब है कि स्किल इंडिया कार्यक्रम के अंतर्गत 2022 तक कम से कम तीस करोड़ लोगों को कौशल प्रदान करना है। पर इसकी राह में दो बड़े अवरोध हैं। पहला यह कि देश में मात्र पच्चीस हजार ही कौशल विकास केंद्र हैं जो नाकाफी हैं। और दूसरा अवरोध साक्षरता को लेकर है जिसके अभाव में कौशल कार्यक्रम के उद्देश्य को पूरा करना अपने में एक समस्या है। यही कारण है कि लोक कल्याण और जनहित के लिए योजनाएं तो कई आती रही हैं, मगर इसकी पूरी पहुंच साक्षरता और जागरूकता की कमी के चलते संभव नहीं हुईं।

बहरहाल भारत के समक्ष राष्ट्रीय साक्षरता दर को सौ फीसद तक ले जाने के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष साक्षरता की खाई को पाटना भी एक चुनौती रही है। संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक पूरी दुनिया से सभी क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव को समाप्त करने का संकल्प लिया है। देखा जाए तो भारत में पिछले तीन दशकों में स्त्री-पुरुष साक्षरता दर का अंतर दस प्रतिशत तक तो घटा है। मगर पिछली जनगणना को देखें तो यह अंतर एक खाई के रूप में परिलक्षित होता है। जहां पुरुषों की साक्षरता दर बयासी फीसद से अधिक है, वहीं महिलाओं में यह दर पैंसठ फीसद ही है।

दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में लैंगिक विषमता बढ़ने के कई कारण हैं। शिक्षा के प्रति समाज२ का एक हिस्सा आज भी जागरूक नहीं है। सुशासन के निहित परिप्रेक्ष्य से यह विचारधारा स्थान लेती है कि साक्षरता कई समस्याओं का हल भी है। 1991 के उदारीकरण के बाद देश में जिस तरह तकनीकी बदलाव आए हैं, उसमें साक्षरता के कई आयाम भी प्रस्फुटित हुए हैं।

मसलन, अक्षर साक्षरता के अलावा तकनीकी साक्षरता, कानूनी साक्षरता, डिजिटल साक्षरता आदि अधिकारों को जानने के प्रति जागरूकता सहित कई ऐसे परिप्रेक्ष्य हैं जो जनता के लिए जरूरी हैं। इसलिए संपूर्ण साक्षरता के बिना सुशासन स्वयं में अधूरा है।

 

Tags:    

Similar News

-->