फिलहाल, पुतिन यूक्रेन पर अपना सच चिपका रहे हैं। सरकारी नियमावली के अनुसार 'बॉस इज़ नेवर राँग' होता है। संदर्भावली में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है कि चाहे बॉस गधा ही क्यों न हो, 'बॉस इज़ नेवर राँग', और जो अक्सर होता भी है। लेकिन बात है ताक़त और समय की। बाक़ी बचा व्याख्याओं की भेंट चढ़ जाता है। सवाल है कि कौआ सच बोलने पर काटता है या झूठ बोलने पर। मेरा अनुभव कहता है कि सच या झूठ बोलने पर कौआ कभी नहीं काटता। सच कहूँ तो ऐसा कौआ होता ही नहीं, जो किसी को काटे। मौक़े पर जिसका ज़ोर ज़्यादा होता है, वही प्रधान हो जाता है। त्रेता में जब रावण का ज़ोर चला, सीता हरी गई। जब राम की शक्ति चली तो रावण मारा गया। विष्णु की चली तो महेश या नारद ठगे गए या फिर दानव। इसीलिए लगता है कि झूठ बोलना काफ़ी हद तक स्वाभाविक है। दार्शनिक डेविड लिविंगस्टोन कहते हैं कि प्रकृति धोखे से भरी हुई है, वायरस जिस शरीर में रहते हैं, उसी की प्रतिरक्षा प्रणाली को ठगते हैं। गिरगिट शिकारियों को धोखा देने के लिए रंग बदलते हैं। सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट को गढऩे वाले इसके प्रथम प्रस्तावक ब्रिटिश दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर थे। लेकिन इसे चाल्र्स डार्विन की सर्वाइवल थ्योरी की तरह ख़ूब इस्तेमाल किया जाता है।
संस्कृत में इस वाक्य को दूसरी तरह से कहा गया है, 'दैवो दुर्बलघातक:' अर्थात् भगवान भी दुर्बल को ही मारते हैं। ऐसे में सच-झूठ का सवाल ही कहाँ बचा, जो दुर्बल होगा, मारा जाएगा। भगवान ने मारा या इन्सान ने, बात मौक़े की है। महाभारत युद्ध में जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु का सत्य जानना चाहा तो युधिष्ठिर का उत्तर था 'अश्वत्थामा हत: इति नरो वा कुंजरो वा', यानी अश्वत्थामा मारा गया, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी। इसका अर्थ है कि अगर हमारे सच से अपना कोई नुक़सान होता है तो उस वक्त पूरा सच बोलना ज़रूरी नहीं। कुल मिला कर मौके का चौका और दाँव लगे तो छक्का भी। ऐसे में अपवाद कैसे हो सकता है न जंगल में न दफ़्तर में। लगभग सभी आवेदक अपनी योग्यता के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर दावे करते हैं। कुछ नौकरियों में झूठ बोलना लाजि़मी है तो कुछ में कूटनीति झूठ का पर्याय। ग्राहक सेवाओं वाली कंपनियां रणनीतिक तौर पर झूठ बोलती हैं। अत: सामान्यत: दफ़्तरों के छल-कपट को परिभाषित करना मुश्किल है। कई बार अपने सीनियर की बात सुन कर दिल करता है कि उसका मुँह तोड़ दें, पर मन मसोस कर रह जाना पड़ता है। ग्राहक सेवाओं में विशेष रूप से महिला कर्मचारियों को अपने भावनात्मक श्रम में अपनी भावनाएं ज़ाहिर न करने पर बल दिया जाता है।
पी. ए. सिद्धार्थ
लेखक ऋषिकेश से हैं