मुद्दों के हाशिए जब टूटते हैं, तो कानून व्यवस्था की फिरौतियां आंख से सुरमा चुरा लेती हैं। कुछ ऐसे ही हिमाचल की आंख से सुरमा चुराते हुए, विधानसभा के धर्मशाला परिसर के बाहर देश के दुश्मन पहुंच गए और लोकतांत्रिक रीतियों के पहरे बेहद कमजोर दिखाई दिए। तपोवन परिसर के बाहर टंगे विध्वंसक इरादे और विखंडनवादी शक्तियों के प्रदर्शन से केवल आंच नहीं लगी, बल्कि यह भी साबित हुआ कि हमारी कानून व्यवस्था की परिपाटी कितनी लचर और सीमित है। खालिस्तानी नारे आज ही चस्पां नहीं हुए, बल्कि जब राष्ट्रीय घटनाक्रम में दोपहिया वाहनों पर भिंडरावाला के झंडे घूमते हुए हिमाचल पहुंच रहे थे या जब अलगाववादी संगठन सिख फॉर जस्टिस के तथाकथित अध्यक्ष गुरपरंत सिंह पन्नू ने मुख्यमंत्री को धमकी भरा पत्र 29 अप्रैल को भेजा था, तब ही इस खतरे पर सचेत होना चाहिए था। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पीएस राणा ने जो निर्देश डीजीपी को दिए थे, शायद वे एक सीमित दायरे तक ही समझे गए, वरना अलगाववादियों ने तो चुनौती की सारी सीमा लांघ दी थी। हम कुछ झंडों या दीवारों पर अंकित नारों से आतंकित न हों या यह मान लें कि तपोवन विधानसभा सत्र तो साल में एक ही बार आता है, लेकिन इस तथ्य को नहीं मिटा सकते कि प्रदेश में पहली बार इस कद्र आतंक और अलगाव के चिन्ह वहां चस्पां हुए, जहां संविधान की शपथ और लोकतंत्र की आत्मा निवास करती है। यह वारदात इसलिए संभव हुई क्योंकि हमारी कानून व्यवस्था ऐसी परिस्थितियों से अनभिज्ञ बने रहना चाहती है।
किसी ने सामने से आकर हिमाचल की छाती पर सुराख करने का दुस्साहस दिखाया और हम अपने सुरक्षा के इंतजाम बेहतर न कर पाए। कौन नहीं जानता कि हिमाचल की व्यवस्था रात को सो जाती है या पुलिस की अस्मिता अब वीआईपी ड्यूटी में मशगूल रहती है। आश्चर्य यह कि जहां लोकतांत्रिक संस्थानों से राष्ट्र की सार्वभौमिकता प्रकट होती हो, उसे हम केवल एक इमारत समझ कर मात्र आवश्यक रखरखाव कर रहे हैं या सिर्फ एक सत्र की दुहाई में चंद दिनों के लिए विधानसभा की ढुलाई कर रहे हैं। यह तो स्पष्ट हो चुका है कि तपोवन परिसर खुद एक राजनीतिक फिरौती मान लिया गया और जहां किसी तरह वर्ष का एक सत्र आयोजित करके प्रदेश अपना फर्ज निभा देता है। विधानसभा परिसर को देखते हुए कांगड़ा प्रशासन की काबिलीयत भी सामने आई है और हैरत यह कि पंजाब के घटनाक्रम के बाद भी प्रशासनिक दुरुस्ती नहीं हुई।
यह इसलिए भी कि जो प्रशासन अपने परिसर से आवारा पशुओं या जंगली घास नहीं उखाड़ सकता, उससे हम यह उम्मीद करते हैं कि वह तपोवन विधानसभा परिसर की गरिमा के अनुरूप चौकस होगा। कांगड़ा प्रशासन को अपने परिसर की ठेकेदारी में 'एक कैफे' की बिक्री की ज्यादा चिंता रही, जबकि कानून व्यवस्था तो अब केवल वीआईपी इरादों की पूंछ है। आश्चर्य यह भी कि हिमाचल में रात के सन्नाटे खूंखार होते जा रहे हैं, लेकिन पूरे प्रदेश में पैट्रोलिंग की उचित व्यवस्था नहीं। प्रवेश द्वारों पर ही चौकसी के इंतजाम न के बराबर हैं, तो रात्रि के समय ट्रैफिक के बीच अपराध तंत्र को कौन पकड़ेगा। पुलिस व्यवस्था इस बार या तो वेतन विसंगतियों के बीच मुख्यमंत्री आवास पर गिड़गिड़ाती देखी गई या दो बार अपने ही 'भर्ती' के पेपर लीक कराने में व्यस्त रही। आखिर कौन हमें बताएगा कि हिमाचल के सीमावर्ती इलाकों से लेकर भीतरी भागों तक कानून-व्यवस्था की चुनौतियां निरंतर बढ़ गई हैं। जिस तरह नशे की खेप हिमाचल पहुंच रही है, उससे देश विरोधी ताकतों के नेटवर्क हमारे करीब आ चुके हैं। यह ऐसे ही किसी तंत्र का जाल है, जो रूटीन में पुलिस को चकमा या मिलीभगत से नशा पहुंचा रहा था और अंततः उसी ने राष्ट्र विरोधी नारे पोत दिए। धर्मशाला पहले से ही तिब्बती मौजूदगी से संवेदनशील रहा है, लेकिन तपोवन परिसर पर हुए प्रहार से तो प्रतीत होता है कि हमारे सुरक्षा के पहरे रामभरोसे चल रहे हैं। लोकतांत्रिक पवित्रता नष्ट करने के इस षड्यंत्र का त्वरित संज्ञान लेते हुए न केवल जांच करनी होगी, बल्कि सुरक्षा के दायरे और पुलिस चौकसी के विषय भी बढ़ाने होंगे। क्या हमारा प्रदेश तपोवन के गेट पर चस्पां देश विरोधी नारों के लिए कांगड़ा प्रशासन, प्रदेश की पुलिस व्यवस्था और खुफिया तंत्र से कुछ पूछ पाएगा या सख्त कार्रवाई करने की जरूरत के बजाय केवल औपचारिक सा बयान लीपापोती कर देगा।
क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचा