कोविड और मंकीपॉक्स से जुड़े सबक : सीखने ही होंगे वरना; स्वास्थ्य क्षेत्र में अनदेखी की भारी कीमत चुकानी होगी

सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरणीय संकटों के फैलाव ने कई सबक दिए हैं, जिन पर हमें ध्यान देने की जरूरत है।

Update: 2022-08-25 01:40 GMT

कभी-कभी कॉमेडियन जनस्वास्थ्य से जुड़े संदेशों को सबसे शक्तिशाली तरीके से व्यक्त करते हैं। अमेरिका के देर रात प्रसारित होने वाले चर्चित टॉक शो के होस्ट और कॉमेडियन जॉन ओलिवर ने हाल ही में कहा, 'लंबे समय तक हम इसी चमत्कारिक सोच में उलझे थे कि वायरस कहीं और मौजूद है, इसलिए हमें उन्हें लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है।' मंकीपॉक्स वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल केवल नवीनतम चेतावनी है कि हमारी यह सोच कितनी त्रुटिपूर्ण है। मंकीपॉक्स की महामारी मध्य और पश्चिमी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में दशकों से व्याप्त है।




नाइजीरिया में 2017-18 में इसका जो प्रकोप फैला था, वह आज के हालात के लिए एक तरह से संकेत था। अफ्रीकी वैज्ञानिक पिछले कुछ समय से इसे लेकर चेतावनी दे रहे थे। निराशाजनक रूप से, दुनिया ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अब हम अफ्रीका की अनदेखी करने की कीमत चुका रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि गैर-स्थानिक देशों में मंकीपॉक्स के प्रकोप के पीछे कई कारक हैं- चेचक के टीके की समाप्ति, बढ़ते व्यापार और गतिशीलता, कोविड-19 प्रतिबंधों में ढील, वन भूमि का अतिक्रमण, जलवायु परिवर्तन इत्यादि।


वैश्विक रूप में मंकीपॉक्स के अब तक 44 हजार से अधिक मामले आ चुके हैं और 12 लोगों की मौत हो चुकी है। भारत में अब तक इसके नौ मामले सामने आ चुके हैं और इसमें एक मौत भी शामिल है। इनमें दिल्ली के चार मामले और केरल में मंकीपॉक्स से हुई एक मौत शामिल है। अमेरिका और यूरोप के कुछ हिस्सों में जो हो रहा है, उसकी तुलना में यह संख्या बहुत कम है। लेकिन आत्मसंतुष्टि के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। कोरोना वायरस की महामारी अभी खत्म नहीं हुई है। कुछ अन्य देशों की तरह भारत भी सार्स-कोवि-2 के नए वैरिएंट्स और उसके विस्तार से संघर्ष कर रहा है।

लाखों भारतीय कुछ अन्य बीमारियों से भी ग्रस्त हैं, लिहाजा कोविड से उनके लिए जोखिम अधिक है। दुनिया भर के वैज्ञानिक इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि एक नई महामारी कैसे, कब और कहां हो सकती है और किन उपायों से इसे रोका जा सकता है। तैयारी अत्यंत महत्वपूर्ण है। हालांकि भारत में तैयारियों को लेकर होने वाली चर्चा में अक्सर एक जरूरी तत्व, मानव संसाधन पीछे छूट जाता है। महामारी विशेषज्ञ डॉ. गिरिधर आर बाबू कहते हैं, 'महामारी की तैयारी कोई इवेंट नहीं है, बल्कि एक मजबूत और लचीली सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के निर्माण की प्रक्रिया है, जो प्रकोपों का सक्रिय रूप से पता लगाती है और प्रतिक्रिया करती है।' महामारी की तैयारी के केंद्र में सामान्य समय के दौरान स्वास्थ्य प्रणाली की चुनौतियों के समाधान की कोशिश होती है।

इसका अनिवार्य रूप से अर्थ है कि मानव संसाधनों पर ध्यान केंद्रित किया जाए, जो कि दुनिया में हर जगह प्रभावी स्वास्थ्य प्रणालियों को शक्ति प्रदान करता है। मंकीपॉक्स का प्रकोप फैलने के बाद निगरानी को लेकर ढेर सारी बातें की जा रही हैं, लेकिन बाबू कहते हैं, 'निगरानी को मजबूत करने और प्रकोपों का जवाब देने के लिए प्रयोगशाला के बुनियादी ढांचे और कुशल शासन तंत्र के साथ मानव संसाधनों को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।' इसके साथ ही वह यह भी कहते हैं, 'दुर्भाग्य से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों की निरंतर उपेक्षा पुरानी स्थिति में लौटने को प्रेरित होती है।'

भारत अब भी उन देशों में शामिल है, जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च सबसे कम हैं। कई राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराई-सी है। जब कोई स्वास्थ्य प्रणाली सामान्य समय में आम लोगों की सेवा नहीं कर सकती, तब यह मुश्किल ही है कि वह स्वास्थ्य संबंधी संकट के समय प्रभावी तरीके से काम कर पाएगी। बाबू तो यह भी कहते हैं कि स्वास्थ्य संबंधी आपातकाल के समय तो मजबूत स्वास्थ्य प्रणालियां तक ध्वस्त हो जाती हैं। भारत में शहरी क्षेत्रों की आबादी की जरूरतों के अनुसार स्वास्थ्य कार्यबल (आशा कार्यकर्ता और एएनएम) पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं है।

नतीजन स्वास्थ्य सेवाएं प्रभावित होती हैं, जैसा कि कोविड-19 के दौरान देखा गया। यही समय है, जब खामियों को दूर करने और सभी तरह के प्रकोपों से निपटने में सक्षम स्वास्थ्य कार्यबल खड़ा करने के बारे में विचार किया जाए। बाबू के मुताबिक, जनस्वास्थ्य से जुड़ी आपात परिस्थितियों से निपटने के लिए भारत को जल्द ही तीन अहम उपाय करने की जरूरत हैः आबादी के अनुपात में एएनएम तथा आशा कार्यकर्ताओं के खाली पद भरे जाएं और निर्मित किए जाएं (ग्रामीण क्षेत्रों में वे पहले से मौजूद हैं); सभी राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संवर्ग को संस्थागत रूप देकर सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यबल को मजबूत किया जाए; मानव और पशु स्वास्थ्य के सभी पहलुओं और अंतःक्रियाओं पर व्यापक रूप से ध्यान केंद्रित करके 'एक स्वास्थ्य' एजेंडा लागू किया जाए।

हमें दुनिया में जूनोटिक रोग (ऐसे रोग या संक्रमण जो जानवरों से मनुष्यों में और मनुष्यों से जानवरों में फैलते हैं) के प्रकोप में वृद्धि के साथ 'वन हेल्थ' दृष्टिकोण पर अधिक ध्यान देना चाहिए। संक्षेप में, 'वन हेल्थ' दृष्टिकोण लोगों, जानवरों और पर्यावरण के लिए सर्वोत्कृष्ट स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए मानव और प्राकृतिक प्रणालियों की अन्योन्याश्रयता को स्वीकार करता है। बढ़ते जूनोज के समय में यह विशेष रूप से प्रासंगिक है, क्योंकि एक ही तरह के कई रोगाणु जानवरों और मनुष्यों को संक्रमित करते हैं, क्योंकि वे जिस इको-सिस्टम में रहते हैं, उसे साझा करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि केवल एक क्षेत्र के प्रयास समस्या को रोक या समाप्त नहीं कर सकते हैं। भारत ने 'वन हेल्थ' विचार को अमल में लाने की शुरुआत की है। यह कायम रहना चाहिए। हम शुरुआती सतर्कता से चूकने का जोखिम नहीं उठा सकते। सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरणीय संकटों के फैलाव ने कई सबक दिए हैं, जिन पर हमें ध्यान देने की जरूरत है।



सोर्स: अमर उजाला

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