नेता-पुलिस गठजोड़ : गिरफ्तारी और पुलिस की जिम्मेदारी

छत्तीसगढ़ के एक आईपीएस अफसर को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने राजनेताओं और पुलिस अधिकारियों के गठजोड़ पर तल्ख टिप्पणी की

Update: 2021-09-02 07:19 GMT

विराग गुप्ता। छत्तीसगढ़ के एक आईपीएस अफसर को जमानत देते हुए सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने राजनेताओं और पुलिस अधिकारियों के गठजोड़ पर तल्ख टिप्पणी की। अदालत के अनुसार, सत्ता पक्ष के इशारे पर काम करने वाले पुलिस अधिकारियों को सरकार बदलने पर प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बदहाली के लिए नेताओं से ज्यादा पुलिस अधिकारियों को जवाबदेह बताया। कानून और व्यवस्था बनाए रखने, अपराध और देशद्रोही गतिविधियों को रोकने के लिए गिरफ्तारी और सजा बहुत जरूरी है।

लेकिन इन अधिकारों का दुरुपयोग या राजनीतिक विरोधियों पर इस्तेमाल, संविधान के विरुद्ध है। पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक सैनी को अमरिंदर सरकार ने 30 साल पुराने समेत कुछेक नए मामलों में गिरफ्तार करवा लिया। दिलचस्प बात यह है कि पूर्व डीजीपी को जेड प्लस की चौचक सुरक्षा कई वर्षों से मिली हुई है। संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत पुलिस राज्यों का विषय है। पक्ष-विपक्ष शासित सभी राज्यों में बेवजह की गिरफ्तारी और उत्पीड़न के बढ़ते मामलों से जाहिर है कि पुलिस के ऊपर कानून के बजाय, सत्ता की मनमर्जी हावी है। यह न्यायपालिका के लिए चिंता की बात होने के साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी दलों के नेताओं के लिए भी खतरे की घंटी है।
पुलिस किसी को कब और कैसे गिरफ्तार कर सकती है, इसे दो तरह के मामलों से समझा जा सकता है। पहला, संज्ञेय और गैरजमानती किस्म के गंभीर अपराध जैसे हत्या, लूट और बलात्कार आदि में पुलिस को मजिस्ट्रेट के वारंट के बगैर ही आरोपी को गिरफ्तार करने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के जज कृष्ण अय्यर ने वर्ष 1977 के एक अहम फैसले में कहा था कि सात साल से कम सजा के मामलों में जमानत नियम और गिरफ्तारी अपवाद होनी चाहिए। बेवजह की हिरासत को संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन बताते हुए जस्टिस अय्यर ने इसे जीवन और स्वतंत्रता का गंभीर हनन बताया था।
दूसरे असंज्ञेय और जमानती किस्म के हलके अपराध के मामले होते हैं। ऐसे मामलों में सामान्यतः मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए। और यदि गिरफ्तारी करना जरूरी हो, तो थाने से ही जमानत देकर रिहा करने के लिए कानूनी प्रावधान हैं। हालिया एक मामले में सीआरपीसी कानून (दंड प्रक्रिया संहिता) की धारा 41 के तहत उत्तर प्रदेश पुलिस ने जरूरी नियमों का पालन नहीं किया। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के जज नरीमन ने सिर्फ कुछ पंक्तियों के सारगर्भित आदेश से शायर मुनव्वर राना को जमानत दे दी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक देकर आम आदमी के लिए जल्द न्याय हासिल करना इतना आसान नहीं है।
सीआरपीसी कानून की सही व्याख्या करते हुए राजस्थान हाई कोर्ट ने कुछ महीने पहले एक अहम फैसला दिया था। इसके अनुसार, तीन साल से कम सजा के मामलों में पुलिस को बेवजह गिरफ्तार नहीं करना चाहिए। जज के अनुसार, कोरोना काल में फिजूल की गिरफ्तारी से अभियुक्त के विधिक अधिकारों के हनन के साथ जेल, पुलिस और न्यायिक व्यवस्था पर बेवजह दबाव पड़ता है। इस फैसले पर अमल करके, पुलिस सुधारों पर नई शुरुआत करने के बजाय गहलोत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करके हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगवा दी।
दो हफ्ते पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि पुलिस की जांच के बाद अदालत में चार्जशीट दायर करते समय, अभियुक्त की रूटीन तरीके से गिरफ्तारी गलत है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि जांच के दौरान जब गिरफ्तारी नहीं हुई, तो कस्टडी के नाम पर चार्जशीट के समय की गई गिरफ्तारी सीआरपीसी कानून की धारा 170 का संगठित दुरुपयोग है। अदालत के अनुसार, पुलिस के पास गिरफ्तारी का अधिकार है, लेकिन उनके बेजा इस्तेमाल से लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के हक का हनन नहीं किया जा सकता।
वर्ष 1994 में जोगिंदर कुमार के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वेंकटचलैया ने बेवजह की गिरफ्तारियों को रोकने के लिए कई जरूरी आदेश पारित किए थे। इन आदेशों को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने दिशानिर्देश में शामिल किया है। इनके अनुसार, बहुत ही गंभीर अपराध और शातिर अपराधी, जो नए अपराध करने के साथ गवाह और सबूत मिटा सकता है, वैसे मामलों में ही जमानत देने से इन्कार होना चाहिए। संविधान और सीआरपीसी कानून के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अविलंब या 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए। गिरफ्तार व्यक्ति को पूरे मामले की जानकारी के साथ एफआईआर की कॉपी मिलने का हक है। हाल ही में पूर्व आईपीएस अमिताभ ठाकुर अपनी गिरफ्तारी के पहले, ऐसी ही जानकारी और आदेश की मांग कर रहे थे। लेकिन ब्रेकिंग न्यूज के चक्कर में संविधान के संजीदा पहलुओं पर कोई ठोस चर्चा ही नहीं हुई।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1997 में डीके बासु के ऐतिहासिक मामले में अनेक महत्वपूर्ण आदेश जारी किए, जिन पर किसी भी सरकार ने अमल नहीं किया। इसका खामियाजा जनता और पुलिस अधिकारियों के साथ नेताओं को भी भुगतना पड़ रहा है। मणिपुर के मुख्यमंत्री ने आपत्तिजनक सोशल मीडिया पोस्ट के लिए एक पत्रकार को गिरफ्तार करवा दिया। उसके बाद अदालत से जमानत मिलने पर पत्रकार के ऊपर एनएसए थोप दिया गया। इस गैरकानूनी कृत्य का मुख्यमंत्री ने निर्लज्जतापूर्ण तरीके से मीडिया में बचाव भी किया। साफ है कि पुलिस सुधार के व्यापक मुद्दे पर सत्ता पक्ष या विपक्ष किसी को रुचि नहीं है। लेकिन संविधान प्रदत्त जीवन की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की है।
संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट के फैसले कानून की तरह बाध्यकारी माने जाते हैं। वर्ष 2014 के अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त फैसला देते हुए कहा था कि बेवजह की गिरफ्तारियों के लिए पुलिस के साथ अदालतों की भी जवाबदेही है। जरूरत इस बात की है कि गलत गिरफ्तारी के मामलों पर जमानत देने के साथ, दोषी पुलिस अधिकारियों के खिलाफ अवमानना का भी मामला चले। ऐसा होने पर आजादी के अमृत महोत्सव (75वें वर्ष में) के मौके पर पूरे देश में संविधान का झंडा बुलंद हो सकेगा।


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