लाल आतंक पर अंतिम प्रहार हो!
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला में नक्सली हमले के बाद से ही जम्मू के नेत्रकोटी गांव में पांच दिन से सन्नाटा पसरा रहा।
छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिला में नक्सली हमले के बाद से ही जम्मू के नेत्रकोटी गांव में पांच दिन से सन्नाटा पसरा रहा। मुठभेड़ के दौरान नक्सलियों द्वारा बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के कोबरा कमांडो राकेश्वर सिंह मन्हास की सलामती के लिए पूरा परिवार और गांव के लोग दुआएं मांग रहे थे। राकेश्वर की पत्नी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भावुक अपील की थी कि किसी भी कीमत पर नक्सलियों से उनके पति की रिहाई ठीक वैसे ही सुनिश्चित की जाए जैसे भारतीय वायुसेना के पायलट अभिनंदन के पाकिस्तान में पकड़े जाने के बाद उन्हें रिहा करवाया गया था। रह-रहकर उनकी 5 वर्ष की बेटी अपने पापा के घर लौटने की बात करती और फिर खामोश मां की गोद में बैठ जाती। बेटी कह रही थी कि नक्सली अंकल मेरे पापा को घर भेज दो।
परिवार और ग्रामीणों की दुआएं रंग लाईं-अंततः नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में लोगों की मौजूदगी में राकेश्वर सिंह मन्हास को छोड़ दिया। खबर सुनते ही उनके पैतृक गांव नेत्रकोयी में परिवार में खुशियों की लहर दौड़ गई। गांवों वालों ने खुशियां मनाईं। एक पत्नी को सुहाग मिल गया और एक नन्ही बेटी को पापा मिल गए। एक बेटी का अपने पापा से फोन पर बात करने का भावुक दृश्य देशवासियों ने खबरिया चैनलों पर देखा। जिस तरह से 20 गांववासियों को बुलाकर जन अदालत में राकेश्वर सिंह को बांधकर लाया गया, उसकी परेड कराई गई उसे देखकर तो लगता था कि वह अपने देश में नहीं बल्कि दुश्मन देश से है। इस दृश्य को देखकर हर किसी का खून उबलने लगा था। ऐसे लगता था कि राकेश्वर सिंह को किसी दूसरे देश ने बंधक बनाया था। नक्सलियों ने जन अदालत लगाकर जवान की रिहाई को एक इवेंट बना डाला।
पाठकों को याद होगा कि नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ और ओडिशा में कलैक्टरों का अपहरण कर अपनी मांगें मनवा कर उन्हें रिहा किया था। अब सवाल उठता है कि 22 जवानों की जान लेने वाले नक्सलवादियों ने राकेश्वर को रिहा क्यों किया? ऐसा करके क्या नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ सरकार के सामने चुनौती दी है या फिर वार्ता का संदेश दिया है। हो सकता है कि उन्हें डर था कि मोदी सरकार आैर छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें छोड़ने वाली नहीं। उन्हें डर था कि सरकार उन पर बड़ी स्ट्राइक कर देगी और इसमें वे स्थानीय लोगों के साथ अपने कैडर का भरोसा भी खो देंगे। राकेश्वर सिंह की रिहाई के लिए पद्मश्री धर्मपाल सैनी समेत सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने अहम भूमिका निभाई।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार और सीआरपीएफ 22 जवानों की मौत का हिसाब जरूर लेगी। नक्सलियों के लिए अफसरों का अपहरण कर फिरौती वसूलना नई बात नहीं। नक्सली ऐसा करते रहते हैं, साथ ही वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि कहीं वे स्थानीय लोगों की सहानुभूति न खो दें। एक अनुमान के अनुसार छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र आदि दस राज्यों में 30 हजार के करीब सशस्त्र नक्सली हैं, जिनका नियमित कैडर कम से कम 50 हजार लोग हैं। नक्सली लगातार जवानों का खून बहा रहे हैं, फिर भी कहते हैं कि जवानों से उनकी कोई दुश्मनी नहीं, उनका विरोध तो सरकार की नीतियों के खिलाफ है। नक्सली लोगों से टैक्स वसूलते हैं, तथाकथित वर्ग शत्रुओं का सफाया करते हैं और अपनी जन अदालतें लगाकर तथाकथित न्याय करते हैं। जंगल वार-फेयर में उनका वर्चस्व है। कई बार जेलों पर हमला करके अपने साथियों को छुड़ा कर ले गए। इनके पास अत्याधुनिक हथियार भी आ जाते हैं। भारत ने बहुत प्रगति की है लेकिन सच यह भी है कि अार्थिक विकास का लाभ गरीबों और आदिवासियों तक नहीं पहुंचा। गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है, जल, जंगल, जमीन के मुद्दे चर्चा में हैं। आदिवासियों को उनके इलाकों से बेदखल किया गया। बड़ी-बड़ी कम्पनियां जमीन से खनिज सम्पदा निकालने में जुटी हुई हैं।
नक्सलवादियों में अधिकतर गरीब आदिवासी लोग ही हैं, इनमें से मुट्ठी भर लोग देश विरोधी हो सकते हैं। गृहमंत्री अमित शाह स्पष्ट रूप से चेतावनी दे चुके हैं कि हथियार छोड़ने वालों का स्वागत है लेकिन नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जाएगा। शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवी, प्रोफैसर, साहित्यकार भी नक्सलवादियों का समर्थन करते हैं। कुछ दशक पहले तक नक्सली पुलिसकर्मी या सुरक्षा बलों की हत्याएं नहीं करते थे, लेकिन अब यह सारे हमले नृशंसतापूर्वक करते हैं साथ ही शवों के साथ भी बर्बरता करना भी नहीं छोड़ते। इन रक्त पिपासुओं को चीन, पाकिस्तान जैसे देशों से हथियार भी मिलते हैं और पैसे भी। इन नक्सलियों का उद्देश्य ही हत्याएं करना हो तो फिर हमारे देश के बुद्धिजीवियों का समर्थन मिलना आश्चर्यजनक है। इतनी हिंसा और नृशंसता करने वालों को क्या यह देश स्वीकार कर सकता है, क्या इन्हें देशद्रोही नहीं समझा जाना चाहिए। विडम्बना यह है कि जब देशद्रोहियों का सफाया करने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बल एक्शन करते हैं तो इन्हें 'होली काउ' कहा जाने लगता है। नक्सलवाद कोई विचारधारा नहीं बल्कि आपराधिक मनोवृत्ति वाले लोगों का संगठित गिरोह है।
अब वक्त आ चुका है कि सुरक्षा बल एक बार फिर समन्वित रणनीति बनाकर नक्सलवाद को जड़ से खत्म करने के लिए अंतिम प्रहार करे। जो लोग राष्ट्र की मुख्यधारा में लौटने को तैयार हैं, उनके पुनर्वास की व्यवस्था हो लेकिन हत्यारों को यह राष्ट्र कभी माफ नहीं कर सकता। हमारा एक-एक कोबरा कमांडर देश के लिए बहुत कीमती है, उनकी जान लेने वालों को दंड भुगतना ही होगा।