केरल हाई कोर्ट का फैसला: एकल मां के हक में अहम कदम

बीते दिनों केरल हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह अविवाहित या एकल मां से पैदा हुए बच्चों के जन्म पंजीयन के लिए अलग फॉर्म जारी करे

Update: 2021-09-04 06:20 GMT

ऋतु सारस्वत।

बीते दिनों केरल हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह अविवाहित या एकल मां से पैदा हुए बच्चों के जन्म पंजीयन के लिए अलग फॉर्म जारी करे। खासतौर पर वे बच्चे जिन्हें 'एआरटी' (सहायक प्रजनन तकनीक) के जरिये जन्म दिया गया है। ऐसे बच्चों के जन्म पंजीयन के लिए निर्धारित फॉर्म में पिता का विवरण न मांगा जाए। न्यायालय का यह निर्णय एकल मां के आत्मसम्मान को बनाए रखने के लिए एक आवश्यक कदम है। मांओं का यह संघर्ष क्यों और किस लिए? क्या एक मां को अपने बच्चे के कल्याण के बारे में निर्णय लेने से अयोग्य ठहराया जा सकता है?

इसका कोई सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक या जैविक आधार नहीं है कि महिला बच्चे के संरक्षण में सक्षम नहीं है। तो यह विभेद सिर्फ लिंग आधार जनित होना क्या संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 में दिए गए समानता के वादे का उल्लंघन नहीं है? ये तमाम प्रश्न के. गीता हरिहरन ने दो दशक पूर्व शीर्ष अदालत से पूछे थे, क्योंकि भारत का हिंदू माइनॉरिटी ऐंड गार्जियनशिप ऐक्ट 1956 की धारा छह और गार्जियन ऐंड वार्ड ऐक्ट 1890 की धारा 19 अल्पवयस्क पुत्र एवं पुत्री का नैसर्गिक अभिभावक मां को नहीं मानती। 17 फरवरी, 1999 को गीता हरिहरन की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के निर्णय में कहा गया कि 'यह एक स्वयंसिद्ध सत्य है कि एक अल्पवयस्क बच्चे के माता-पिता, दोनों ही उसकी उचित देखभाल के लिए बाध्य हैं।
इसी बेंच के सदस्यों में से एक ने कहा, 'एक प्रभुत्वशाली व्यक्तित्व के कारण पिता का अभिभावक के मामले में मां पर अधिमान्य अधिकार नहीं माना जा सकता।' इतना समय बीतने के बाद भी कानूनी प्रावधानों और विभिन्न न्यायालयों की व्याख्या को यदि एक साथ मिलाकर देखें, तो नाबालिग बच्चों के कल्याण और संरक्षण का अधिकार आज भी पिता के पास ही है। जबकि बीते दशकों में ऐसी महिलाओं की संख्या बढ़ी है, जो विवाह के बंधन को न स्वीकारते हुए भी मां बनना चाहती हैं और इसके लिए वह कानूनन बच्चे गोद ले रही हैं या आईवीएफ के जरिये एकल होते हुए भी संतान को जन्म दे रही हैं
एकल मांओं का संघर्ष तो तभी से आरंभ हो जाता है, जब उन्हें अपनी संतान का जन्म पंजीयन करवाना होता है, इसके बाद स्कूल के एडमिशन फॉर्म में पिता के कॉलम को खाली छोड़ने पर अनेक प्रश्नों का प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से सामना करना पड़ता है। इससे भी अधिक पीड़ादायक स्कूल आईडी कार्ड में पिता के कॉलम को खाली देखकर, एकल मांओं के बच्चों को अपने साथियों के उन प्रश्नों का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें भीतर तक तोड़ देते हैं। क्या ये परिस्थितियां बदली नहीं जा सकतीं? जब सामान्य परिवारों से संबंध रखने वाली एकल मांओं को ऐसे अवांछित तनाव का सामना करना पड़ता है, तो उन महिलाओं की क्या स्थिति होगी, जो यौनकर्मी हैं।
आज भी हिंदू माइनॉरिटी ऐंड गार्जियनशिप ऐक्ट के मुताबिक, नाबालिग बेटे या बेटी के पिता को ही स्वाभाविक अभिभावक माना गया है। हां, यह बात अलग है कि विशेष परिस्थितियों में मां को बच्चे का अभिभावक बनाया जाता है, परंतु इन विशेष परिस्थितियों की सत्यता सिद्ध करने के लिए न्यायालय का आश्रय लेना पड़ता है, जबकि ऐसा कोई सामाजिक, आर्थिक या वैज्ञानिक आधार नहीं है, जिसके कारण यह कहा जा सके कि महिला अपने बच्चे की अभिभावक बनने की अधिकारी नहीं है। 2012 में योजना आयोग ने सुझाव दिया था कि बदलती सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए मां को प्रथम अभिभावक बनाया जाए। कुछ इसी तरह का प्रस्ताव 2017 में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री ने भी रखा था, परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं सका।
जब सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के चलते एकल मांओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है, तो यह जरूरी हो जाता है कि कानून में बदलाव हो अन्यथा हर रोज अनेक एकल मांओं को न्यायालय के दरवाजे सिर्फ इसलिए खटखटाने पड़ेंगे, ताकि उनका नाम उनके बच्चे की पहचान बन सके। केरल हाई कोर्ट का निर्णय केंद्र सरकार के लिए पथ प्रशस्त करने वाला है।
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