कर्नाटक हिजाब विवाद: इस्लाम में बुर्का प्रथा पर डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर के विचार
अन्य गंदी आदतों और साधनों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है।”
कर्नाटक से उठा हिजाब का विवाद अब पूरे देश में बहस का विषय बन गया है। हिजाब के समर्थन में सबसे आगे वो लोग सामने आ रहे हैं जिन्होने अतीत में हमेशा संविधान और मौलिक अधिकारों का हवाला दिया है।
दरअसल, खुद को सेक्युलर, लिबरल और बुद्धिजीवी मानने वाला ये तबका खासकर 2014 के बाद से इस तरह के मुद्दों पर हमेशा संविधान की बात करता है और इनके आंदोलनों में भी अक्सर गांधी और डॉ. आंबेडकर की तस्वीरें नज़र आती हैं। ऐसे में ये जानना महत्वपूर्ण हैं कि संविधान के निर्माता डॉ. आंबेडकर इस्लाम की बुर्का प्रथा के बारे में क्या सोचते थे?
डॉ. आंबेडकर और बुर्का प्रथा
दरअसल, ये तो हम सभी को बचपन से पढ़ाया गया है कि डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म की कुरीतियों जैसे ऊंच-नीच और छुआ-छूत के घनघोर विरोधी थे और इसके खिलाफ उन्होंने कई आंदोलन भी चलाए। लेकिन ये कम ही लोग बताते हैं कि बाबा साहेब सिर्फ हिंदू धर्म की कुरीतियों के ही नहीं बल्कि हर धर्म की कुरीतियों के विरोधी थे।
इस मामले में उन्होंने हिंदू समाज के साथ-साथ मुस्लिम समाज को भी आईना दिखाया था, लेकिन ये और बात है कि इस्लाम पर डॉ. आंबेडकर के विचारों को छुपा लिया जाता है। ऐसे में इस्लाम में बुर्का प्रथा को लेकर उनके विचारों को जानना ज़रूरी हो जाता है।
डॉ. आंबेडकर हर धर्म की महिला के अधिकारों और सशक्तिकरण के समर्थक थे और इसी वजह से उन्हें इस्लाम की पर्दाप्रथा नागवार गुज़रती थी। उन्होंने 40 के दशक में लिखी अपनी मशहूर पुस्तक "पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन" में इस विषय पर गंभीरता और पूरी स्पष्टता से प्रकाश डाला है।
पुस्तक के दसवें अध्याय के पेज नंबर 231 पर वो लिखते हैं-
"पर्दा प्रथा की वजह से मुस्लिम महिलाएं अन्य जातियों की महिलाओं से पिछड़ जाती हैं। वो किसी भी तरह की बाहरी गतिविधियों में भाग नहीं ले पातीं हैं जिसके चलते उनमें एक प्रकार की दासता और हीनता की मनोवृत्ति बनी रहती है। उनमें ज्ञान प्राप्ति की इच्छा भी नहीं रहती क्योंकि उन्हें यही सिखाया जाता है कि वो घर की चारदीवारी के बाहर वे अन्य किसी बात में रुचि न लें।
पर्दे वाली महिलाएं प्राय: डरपोक, निस्साहय, शर्मीली और जीवन में किसी भी प्रकार का संघर्ष करने के अयोग्य हो जाती हैं। भारत में पर्दा करने वाली महिलाओं की विशाल संख्या को देखते हुए कोई भी आसानी से ये समझ सकता है कि पर्दे की समस्या कितनी व्यापक और गंभीर है।"
डॉ. आंबेडकर समाज का गहरा अध्यन करते थे और उसके बाद ही अपनी बात कहते थे। उनके मुताबिक बुर्के या पर्दाप्रथा का असर सिर्फ महिलाओं पर ही नहीं पड़ता बल्कि इसका गलत असर पुरुषों की मानसिकता पर भी पड़ता है। इस बारे में उन्होने जो लिखा है वो कुछ लोगों की आंखे खोल देने के लिए काफी है।
अपनी किताब के पेज नंबर 231 पर ही वो आगे लिखते हैं कि -
"पर्दा प्रथा ने मुस्लिम पुरुषों की नैतिकता पर विपरीत प्रभाव डाला है। पर्दा प्रथा के कारण कोई मुसलमान अपने घर-परिवार से बाहर की महिलाओं से कोई परिचय नहीं कर पाता। घऱ की महिलाओं से भी उसका संपर्क यदा-कदा बातचीत तक ही सीमित रहता है। बच्चों और वृद्धों के अलावा पुरुष अन्य महिलाओं से हिल-मिल नहीं सकता, अपने अंतरंग साथी से भी नहीं मिल पाता। महिलाओं से पुरुषों की ये पृथकता निश्चित रूप से पुरुष के नैतिक बल पर विकृत प्रभाव डालती है। ये कहने के लिए किसी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता नहीं कि ऐसी सामाजिक प्रणाली से जो पुरुषों और महिलाओं के बीच के संपर्क को काट दे उससे यौनाचार के प्रति ऐसी अस्वस्थ प्रवृत्ति का सृजन होता है जो आप्राकृतिक और अन्य गंदी आदतों और साधनों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है।"
सोर्स: अमर उजाला