कर्म योग और कबीर
भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान रही है। आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में भी यही भावना प्रबल हैं
डॉ दिनेश चंद्र सिंह।
भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान रही है। आधुनिक लोकतांत्रिक भारत में भी यही भावना प्रबल हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्मयोग को महत्व दिया है। संत कबीर भी व्यवहारिक कर्म की सीख प्रदान करते हैं। तातपर्य यह कि मन की चंचलता को दूर कर निष्काम कर्म किया जाए, पूर्ण एकाग्रचित होकर सकाम लक्ष्य निर्धारित किया जाए और जनसेवा का दृढनिश्चय लेकर पूर्ण दत्त-चित्त से कर्म करते रहा जाए तो कठिन और दुर्लभ लक्ष्य को भी प्राप्त करके व्यक्तिगत हित से लेकर लोकहित का कार्य किया जा सकता है। देश काल पात्र प्रेरित अधिकांश महामानिषियों ने भी प्राणी मात्र के हित में ऐसा ही कार्य व आचरण करने का आह्वान किया है।
कर्मयोग नियंता भगवान श्रीकृष्ण उनके मुताबिक ज्ञानेंद्रियों व कर्मेन्द्रियों पर संयम स्थापित करके किसी भी व्यक्ति के द्वारा दुरूह से दुरूह लक्ष्य को साधा जा सकता है और जटिल से जटिलतम परिस्थितियों पर काबू पाया जा सकता है। भारतीय प्रशासनिक सेवाओं, प्रादेशिक प्रशासनिक सेवाओं समेत सभी विद्यार्थियों और उद्यमियों को अपना ध्येय इन्हीं बातों से प्रेरणा लेकर निर्धारित करना चाहिए, ताकि देश-समाज सबका हित सध सके। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट कर दिया है कि कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ अर्थात कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं… इसलिए कर्म को फल के लिए मत करो।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि निष्काम कर्म से सकाम लक्ष्य की ओर उत्प्रेरित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और संत कबीर दास और इनसे मिलते जुलते महामनीषी ही हमारे प्रेरणा स्रोत और आदर्श होने चाहिए। क्योंकि इनकी वैचारिक साम्यता, कर्म की प्रधानता और व्यवहारोन्मुख लक्ष्य की साधना का भाव समकालीन देश काल पात्र के लिए अनुकरणीय है।
दरअसल, मन बहुत चंचल होता है और साधना करने वाले व्यक्ति, चाहे जिस किसी भी क्षेत्र के हों, उन्हें उत्कृष्टता के शिखर पर पहुंचने की इच्छा होती है। उनको बहुत संघर्ष करते हुए मन यानी चित्त की चंचलता को शांत करना पड़ता है। जो व्यक्ति जिस क्षेत्र में उन्नति की पराकाष्ठा की मंजिल को प्राप्त करने का संकल्प धारण करते हैं, उन्हें उसी प्रक्रिया से कठिन, दुर्गम, अगम्य एवं असाध्य कष्ट की कंकड़ीली व अत्यंत परिश्रमपूर्ण, स्वलक्ष्य केंद्रित उपलब्धि के लिए संकल्प से सिद्धि की साधना करनी पड़ती है।
आज मैं पुनः विषय को व्यक्ति की संघर्ष गाथा व उसकी उपलब्धि, जो उसे व्यष्टि से समष्टि की असाध्य एवं दुर्गम यात्रा की ओर उन्मुख करते हुए व्यक्तिगत लक्ष्य की प्राप्ति की पराकाष्ठा तक पहुंचाती है, की चर्चा कर रहा हूं। क्योंकि ऐसे साधक की यात्रा व्यक्तिगत उपलब्धि के लिए नहीं होती है, बल्कि वह समग्र सृष्टि के विकास एवं उन्नयन की यात्रा होती है।
भगवान श्री कृष्ण जन्माष्टमी पखवारा के इस पावन अवसर पर मैं उन सभी साधकों का ध्यान आकृष्ट कराते हुए कहना चाहूंगा कि जिनका जन्म भगवान होते हुए भी, कितनी कठिन परिस्थितियों एवं विरोधी वैचारिक परिवेश में हुआ, उस कथा को सभी जानते हैं, इसलिए उसका वर्णन करना उचित नहीं है। परंतु भगवान श्री कृष्ण के पावन जन्मदिवस पर ऐसे एकाकी साधनारत अभ्यर्थियों से अनुरोध करूंगा, जिनमें आस्था सिंह एवं भविता सिंह जैसे अनगिनत विद्यार्थीगण भी शामिल हैं, कि कठिन लक्ष्य के लिए साधना एवं व्रत भी कठिन होना चाहिए। इसलिए मन की चंचलता से परेशान न होते हुए लक्ष्य केंद्रित तपस्या, निरंतर व व्यापक अध्ययन की साधना आवश्यक है।
सामाजिक समरसता और व्यवहारिक ज्ञान के अधिष्ठाता कवि कबीर दास ने जो लिखा, वह एक सच्ची अनुभूति है। यह कि "साँई सेंत न पाइये, बाताँ मिलै न कोय। कबीर सौदा राम सौं, सिर बिन कदैन होय।। अर्थात आप जिस कठिन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहते हैं, वह कबीर के शब्दों में उस साईं यानी परमेश्वर की साधना है जो मुफ्त की बातों से नहीं, उस राम से सिर देकर ही सौदा किया जा सकता है।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि उच्च पद यानी लोकतंत्र में उच्च संवैधानिक पदों के प्राप्ति की संघर्ष यात्रा बहुत ही कठिन एवं दु:साध्य होती है। उस यात्रा को वही पूर्ण कर सकता है जो बड़ी चीज को पाने के लिए बड़ी साधना भी करने के लिए सदैव तैयार और हर वक्त ततपर हो। कहने का तातपर्य यह कि उच्च पदों की प्राप्ति हेतु उच्च आदर्श के साथ साथ उत्कृष्ट कर्म, समुचित आचरण एवं सभी इंद्रियों का उत्कृष्ट संयम आवश्यक है।
यहां पर यह स्पष्ट कर दूं कि मैंने बहुत योग्य छात्रों को देखा है कि वह उत्कृष्ट कर्म, उपयुक्त आचरण एवं उत्कृष्ट संयम के अभाव में अपने जीवन की यात्रा को उत्कृष्ट उपलब्धि का शक्ल नहीं दे पाए। अर्थात कुछ उल्लेखनीय एवं अनुकरणीय नहीं कर पाए। परन्तु, ऐसे छात्रों को भी देखा है कि अध्ययन के समय बहुत मेधावी नहीं थे, किंतु अनवरत रूप से लक्ष्यकेन्द्रित साधना, संयम, कठोर परिश्रम एवं निरंतर संघर्ष से उत्कृष्ट कार्य करने में सफल हुए हैं। ऐसा इसलिए कि उच्च पदों की प्राप्ति, चाहे वह जिस भी क्षेत्र में हो, उत्कृष्ट साधना एवं अतुलित श्रम से ही प्राप्त की जा सकती है।
इस संदर्भ में संत कबीर दास जी ने भी एक अच्छा संदेश दिया था, जो आज भी प्रासंगिक है। वह यह कि बड़ी चीज पाने के लिए साधना भी बड़ी होनी चाहिए। वह लिखते हैं कि "कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाँहि। सीस उतारे हाथि करि, सो पैसे घर माँहि।। कबीर निज घर प्रेम का, मारग अगम- अगाध। सीस उतारि पगतलि धरै, तब निकटि प्रेम का स्वाद।।" अर्थात प्रेम का यह व्यापार किसी खाला का घर नहीं है कि बात-बात पर मन मचल जाए और खाला से की हुई फरमाइश पूरी हो गई। बल्कि यहां तो प्रवेश पाने का वही हकदार है जो पहले सिर उतारकर धरती पर रख दे। यहां पर सिर उतार कर धरती पर रखने का अभिप्राय यह है कि सबसे पहले अपने अहंकार को नष्ट करो तथा कर्म केंद्रित साधना करते हुए लक्ष्य का उत्सुकता से पीछा करो। अर्थात अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किये गये प्रेम रूपी श्रम-साध्य को पाने का मार्ग कठिन साधना ही है, और कोई शॉर्टकट नहीं।
इसका अभिप्राय यह है कि अध्ययन के क्षेत्र में कठिन परिश्रम करते हुए इंद्रियों को वश में रखकर, अहंकार रहित मन से, चित्त से लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष सिद्धि की यात्रा करनी होती है। इन पदों की प्राप्ति की चाहत के लिए हृदय में उमड़े प्रेम की भावना को प्राप्त करने के लिए केवल एवं केवल एक मात्र उपाय वर्तमान की निष्पक्ष एवं पारदर्शी मोदी-योगी सरकार में सिर्फ यही है कि कठिन तपस्या अपने-अपने क्षेत्र में करो। यथाश्रेष्ठ योग्यता एवं परिश्रम से मनवांछित फल की प्राप्ति के लिए अपने परिश्रम को केंद्रित करते हुए उसे प्राप्त करो।
आप देख रहे होंगे कि बिना किसी वाह्य दबाव के अर्थात सोर्स के मोदी एवं योगी के विज्ञापन में श्रीमती राघव, जो यूपीपीएससी में महिलाओं में श्रेष्ठ प्रथम स्थान पर हैं, विज्ञापन के लिए मेधा एवं योग्यता से स्थान पाकर सेवा में प्रवेश के पूर्व ही सर्वसामान्य में परिचित हो गईं। परंतु यह यात्रा विज्ञापन पर तस्वीर से ही खत्म नहीं होती है, बल्कि जिस भाव एवं योग्यता पर आपका चेहरा विज्ञापन के लिए चुना गया है, उसको स्थापित करने के लिए संपूर्ण सेवाकाल में आपको शुद्धतापूर्ण ढंग से कल्याणकारी कार्य करने होंगे।
कबीर दास जी कहते हैं कि "प्रेम न खेतों नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा-परजा जिस रुचे, सिर दे सो ले जाय।। सूरै सीस उतारिया, छाड़ी तन की आस। आगेथें हरि मुलकिया, आवत देख्या दास।। भगति दुहेली राम की, नहिं कायर का काम। सीस उतारै हाथि करि, सो लेसी हरि नाम।।" अर्थात किसी भी उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लक्ष्य रूपी प्रेम किसी क्षेत्र में नहीं उपजता, किसी हाट में नहीं बिकता, कि जो कोई इसे चाहेगा, इसे पा लेगा। चाहे वह राजा हो या प्रजा, उसे सिर्फ एक शर्त माननी होगी। वह शर्त है सिर उतारकर धरती पर रख लें। अर्थात अपने अहंकार का दमन करें, समन करें। जिसमें साहस नहीं है, जिसमें इस अखंड प्रेम के ऊपर विश्वास नहीं है, उस कायर की दाल यहां कतई नहीं गलेगी।
कहने का तात्पर्य यह कि हरि से मिल जाने का साहस दिखाने की बात करना बेकार है। पहले हिम्मत करो, फिर भगवान आगे आकर मिलेंगे और आपके मनोरथ एवं लक्ष्य की प्राप्ति की यात्रा को मंगलमय बनाएंगे। उथली भावुकता, स्टोरिक प्रेम-उन्माद और बातूनी इश्क यहां बेकार है। अपने अधिगम पर अखंड विश्वास ही आपकी सफलता की कुंजी है। वह सम्पूर्ण विश्वास, जिसमें संकोच नहीं, दिखावा नहीं, शंका नहीं, अन्यथा बख्शा नहीं।
प्रिय अभ्यर्थियों, आप जिस मंजिल की चाहत में अंतिम दौर से गुजर रहे हो, अपने मन को स्थिर रखकर अपनी अपनी साधना को लक्ष्य केंद्रित करते हुए अहंकार का शमन कर, निष्पक्ष एवं पारदर्शी केंद्रीय एवं राज्य सरकार में अपनी मंजिल की यात्रा को पूर्ण कर अपने उत्कृष्ट लक्ष्य को प्राप्त करो। ईश्वर उत्कृष्ट परिश्रम कर रहे बच्चों की मंजिल को प्राप्त करने के लिए आशीर्वाद प्रदान करें।
इसलिए, निष्काम कर्म से सकाम लक्ष्य की ओर उत्प्रेरित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और संत कबीर दास हमारे प्रेरणा स्रोत और आदर्श होने चाहिए। इनकी वैचारिक साम्यता, कर्म की प्रधानता और व्यवहारोन्मुख लक्ष्य की साधना का भाव समकालीन देश-काल-पात्र के लिए अनुकरणीय है। ऐसे ही भाव के साथ सभी को यथाश्रेष्ठ कर्म करते रहना चाहिए, ताकि जगकल्याण सुनिश्चित हो।
लेखक उत्तर प्रदेश में बहराइच के जिलाधिकारी हैं।