न्यायमूर्ति रमण का 'न्याय'

एक तरफ जब संसद के चालू वर्षाकालीन सत्र में स्थापित सभी लोकतान्त्रिक मर्यादाएं तार-तार हो रही हैं

Update: 2021-08-06 02:42 GMT

आदित्य चोपड़ा| एक तरफ जब संसद के चालू वर्षाकालीन सत्र में स्थापित सभी लोकतान्त्रिक मर्यादाएं तार-तार हो रही हैं और जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि देश की इस सबसे बड़ी पंचायत के भीतर अपने जायज अधिकारों को लेकर आपस में ही उलझ रहे हैं तो ऐसे समय में देश की सबसे बड़ी अदालत 'सर्वोच्च न्यायालय' के मुख्य न्यायाधीश 'न्यायमूर्ति एन.वी. रमण' ने भारत के लोकतन्त्र की प्रतिष्ठा और पवित्रता को 'सर्वोच्च' रखते हुए पूरी संसदीय प्रणाली को आइना दिखाने का काम करते हुए खुद को आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना के कृष्णा नदी जल बंटवारे के मुकदमे की सुनवाई करने वाली पीठ से यह कहते हुए अलग कर लिया है कि वह आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना दोनों ही राज्यों के हैं अतः वह इस मामले की सुनवाई से अलग होते हैं और मुकदमा दूसरी पीठ के सुपुर्द करते हैं।

हकीकत यह है कि श्री रमण की दो सदस्यीय पीठ ने पिछली सुनवाई के दौरान आन्ध्र प्रदेश व तेलंगाना को सलाह दी थी कि वे इस विवाद का हल मध्यस्थता के माध्यम से निकाल लें। मगर आन्ध्र प्रदेश ने न्यायालय की सलाह नहीं मानी और न्यायालय से ही फैसला देने की जिद की और इस राज्य के वकील श्री जी. उम्पथी ने बुधवार को मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि आन्ध्र सरकार चाहती है कि इसका हल न्यायालय के फैसले से ही निकले तो न्यायमूर्ति रमण ने इस मुकदमे से स्वयं को अलग करने की घोषणा कर दी।
देखने में यह बहुत तकनीकी और सामान्य सी घटना साधारण मानस को लग सकती है मगर इसके अर्थ बहुत गंभीर हैं और भारत की संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली के समक्ष नजीर पेश करने वाले हैं। पहला प्रश्न तो यह है कि श्री रमण मूलतः अब आन्ध्र प्रदेश के हैं और 2014 से पहले तेलंगाना भी आन्ध्र का ही हिस्सा था।
कृष्णा नदी के जल पर दोनों ही राज्य सिंचाई व पेयजल के लिए निर्भर करते हैं। श्री रमण इस मुकदमे की सुनवाई करते और फिर जिस भी फैसले पर पहुंचते उसे लेकर दोनों राज्य संशय का वातावरण बनाने की हिमाकत तक कर सकते थे। आन्ध्र प्रदेश की अपील यह है कि तेलंगाना उसे उसके हिस्से का जल नहीं दे रहा है।
अतः बात समझ में आती है कि न्याय के सर्वोच्च आसन पर बैठे श्री रमण ने इस मामले से स्वयं को क्यों अलग रखा। इससे संसद में बैठे उन सदस्यों को सीख लेनी चाहिए जो देश के सर्वोच्च सदन में बैठ कर अब अपने हितों को सर्वोच्च संरक्षण देते हैं।
लोकतन्त्र का यह नियम होता है कि सार्वजनिक जीवन में रहने वाले व्यक्तियों का 'हितों का टकराव' किसी भी सूरत में नहीं होना चाहिए। नेहरू काल तक इस अलिखित नियम या मर्यादा का सभी सांसद अक्षरशः पालन किया करते थे। मगर इसके बाद हवा कुछ इस तरह चली की राजनीतिज्ञों का पहला काम अपने हित ही साधना बनता चला गया और इसमें भी निजी स्वार्थ सबसे ऊपर आते गये।
राज्यसभा और लोकसभा तक में विभिन्न उद्योगों के मालिक चुन कर आते रहे हैं। इसी परंपरा के तहत यह नियम भी था कि जिस सांसद का किसी विशेष उद्योग में हित होगा वह उससे जुड़ा प्रश्न संसद में नहीं पूछेगा। मगर धीरे-धीरे यह परंपरा टूटती चली गई और इस सदी के शुरूआती वर्षों में तो राज्यसभा की हालत एेसी हो गई थी कि इसमें हर प्रमुख उद्योग से जुड़ा उद्योगपति सदन में मौजूद था।
चाहे वह के.के. बिड़ला हों या ललित सूरी या वीडियोकान कम्पनी के मालिक धूत या शराब किंग कहे जाने वाले विजय माल्या या जूट व बिजली वितरण उद्योग के रमा प्रसाद गोयनका या बजाज समूह के राहुल बजाज। इस दौरान 'हितों के टकराव' की जमकर धज्जियां उड़ाई गईं हालांकि बजाज समूह के श्री राहुल बजाज व रमा प्रसाद गोयनका ने कभी नियमों का उल्लंघन नहीं किया और संसद व लोकतन्त्र की मर्यादा को सर्वोपरि रखा।
मगर हम उस दौर में चल रहे हैं जिसमें मन्त्री तक हितों का टकराव न होने की पवित्रता का ध्यान नहीं रखते हैं। इसका सबसे पहला उदाहरण तब सामने आया था जब बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड में सीबीआई द्वारा अभियुक्त (चार्जशीटेड) बनाये गये भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी को वाजपेयी सरकार में गृहमन्त्री बनाया गया था। तब विपक्ष की ओर से इस पर गहरी आपत्ति जताई गई थी।
उस समय संसद में यह जवाब दिया गया था कि राम मन्दिर आन्दोलन और सामान्य अपराध में फर्क करके इस मामले को देखा जाना चाहिए। मगर कानून इस बारे में किसी फर्क को नहीं मानता है और अपराध पर एक जैसी ही धारा लगाता है। सवाल यह है न्यायमूर्ति रमण जो सन्देश देश को देना चाहते थे वह उन्होंने बहुत ही सादगीपूर्ण तरीके से दे दिया है और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को पैगाम दिया है कि उन्हें लोकतन्त्र की शुचिता व्यक्तिगत स्तर से ही कायम रखनी चाहिए। राजनीतिज्ञ इससे कुछ सीख लेंगे इसमें सन्देह है क्योंकि 21वीं सदी की आज की राजनीति धन बल, बाहुबल और छल की चाकर जैसी बन कर रह गई है। इसी वजह से भारत की न्यायपालिका आम आदमी में लगातार यह विश्वास जगाती रहती है कि भारत का उद्घोष मन्त्र 'सत्यमेव जयते' ही रहेगा।


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