Judiciary: केंद्र-न्यायपालिका के बीच टकराव के बीच न्यायिक स्वतंत्रता की अहमियत

हमें एक खास झुकाव वाली न्यायपालिका से बचना चाहिए।

Update: 2023-01-02 02:53 GMT
हाल में संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) की व्याख्या को लेकर केंद्र और न्यायपालिका के बीच टकराव सामने आया है। अनुच्छेद 124 (2) इस बात पर प्रकाश डालता है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों (खासकर प्रधान न्यायाधीश) और राज्यों के उच्च न्यायालयों के परामर्श के बाद की जाएगी। इसी तरह उच्च न्यायालयों के लिए अनुच्छेद 217 (1) इस बात पर प्रकाश डालता है कि उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को भारत के प्रधान न्यायाधीश, राज्य के राज्यपाल और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ (1981), सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (द्वितीय न्यायाधीश मामला) (1993) और अनुच्छेद 143 (1)... बनाम अज्ञात (तीसरे न्यायाधीशों की राय) (1998) में न्यायिक व्याख्या ने न्यायिक स्वतंत्रता के सिद्धांत को और साफ किया तथा न्यायाधीशों की सिफारिश के लिए एक कॉलेजियम प्रणाली पर जोर दिया। वर्तमान में केंद्र कॉलेजियम प्रणाली द्वारा की गई सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकता है, लेकिन यदि कोई सिफारिश दोहराई जाती है, तो सरकार उसे मानने के लिए लिए बाध्य थी। पर हाल में यह आम सहमति गतिरोध में बदल गई। केंद्र ने कॉलेजियम द्वारा दोहराई गई सिफारिशें रोक दी है। विगत 22 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने दूसरे न्यायाधीशों के मामले में तय समय सीमा का पालन न करने के लिए सरकार की खिंचाई की। कानून और कार्मिक संबंधी स्थायी संसदीय समिति ने भी न्याय विभाग के साथ अपनी असहमति उजागर की है कि रिक्तियों को भरने का समय नहीं बताया जा सकता।
स्वतंत्र न्यायपालिका और केंद्र के बीच इस ऐतिहासिक टकराव का असर न्यायिक प्रणाली में गिरावट के रूप में सामने है। अगस्त, 2022 में सर्वोच्च न्यायालय में 34 में से लगभग तीन और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की 1,108 में से करीब 381 रिक्तियां थीं। जबकि निचली अदालतों में 24,631 में से लगभग 5,342 सीटें खाली थीं। बहाली टलने से खासकर बॉम्बे, पंजाब और हरियाणा, कलकत्ता, पटना और राजस्थान उच्च न्यायालयों की न्यायिक दक्षता पर प्रभाव पड़ना तय है। इन अदालतों में अगस्त, 2022 तक करीब चार करोड़ मामले लंबित थे। राजनीतिक संस्थानों द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति चुनींदा देशों में होती है। जैसे, इटली में सांविधानिक न्यायालय में नियुक्तियां राष्ट्रपति, विधायिका और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जाती हैं। वहां प्रत्येक इकाई को पांच न्यायाधीश नामित करने की अनुमति है। अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को राष्ट्रपति द्वारा (जीवन भर के लिए) नामित किया जाता है और फिर बहुमत से सीनेट द्वारा अनुमोदित किया जाता है। जर्मनी के सांविधानिक न्यायालय में नियुक्तियां संसद द्वारा की जाती है। स्वाभाविक रूप से यह एक पक्षपातपूर्ण न्यायपालिका को जन्म दे सकता है।
अन्य देशों ने न्यायिक परिषदों के साथ प्रयोग किया है, जिसमें अक्सर मौजूदा न्यायाधीश, न्याय मंत्रालय के प्रतिनिधि, बार एसोसिएशन के सदस्य और आम नागरिक आदि शामिल होते हैं। इराक में सभी न्यायाधीश एक न्यायिक संस्थान के स्नातक हैं। वहां सभी आवेदकों को न्यायाधीशों के एक पैनल के साक्षात्कार के साथ लिखित और मौखिक परीक्षा से गुजरना पड़ता है। अमेरिका में राज्य के राज्यपाल योग्यता आयोग द्वारा प्रदान की गई सिफारिशों के आधार पर राज्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। जापान में सर्वोच्च न्यायालय का सचिवालय निचले स्तर की न्यायिक नियुक्तियों के साथ उनके प्रशिक्षण और पदोन्नति को नियंत्रित करता है। ब्रिटेन भी ऐसी व्यवस्था से न्यायिक आयोग की ओर बढ़ चुका है।
अपने यहां हाल ही में, केंद्र ने न्यायिक नियुक्तियों को न्यायिक आयोग (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2014) के माध्यम से संचालित करने पर जोर दिया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने 16 अक्टूबर, 2015 को एनजेएसी अधिनियम (2014) को 4 : 1 के बहुमत से रद्द कर दिया था। इस बात पर बहस की पूरी गुंजाइश है कि क्या न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक सशक्त सचिवालय की आवश्यकता है। सचिवालय में वर्तमान न्यायाधीश, बार एसोसिएशन के सदस्य, कानून मंत्रालय के प्रतिनिधि तथा आम आदमी हो सकते हैं और न्यायपालिका में समाज के लोगों को ज्यादा प्रतिनिधित्व के लिए जोर देना चाहिए।
न्यायिक नियुक्तियों से परे अपील की एक नई अदालत होने की स्पष्ट आवश्यकता है (वी वसंतकुमार की पीआईएल देखें)। उच्च न्यायालयों के आदेशों के खिलाफ अपील के लिए एक नियमित अदालत के रूप में सर्वोच्च न्यायालय को देखने का इरादा कभी नहीं था (बिहार लीगल सोसाइटी बनाम भारत के प्रधान न्यायाधीश, 1986)। यहां तक कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को जमानत याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, जैसा कि विधि आयोग ने सिफारिश की है, हमें प्रमुख महानगरों में शाखाओं के साथ एक संघीय अपील न्यायालय की दरकार है। इस बीच, एक सांविधानिक संशोधन के जरिये सर्वोच्च न्यायालय को एक सांविधानिक न्यायालय के रूप में तब्दील कर दिया जाना चाहिए। ऐसा करने का मतलब होगा कि उच्चतम स्तर पर कम मामले लंबित रखे जाएंगे। इसके अतिरिक्त, हमें सुप्रीम या हाई कोर्ट के सभी न्यायाधीशों के लिए एक परिभाषित सेवानिवृत्ति की आयु तय करनी चाहिए तथा सरकार में भूमिकाओं के लिए नामित होने के लिए न्यायाधीशों के लिए एक अनिवार्य कूलिंग ऑफ अवधि भी होनी चाहिए।
भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए न्यायिक स्वतंत्रता की अहमियत बनी हुई है। न्यायिक स्वतंत्रता के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक विश्वसनीय और निष्पक्ष प्रणाली जरूरी है। किसी भी नियुक्ति की न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए। साथ ही, एक ऐसी न्यायपालिका को बढ़ावा देना चाहिए, जो व्यक्तिगत और प्रणालीगत स्तर पर सरकार की अन्य शाखाओं से स्वतंत्र हो। ऐसी न्यायिक प्रणाली को राजनीतिक विचारधारा और जनता के दबाव से और इसके भीतर के पदानुक्रम से भी मुक्त होना चाहिए। इस बात पर पहले से तार्किक सहमति रही है कि हमें एक खास झुकाव वाली न्यायपालिका से बचना चाहिए।


   सोर्स: अमर उजाला 

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