Independence Day 2021: महान गांधीवादी की स्मृति, गांधी जी के सचिव महादेव देसाई की कहानी

महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई का 15 अगस्त, 1942 को निधन हो गया। अपने अंतिम दिनों में जब गांधी को एक ओर हिंदू-मुसलमान तनाव को दूर करने और दूसरी ओर नेहरू और पटेल की बढ़ती दूरियों को कम करने के प्रयास करने पड़ रहे थे

Update: 2021-08-16 16:23 GMT

अमर उजाला ब्यूरो। महात्मा गांधी के सचिव महादेव देसाई का 15 अगस्त, 1942 को निधन हो गया। अपने अंतिम दिनों में जब गांधी को एक ओर हिंदू-मुसलमान तनाव को दूर करने और दूसरी ओर नेहरू और पटेल की बढ़ती दूरियों को कम करने के प्रयास करने पड़ रहे थे, तब उन्होंने कहा था कि महादेव होते तो यह नौबत नहीं आती।

सारे भारतीयों की तरह मैं भी यह सोचते हुआ बड़ा हुआ कि 15 अगस्त वह दिन है, 1947 में जिस दिन स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने शपथ ली थी। हालांकि हाल के वर्षों में इस दिन ने मेरे लिए एक अलग मायने दिए हैं, जिसका पहले से संबंध नहीं है।
मेरी चेतना में 15 अगस्त, 1947 के साथ 15 अगस्त, 1942 भी जुड़ चुका है, जिस दिन जेल में महादेव देसाई का निधन हुआ था। उनके योगदान के बिना भारत शायद कभी ब्रिटिश राज से मुक्त नहीं हो पाता, और फिर भी इस महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी को आज तक वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे।
संभवतः वह चाहते थे कि यह इसी दिन हो। 1917 में अहमदाबाद में गांधी से जुड़ने और चौथाई सदी बाद आगा खान पैलेस में हुई अपनी मौत तक महादेव ने खुद को महात्मा की सेवा में समर्पित कर दिया। वह गांधी के सचिव, टाइपिस्ट, अनुवादक, काउंसलर, कूरियर, दुभाषिया, संकटमोचक सहित और भी बहुत कुछ थे। यहां तक कि वह अपने गुरु के रसोइये भी थे और उनके हाथ की बनी खिचड़ी की गांधी खासतौर से तारीफ करते थे।
मेरा सचिव मेरे हाथ-पैर के साथ ही मेरा मस्तिष्क जैसा
गांधी के कार्य और अभियानों में महादेव देसाई की अपरिहार्यता का सबसे अच्छा प्रमाण खुद महात्मा से मिलता है। महादेव के साबरमती आश्रम से जुड़ने के एक साल बाद 1918 में गांधी ने अपने भतीजे मगनलाल को बताया कि, 'मेरा सचिव मेरे हाथ-पैर के साथ ही मेरा मस्तिष्क जैसा है, उसके बिना महसूस करता हूं, मानो मैंने अपने पैर व दिमाग खो दिया है। उसके बारे में जितना पता चलता है, मैं उसके गुणों से उतना ही अधिक परिचित होता जाता हूं। वह विद्वान होने के साथ ही सद्गुणी भी है।
बीस साल बाद जब महादेव काम के बोझ से पस्त हो गए थे और उन्होंने छुट्टी लेने से भी इनकार कर दिया था, तब गांधी ने कुछ इस अंदाज में डांटा था : क्या हम यह कहें कि तुम्हें काम की सनक है? क्या तुम नहीं जानते कि यदि तुम अपंग हो गए, तो मेरा हाल बिना पंखों वाले पक्षी जैसा हो जाएगा? यदि तुमने बिस्तर पकड़ लिया, तब तो मुझे अपनी तीन चौथाई गतिविधियां समेटनी पड़ जाएंगीं।
एक हस्ती जो महादेव देसाई को करीब से जानती थीं, वह थीं गांधी की अंग्रेज शिष्या मीरा बेन (मैडलीन स्लेड)। उनकी पहली मुलाकात तब हुई थी, जब महादेव उन्हें लेने के लिए नवंबर, 1925 में अहमदाबाद स्टेशन गए थे और इसके सत्रह साल बाद जब उनकी मौत हुई, तब दोनों एक साथ जेल में थे। अपने संस्मरण ए स्पीरिट्स पिलग्रीमेज में मीरा ने महादेव देसाई के बारे में लिखा, 'वह लंबे कद के थे और सुंदर दिखते थे। मूंछे थीं और सिर पर क्षीण से बाल थे।
बौद्धिक होने के साथ ही बेहद संवेदनशील थे। जटिल व बदलती परिस्थितियों में वह असाधारण तरीके से त्वरित और बुद्धिमत्तापूर्ण समझ दिखाते थे, ऐसे हालात में बापू का दायां हाथ बन जाते और तेजी के साथ स्पष्ट रूप से उनके कहे को दर्ज करने लगते थे। लेकिन उनकी सबसे अहम बात थी बापू के प्रति गहरा समर्पण। यही हमारे रिश्ते का भी आधार था।'
लिखने के लिए यह कितना बड़ा अवसर है
'अंग्रेजो भारत छोड़ो' का आह्वान करने के बाद गांधी को अगस्त, 1942 में गिरफ्तार कर पूना में आगा खान आवास में कैद रखा गया। उनके साथ महादेव देसाई और मीरा बहन जैसे चंद करीबी सहयोगी भर थे। यह एहसास होने के बाद, कि जेल में लंबा वक्त गुजारना पड़ सकता है, महादेव ने 14 अगस्त की शाम मीरा से कहा, 'लिखने के लिए यह कितना बड़ा अवसर है। मेरे दिमाग में छह किताबों का विचार है, जिन्हें मैं कागज पर उतारना चाहूंगा...।'
इसके अगले दिन 15 अगस्त, 1942 को पचास वर्ष की उम्र में हृदयाघात से उनकी मौत हो गई। एक दिन बाद गांधी ने महादेव का सूटकेस खोला। कपड़ों के अलावा बाइबिल की एक प्रति (अंग्रेज प्रचारक अगाथा हैरिसन ने दी थी), अखबार की कुछ कतरनें व कुछ किताबें मिलीं, जिनमें टैगोर के नाटक मुक्तधारा की प्रति और किताब बैटल फॉर एशिया शामिल थी।
गुजराती व हिंदी साहित्य के विद्वान और इतिहास, राजनीति तथा कानून में गहरी रुचि रखने वाले महादेव देसाई संभवतः गांधी के सहयोगियों में सर्वाधिक विद्वान थे। महादेव की सीखने की ललक मैनचेस्टर गार्डियन में छपे स्मृति लेख में भी दर्ज है। 1931 में गांधी और उनके सचिव ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए इंग्लैंड में कुछ महीने बिताए थे। स्मृति लेख के लेखक ने उन्हें इस तरह याद किया, 'महादेव अंग्रेज लोगों के घरों में जाना और यह देखना पसंद करते थे कि वे कैसे रहते हैं।
घरों में जाने के बाद उनका ध्यान किताबों की आलमारी की ओर चला जाता। किताबें जिस तरह से पलटते थे, उससे समझा जा सकता था कि वह किताबों से कितना प्रेम करते थे। और यह भी अंदाजा लगाया जा सकता था कि यदि उनके पास कुछ अतिरिक्त समय होता, तो वह किसी किताब दुकान में ही उसे बिताना चाहते।'
अपने अध्ययन के बीच महादेव गांधी को सलाह देने और सहयोग करने की प्राथमिक जिम्मेदारी को नहीं भूले। गांधी उनसे तेइस वर्ष बड़े थे और उनके जाने के सात वर्ष बाद तक जिए। अपने अंतिम समय तक वह महादेव की कमी महसूस करते रहे। जीवन के अंतिम सप्ताह में, जब वह एक तरफ हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति बहाली और दूसरी तरफ जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल के बीच की दरार को दूर करने में व्यस्त थे, गांधी ने अपनी पोती मनु से कहा, 'महादेव की कमी आज जैसी पहले कभी महसूस नहीं हुई। वह जीवित होते, तो चीजों को इस तरह से कभी नहीं होने देते।'
महादेव देसाई का गांधी व भारत के लिए क्या था अर्थ
उम्र के चौथे दशक में मुझे खुद कम समझ थी कि महादेव देसाई का गांधी व भारत के लिए क्या अर्थ था। महात्मा की जीवनी पर काम के दौरान निजी दस्तावेजों से मैं महादेव के देश के लिए योगदान के बारे में जान सका। उम्मीद करता हूं, गुजराती व अंग्रेजी में पारंगत कोई युवा शोधार्थी किसी दिन इस महान व्यक्ति की जीवनी पर काम करेगा। कुछ वर्ष पहले महादेव देसाई के पुत्र नारायण देसाई ने अपने पिता के जीवन के बारे में लिखा था, जो कि भावुक होने के साथ सूचनापरक था।
स्वतंत्रता दिवस पर हम उन पुरुषों और महिलाओं को याद कर रहे हैं, जिन्होंने हमारे देश का निर्माण किया, बी आर आंबेडकर, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, बिरसा मुंडा, दादाभाई नौरोजी, जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, भगत सिंह और अनेक अन्य। इस सूची में शामिल लोग जितने सम्मानित और प्रेरणादायी थे, महादेव देसाई उनसे कहीं कम नहीं थे, जिनका निधन स्वतंत्रता मिलने से ठीक पांच वर्ष पूर्व हो गया था, जिसके लिए वह खुद निःस्वार्थ भाव से लड़े थे।

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