जम्मू-कश्मीर : जनजाति को प्रतिनिधित्व देने की कवायद
जनजाति को प्रतिनिधित्व देने की कवायद
जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अनुसूचित जनजाति कोटे की सीटें गुर्जर बकरवाल समुदाय के लिए आरक्षित करने की कवायद ने ठंड के मौसम में इस केंद्र शासित प्रदेश का सियासी पारा चढ़ा दिया है। अनुच्छेद 370 हटने के बाद पहली बार जम्मू-कश्मीर आए गृहमंत्री अमित शाह से जब गुर्जर बकरवाल समुदाय का प्रतिनिधिमंडल मिला, तो उन्होंने इसकी ओर साफ इशारा किया।
हालांकि इसका पहला संकेत भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सितंबर 2019 में ठाणे में आयोजित एक कार्यक्रम में दे दिया था। केंद्र सरकार साफ कर चुकी है कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव परिसीमन प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही होंगे। संकेत हैं कि परिसीमन के बाद 90 में से कम से कम 11 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो जाएंगी।
इन 11 सीटों में से एक-एक सीट शीना और गद्दी जनजातियों के खाते में जाने के बाद बाकी बची नौ सीटें गुर्जर बकरवाल के लिए आरक्षित होने का अनुमान है। वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनाव में इस समुदाय के आठ विधायक जीतकर आए थे। इसमें पांच पुंछ-राजौरी से, दो रियासी और एक गांदरबल जिलों से थे। वैसे तो इस समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा 1991 में ही मिल गया था, पर उसे इस नाते मिलने वाले पूरे अधिकार नहीं मिले।
नौकरियों में 10 फीसदी पद आरक्षित किए गए, मगर शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए कहीं दो, तो कहीं पांच फीसदी ही आरक्षण दिया गया। राजनीतिक आरक्षण से इन्हें पूरी तरह वंचित रखा गया। केंद्र सरकार द्वारा बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत से पूरे देश के आदिवासी अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए आश्वस्त दिख रहे हैं।
भारत के विभिन्न राज्यों में इस समुदाय को अलग-अलग तरह का आरक्षण प्राप्त है। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में अन्य पिछड़ा वर्ग और हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। मवेशियों और परिवार के साथ दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में विचरने वाले गुर्जर बकरवाल नियंत्रण रेखा व अन्य दुर्गम क्षेत्रों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। इसलिए किसी घुसपैठ की जानकारी इसी समुदाय को तुरंत होती है और ये लोग फौरन सेना को सचेत कर देते हैं।
देशप्रेम व साहस के लिए मशहूर यह समुदाय एक तरह से बिना वर्दी के सिपाही की तरह है, जिस पर सेना को नाज है। वर्ष 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान भी घुसपैठ की सूचना गुर्जर बकरवाल समुदाय के लोगों ने ही दी थी। यह समुदाय अलगाववादी तत्वों से इत्तेफाक नहीं रखता। इस घुमंतू समुदाय के लोग मार्च से नवंबर तक उच्च पहाड़ी इलाकों में रहते हैं और नवंबर में जब बर्फबारी शुरू होती है, तो ये मैदानी इलाकों की तरफ रुख कर लेते हैं।
वर्ष के लगभग तीन महीने ये सड़कों पर बिताते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, इनकी आबादी लगभग 12 लाख है, जो इस केंद्रशासित प्रदेश की आबादी का लगभग 11 फीसदी है। लेकिन समुदाय के नेताओं का अनुमान है कि इस समुदाय की जनसंख्या 18 लाख से अधिक है। जम्मू-कश्मीर की कम से कम 16 विधानसभा सीटों पर चुनाव का नतीजा गुर्जर बकरवाल के वोटों से तय होता है।
ऐसे में हर राजनीतिक दल की निगाह इस बड़े वोटबैंक पर रहती है। हालांकि सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन और राजनीतिक समझ की कमी होने के कारण इस समुदाय को कभी समुचित अधिकार नहीं मिले। समुदाय के जिन लोगों ने चुनाव जीतकर विधानसभा में प्रवेश किया, उन्हें कभी कबीना मंत्री का दर्जा नहीं दिया गया। समुदाय के नेता कहते हैं कि गुर्जर बकरवाल किसी पार्टी को नहीं, बल्कि अपने समुदाय के उम्मीदवार को वोट देते हैं, लेकिन पार्टियों ने इन्हें टिकट से भी खूब वंचित रखा।
अब जब इन्हें राजनीतिक आरक्षण दिए जाने की योजना बन रही है, तो जाहिर है कि इसका फायदा केंद्र में सत्तारूढ़ दल को ही मिलेगा। गुर्जर बकरवाल समुदाय को राजनीतिक आरक्षण देने की योजना भाजपा द्वारा राज्य में जनाधार बढ़ाने की दिशा में एक अहम कदम है और इससे पार्टी के मिशन 55 को बल मिलेगा।
(-लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, जम्मू के क्षेत्रीय निदेशक हैं।)