ढोल पीटने से नहीं जमीन पर काम करने से सरकार में बने रहना संभव होगा

भारत के 18वीं लोकसभा के सदस्यों के चुनाव के लिये अगला आम चुनाव मई 2024 में होने की संभावना है

Update: 2021-11-10 15:42 GMT

ज्योतिर्मय रॉय  भारत के 18वीं लोकसभा के सदस्यों के चुनाव के लिये अगला आम चुनाव मई 2024 में होने की संभावना है. इसलिए 2022 और 2023 भारतीय राजनीति के लिए संवेदनशील वर्ष है. इन दो वर्षों में एक दर्जन से अधिक राज्यों में होने वाले स्थानीय चुनावों का सीधा असर 2024 के आम चुनाव में देखने को मिलेगा. लेकिन मौजूदा वैश्विक आर्थिक मंदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती विश्व बैंक ने अपनी "ग्लोबल इकोनॉमी प्रॉस्पेक्ट्स एनालिसिस" रिपोर्ट में कहा है कि कोविड-19 की वजह से आई 2009 की मंदी से यह काफी बड़ी होगी. यह पिछले 80 साल की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी होगी. रिपोर्ट के मुताबिक, इस महामारी का असर अब तक आई प्राकृतिक आपदाओं से कहीं ज्यादा बड़ी है. चीन जैसी दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी इसके दुष्परिणामों से प्रभावित हैं.

भारत वर्तमान में दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला देश है. विश्व जनसंख्या के कुल 17.57 फीसदी लोग भारत में रहते हैं. अगर ज़नसंख्या वृद्धि को नियंत्रित नहीं किया गया तो आने वाले 40 वर्षों के भीतर भारत के शीर्ष रैंकिंग वाले चीन से आगे निकलने का अनुमान है. 2022 की चुनावों में भारत के राष्ट्रपति, भारत के उपराष्ट्रपति, लोकसभा के उप-चुनाव, राज्यसभा के चुनाव, 7 राज्यों की राज्य विधानसभाओं के चुनाव, राज्य विधानसभाओं के उपचुनाव, राज्य विधान परिषदों के साथ साथ कई अन्य चुनाव भी होंगे.
मौजूदा वैश्विक आर्थिक मंदी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती
इससे पूर्व, महामारी के दौरान चुनाव आयोग ने चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में सफलतापूर्वक चुनाव कराए हैं. 2022 में होने वाले पांच राज्यों के चुनावों में अनुमानित 17.84 करोड़ मतदाता भाग लेंगे. चुनाव आयोग के 1 जनवरी, 2021 के आंकड़ों के अनुसार, देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में लगभग 14.66 करोड़ मतदाता हैं, जबकि पंजाब में 2 करोड़ से अधिक मतदाता हैं. उत्तराखंड में 78.15 लाख मतदाता है जबकि मणिपुर में 19.58 लाख और गोवा में 11.45 लाख मतदाता हैं. सरकार के पास चुनाव सुचारू रूप से कराने की क्षमता है, लेकिन महामारी और आर्थिक मंदी के कारण 'चुनावी मुद्दे' का चयन सरकार के सामने एक बड़ी समस्या है.
कोविड-19 महामारी के कारण मौजूदा वैश्विक आर्थिक मंदी किसी भी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है, जिसका सीधा असर रोजगार पर पड़ता है. ऐसे स्थिति में सरकार से आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं. महामारी के कारण सरकार आर्थिक दबाव के साथ-साथ विभिन्न संसाधनों की कमी से जूझती रहती है और सरकार द्वारा चलाई जा रही कई योजनाओं को मजबूरन स्थगित करना पड़ता है, जिसका असर चुनावों पर पड़ता है. सरकार की तरह जनता के प्रति विपक्षी दलों की प्रत्यक्ष जवाबदेही और उत्तरदायित्व ना होने के कारण, विपक्षी दलों को इसका राजनीतिक लाभ मिलता है.
कहां हैं चुनावी मुद्दा?
चुनावी मुद्दों का सटीक चयन, किसी भी राजनीतिक दल के लिए बहुत कठिन कार्य होता है. चुनाव में राजनीतिक दल की सफलता-असफलता चुनावी मुद्दों पर निर्भर करती है. चुनावी मुद्दे आमतौर पर दो प्रकार के होते हैं, पहला सिद्धांत पर आधारित और दूसरा स्थानीय मुद्दों पर आधारित. साधारणतः लोकसभा के चुनाव सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और विधानसभा या अन्य चुनाव स्थानीय मुद्दों पर आधारित होते हैं.
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनाना शुरू किया. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर अपने सिद्धांत को धैर्यपूर्वक आगे बढ़ाया और स्थानीय चुनावों में भी राष्ट्रीय मुद्दों को चुनावी मुद्दे के रूप में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया. 2014 में, बीजेपी ने सिद्धांत के आधार पर, पूरे विपक्ष को हराकर पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में अपनी सरकार बना ली. चुनाव को लेकर राजनीतिक गलियारों में तत्परता बढ़ गई है. लेकिन आज भी चुनावी मुद्दों को लेकर विपक्ष के हाथ खाली नजर आते हैं.
उपचुनाव के नतीजों से उत्पन्न राजनीतिक भ्रम
उपचुनाव हमेशा सत्ताधारी सरकार की पृष्ठभूमि पर ही लड़ा जाता है, क्योंकि उपचुनावों में सत्ताधारी दल को राजनीतिक लाभ मिलते हुए देखा गया है. लेकिन हिमाचल प्रदेश में केंद्र और राज्य दोनों जगह पर बीजेपी की सरकार होने के उपरांत सत्तारूढ़ दल के लिये उपचुनाव का नतीजा आशा के विपरीत रहा. देश की 3 लोकसभा और 29 विधानसभा सीटों पर हाल ही में संपन्न हुए उपचुनाव का नतीजा सत्तारूढ़ केंद्र सरकार के लिए एक नई चुनौती है. इस उपचुनाव के नतीजे 2022 में पांच राज्यों में होने वाले चुनाव में राजनीतिक दलों के लिए मार्गदर्शक का काम करेंगे.
अपवाद के रूप में हिमाचल के उपचुनाव परिणाम को छोड़ दें तो इस उपचुनाव के नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है कि जिस राज्य में जिसकी सरकार है, सीट भी उसी की ही होगी. असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और वहां की पांचों विधानसभा सीटों पर बीजेपी और उसके सहयोगियों ने जीत हासिल की. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार है और उपचुनावों में चारों विधानसभा सीटो पर ममता की तृणमूल कांग्रेस पार्टी को जीत मिली. राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार दोनों सीटों पर कांग्रेस ने कब्जा जमाया है. मध्य प्रदेश में खंडवा लोकसभा सीट सत्तारूढ़ बीजेपी की कब्जे में रही और कांग्रेस ने जोबट (सुरक्षित) और पृथ्वीपुर विधानसभा सीटें छीनने में सफल रही. हरियाणा में ऐलनाबाद विधानसभा सीट पर इंडियन नेशनल लोकदल के अभय सिंह दोबारा चुने गए. बीजेपी यहां पर दूसरे नंबर पर रही. बिहार के कुशेश्वरस्थान और तारापुर विधानसभा सीट पर जेडीयू ने जीत दर्ज कर ली है.
लेकिन, हिमाचल के उपचुनाव परिणाम निस्संदेह चौंकाने वाले हैं. केंद्र और राज्य में बीजेपी सरकार के उपरांत हिमाचल की एक लोकसभा सीट और तीन विधानसभा सीटें कांग्रेस की झोली में गईं. मंडी लोकसभा सीट पर चुनाव तो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के ही नेतृत्व में लड़ा गया. जुबल-कोटखाई सीट पर तो बीजेपी प्रत्याशी नीलम सेराइक अपनी जमानत भी नहीं बचा सकीं, उन्हें महज 2,644 वोट मिले. फतेहपुर और अर्की सीटें पहले से कांग्रेस के पास थी, पार्टी उसको बरकरार रखने में सफल रही.
सबसे बड़ी आश्चर्यजनक कि बात यह है कि हिमाचल के विधायक और मंत्री रहे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के होते हुए इस प्रकार के चुनावी नतीजे निस्संदेह बीजेपी के लिए चिंताजनक हैं. क्या बीजेपी अपनी जमीनी पकड़ खो रही है? क्या 'मोदी मैजिक' काम करना बंद कर दिया है या विपक्ष मजबूत हो गया है? इन तीनों प्रश्नों का जवाब 'ना' है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बीजेपी की सत्ता निष्कंटक या संकट मुक्त हो गई है.
आम जनता से बीजेपी का दूरीयां बढ़ रही हैं. कभी अपनी पार्टी कहलाने वाली बीजेपी अब 'शाही पार्टी' बन गई है. चाटुकारों से घिरे बीजेपी को आत्ममंथन की आवश्यकता है. लोगों का मानना है कि, भारत को 'विश्व गुरु' के आसन पर बिठाने की एकमात्र क्षमता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के पास ही है.
सत्ता के लिए राजनीति और सत्ता में बने रहने की राजनीति में अंतर है
राजनीति की गति और प्रकृति समय के साथ बदलती रहती है. सत्ता की राजनीति और सत्ता में बने रहने की राजनीति में अंतर है. जब आप विपक्ष में होते हैं तो सत्ता के लिए राजनीति करते हैं, लेकिन जब आप सत्ता में होते हैं तो सत्ता में बने रहने के लिए राजनीति करते हैं. विपक्ष की राजनीति में जितनी स्वतंत्रता है, उतनी ही पाबंदियां सत्ता में बने रहने की राजनीति में हैं. जहां विपक्ष अधिकारों की बात करता है, वहीं सत्तासीन सरकार नियमों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से बंधी होती है.
लोकतंत्र में सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी तथा जवाबदेह होती है. संसद में संख्या गरिष्ठ का मतलब है देश के लाखों-करोड़ों लोगों की आस्था, आशा और सपनों के लिए जिम्मेदार होना. लेकिन, विपक्ष में रहते हुए किया गया हर चुनावी वादा, सत्ता में आते ही सत्ता में बने रहने की लालसा, भाई-भतीजा वाद और महत्वाकांक्षा के साथ-साथ नियमों में जकड़ जाता है. जिसके परिणाम, जनता और सरकार के बीच दूरीयां बढ़ जाती हैं.
महंगाई नहीं, कार्यकर्ताओं में फैला असंतोष बीजेपी के लिये एक चेतावनी
विपक्ष, खासकर कांग्रेस ने उपचुनाव में 'महंगाई' को लेकर जोर-शोर से प्रचार किया. विपक्ष का दबाव काम आया. कांग्रेस को चुनाव में अच्छे परिणाम मिले. बीजेपी को भी यह लगने लगा कि 2022 की चुनाव में 'महंगाई' एक बड़ा मुद्दा बन सकता है. रातों-रात दीपावली गिफ्ट के नाम पर पेट्रोल-डीजल की कीमतें घटाई गईं. जनता को थोड़ी राहत मिली. कांग्रेस अपना विपक्षी धर्म निभाने में कामयाब रही.
वास्तविकता यह है कि, हिमाचल के निर्वाचन में महंगाई कोई मुद्दा नहीं था. बीजेपी के जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं में फैला असंतोष इसका एक प्रमुख कारण रहा. यह असंतोष देश भर में फैले बीजेपी कार्यकर्ताओं में देखा जा सकता है. जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं में नेता बनने की प्रतिस्पर्धा ने बीजेपी को जनता से दूर कर दिया है. संस्कार की राजनीति की बात करने वाले नेताओं में 'जी-हुजूर' की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. जनता अंदर ही अंदर बीजेपी से दूरियां बढ़ा रही है. बीजेपी के लिए यह चिंता का विषय है.
विपक्ष के हाथ कोई मुद्दा नहीं है
महंगाई, पेगासस, नया कृषि विधेयक विपक्ष के लिए चुनावी मुद्दा हो सकता है, लेकिन बीजेपी सरकार के लिए यह एक नियंत्रित मुद्दा है, जिसे बीजेपी सरकार कभी भी सुलझाने की क्षमता रखती है. बीजेपी को घेरने के लिए अभी तक कोई भी बड़ा मुद्दा विपक्ष के हाथ में नहीं है. विपक्ष अभी भी विभाजित है. बीजेपी को घेरने के लिए 'महागठबंधन', विपक्ष के लिए एक विचार मात्र है. उपचुनावों के नतीजों से उत्साहित कांग्रेस को आगामी चुनावों के लिए चुनावी मुद्दों को खोजने के लिए एक लंबा सफर तय करना होगा.
बीजेपी को 'आत्मस्तुति' त्यागना होगा
उपचुनाव में, महामारी के दौरान मोदी सरकार द्वारा टीकाकरण और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए अभूतपूर्व कार्यों का लाभ उठाने में बीजेपी असमर्थ रही. बीजेपी के प्रचार तंत्र में, बीजेपी सरकार द्वारा किए गए कार्य की गरिमामय व्याख्यान के बदले बीजेपी की भव्य पूर्ण 'आत्मस्तुति' कि भरमार है, जिसकी भाषा और शैली बीजेपी कि दंभ और अहं को दर्शाती है. बीजेपी को ढोल पीटने की राजनीति को छोड़ने कि आवश्यकता है, क्योंकि आज भी देश कि राजनीति के केंद्र बिंदु में रहे आम जनता, भव्यता से ज्यादा सत्य ओर सादगी को सरलता से अपनाती है. आज भी देश की जनता सहज, सरल और सहानुभूतिशील है, और यही वोट की शक्ति है.
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