जातीय समीकरण बिगड़ने की स्थिति में चुप्पी साधने के अलावा मायावती के पास क्या कोई और रास्ता बचा है?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Election) के दौरान जिस तरह से मायावती (Mayawati) ने अपने आप को रहस्यमय तरीके से किनारे कर लिया

Update: 2022-03-11 16:23 GMT

चंद्रकांत नायडू

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Election) के दौरान जिस तरह से मायावती (Mayawati) ने अपने आप को रहस्यमय तरीके से किनारे कर लिया, इससे कई तरह के सवाल खड़े होने लगे. सात चरणों के चुनाव अभियान के दौरान केवल 18 रैलियों के जरिए उन्होंने राज्य में सार्वजनिक रूप से बेहद कम उपस्थिति दर्ज कराई. जबकि इसी राज्य ने उन्हें चार बार सत्ता में स्थापित किया था. उत्तर प्रदेश के गठन के बाद से 21 अन्य मुख्यमंत्रियों में से किसी को भी यह सौभाग्य नहीं मिला है.
यूपी में सबसे ज्यादा 209 रोड शो कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने किए जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 203 रोड शो किए. ये दोनों नेता राज्य में सबसे अधिक दिखाई देने वाले प्रचारक थे. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव 117 रैलियों के साथ मायावती से काफी आगे थे. इसे मायावती की उदासीनता, अविश्वास और बीजेपी की प्रतिशोधी रणनीति के तौर पर देखा जाना तय था. वे राज्य में योगी आदित्यनाथ सरकार की आलोचना करती रही हैं. लेकिन उन पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के प्रति श्रद्धा रखने का भी आरोप लगाया जाता रहा है. 2017 के चुनावों के दौरान शाह ने प्रमुख रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए बीजेपी के सभी प्रतिद्वंद्वियों को बौना साबित कर दिया था.
इन सवालों के नहीं मिले जवाब
क्या एग्जिट पोल से शुरू हुई बहस के आलोक में अब चुनाव परिणामों के बाद मायावती की सियासी क्षमता को नकार देना चाहिए?
क्या यूपी में सांप्रदायिक और जातिगत राजनीति के सबसे अशांत दौर में शांत रहकर उन्होंने दलित हितों से समझौता किया है?
क्या बीजेपी ने सीबीआई (CBI), एनआईए (NIA) और प्रवर्तन निदेशालय (ED) का डर उनके दिमाग में डाल लिया है?
क्या उन्होंने दलित नेतृत्व को चंद्रशेखर आज़ाद या उदित राज जैसे युवा या अधिक आक्रामक नेताओं को सौंप दिया है?
क्या उनकी पार्टी त्रिशंकु जनादेश की स्थिति में भाजपा का साथ देती?
क्या मायावती का जादू खत्म हो गया है?
चुनावी नब्ज टटोलने वाले एक्जिट पोल में मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी (Bahujan Samajwadi Party) के लिए 20 से कम सीटों का अनुमान लगाया गया था. हालांकि पार्टी को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा है. पश्चिम बंगाल में पिछले साल के अनुभव से पता चलता है कि निहित स्वार्थों से प्रायोजित एग्जिट पोल पर हमेशा भरोसा नहीं किया जा सकता था. फिर भी यदि मायावती और उनकी पार्टी के भविष्य पर सवाल किए जाते हैं तो उसकी बड़ी वजह है ग्राउंड लेवल पर बसपा के वोट में भारी गिरावट. सत्ता में रहते हुए भाजपा की दरियादिली के कारण दलित समर्थन में इजाफ़ा भी एक कारण हो सकता है. ऐसा लगता है जैसे किसी ज़माने में जातीय समीकरण साधने में अव्वल रही बसपा को अब कुछ सूझ नहीं रहा हो.
पिछड़ों के लिए आरक्षित 85 सीटों पर बीजेपी ने अच्छा प्रदर्शन किया. बीजेपी को 1991 में 50 सीटें; 1993 में 33 और 1996 में 36 सीटें मिली. लेकिन 2017 में यह 67 सीटों के साथ सत्ता में आई. दूसरी तरफ बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2007 में 85 आरक्षित सीटों में से 62 था, जब उसने अपने दम पर सत्ता हासिल की थी. जाति और सांप्रदायिक समीकरण में गज़ब की ताकत है. यह किसी पार्टी को सत्ता पर आसीन कर सकती है. योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषणों और कार्यों में जिस तरह से मुस्लिम समुदाय के प्रति बेपरवाह तरीके से घृणा का प्रदर्शन किया, उसके बाद मायावती के साथ रहने वाले मुसलमान समाजवादी खेमे में चले गए.
कहां गई बसपा की सोशल इंजीनियरिंग?
मायावती की बेरुखी से उनके समर्थन में कमी आई है. मुलायम सिंह की पार्टी द्वारा बदसलूकी किए जाने पर ब्राह्मण समुदाय ने मायावती का साथ दिया. लेकिन इधर योगी सरकार द्वारा बेशर्मी से निशाना बनाए जाने के बाद ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी की ओर रुख किया. मायावती के समर्थकों का कहना है कि 22.4 प्रतिशत वोट, जिसे बसपा ने पार्टी की हालत खराब होने के बावजूद 2017 में बरकरार रखा था, बरकरार है और उन्हें भाजपा या किसी अन्य समूह के सामने झुकने की जरूरत नहीं है. अगर मायावती भी ऐसा मानती हैं तो उनका अति आत्मविश्वास आत्म-विनाशकारी हो सकता है. मायावती सभी पिछड़े और दलित वर्ग की निर्विवाद नेता नहीं है. यहां तक कि अपने सबसे प्रभावशाली दौर में भी वह मध्य प्रदेश में कोई बड़ा असर नहीं डाल पाईं. उनकी पार्टी ने राज्य की सभी 300 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा था. वह सोशल इंजीनियरिंग के लिए काम करने के लिए ब्राह्मणों या अन्य लोगों के साथ गठबंधन कर सकती थीं, लेकिन ऐसा नहीं किया.
जब बसपा ने सत्ता विरोधी लहर का लाभ उठाया
2007 में मायावती के सत्ता में आने का श्रेय उस सोशल इंजीनियरिंग को दिया गया, जिसे उन्होंने ब्राह्मणों के समर्थन से लाया था. हालांकि कुछ ही लोग इस बात को मानते हैं. राज्य की सत्ता में उनकी बारी आने का मुख्य कारण था – मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर. पुलिस और नागरिक प्रशासन के ज़बरदस्त यादवीकरण और अभूतपूर्व भ्रष्टाचार ने जनता के बीच बदलाव का मूड बनाया और मायावती को इस स्थिति से फायदा हुआ. उनके प्रमुख सलाहकार सतीश चंद्र मिश्रा और उनके परिवारजनों को ब्राह्मण-दलित गठबंधन का सबसे बड़ा लाभार्थी बताया गया. 2007 में 30 प्रतिशत वोट के साथ सत्ता में आने पर उनके समर्थकों ने उन्हें संभावित प्रधानमंत्री उम्मीदवार के तौर पर प्रोजेक्ट किया. वह इसे सही मानने लगीं और चाटुकारिता पसंद करने लगीं.
विडंबना यह है कि मायावती ने नायक-पूजा के खिलाफ अंबेडकर की चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया. नवंबर 1949 में संविधान सभा के समक्ष अपने अंतिम भाषण में अम्बेडकर ने नेताओं में विशाल शक्तियों का समावेश करने और अपने निर्णयों को बिना आलोचना के स्वीकार करने के प्रति आगाह किया था. उनका मानना था कि इससे तानाशाही बढ़ सकती है. उन्होंने कहा कि जहां धर्म में भक्ति मोक्ष का मार्ग हो सकती है, वहीं राजनीति में भक्ति तानाशाही की ओर ले जा सकती है.
पार्टी विचारधारा से भटकाव या मुद्दों से समझौता?
मायावती के शासनकाल को तानाशाही के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है, लेकिन उन्होंने सत्ता को केंद्रीकृत किया और संभावित विजेताओं को कथित तौर पर पार्टी के टिकट बेचे. उन्होंने छुआछूत जैसे मुख्य मुद्दों पर समझौता किया और ब्राह्मणों को खुश करने के लिए दलितों के खिलाफ अत्याचार पर कानून के इस्तेमाल से परहेज किया. 2007 के चुनावों से पहले उन्होंने एक इंटरव्यू में साफ तौर पर बताया कि उनकी पार्टी ने बड़े व्यापारिक घरानों के दबाव से बचने के लिए संभावित उम्मीदवारों से पैसे लिए.
हालांकि इससे यह धारणा बनी कि निर्वाचित सार्वजनिक पदों के माध्यम से सशक्तिकरण के लिए आर्थिक रूप से कमजोर दलित उनकी प्राथमिकता नहीं थे. ठीक-ठाक आर्थिक स्थिति वाले कई अन्य दलित चेहरों ने महसूस किया कि योग्यता और वफादारी के बावजूद पार्टी उन्हें दरकिनार कर रही है. उन्होंने चुनाव में गैर-दलितों को मैदान में उतारने को प्राथमिकता दी. दलित नौकरशाहों ने उनका विश्वास अर्जित किया, लेकिन उनमें से अधिकांश ने अन्य पार्टियों में आकर्षक पद मिलने के बाद उन्हें छोड़ दिया है. वे मायावती पर उनके गुरु और बसपा के संस्थापक कांशीराम की विचारधारा से भटकने का आरोप लगाते हैं.
क्या मायावती का जादू फिर कभी चल पाएगा
बसपा शासन के दौरान मुख्यमंत्री के पूर्व प्रधान सचिव फतेह बहादुर सिंह हाल ही में समाजवादी पार्टी में शामिल हुए. उन्होंने बसपा द्वारा लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी का नेतृत्व ब्राह्मणों को सौंपे जाने पर आपत्ति जताई थी. एक अन्य पूर्व आईएएस अधिकारी पीएल पुनिया काफी समय से कांग्रेस के साथ हैं. उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक बृजलाल को भाजपा ने अपने दलित प्रतिनिधि के रूप में आसानी से अपना लिया है. इस तरह मायावती ने अपने अदूरदर्शी फैसलों से अपनी ही छवि खराब होने दी है. जब मायावती सत्ता के शिखर पर थीं तब राज्य के अधिकांश हिस्सों में जातिगत समीकरणों पर पकड़ उनकी सबसे बड़ी ताकत थी और सभी आंकड़े उनके पक्ष में थे.
लगता है वह चिंगारी कहीं गायब हो गई है. अब वह दौड़ में काफी पिछड़ चुकी हैं. शिक्षित दलितों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति अधिक जागरूकता है. पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी के उदय पर मायावती की ठंडी प्रतिक्रिया भी उनके कुछ समर्थकों को अच्छी नहीं लगी. अभी भी जाटव समुदाय के मतदाता मायावती के साथ हैं. मायावती का जादू भले ही खत्म होता नज़र आ रहा है लेकिन अभी भी लोग उनसे वापसी की उम्मीद करते हैं. चुनावी लाभ के मामले में वह काफी पीछे हैं, लेकिन इससे वह अप्रासंगिक नहीं हो जातीं.
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