क्या चरखे वाला भारत बुलडोज़र वाले भारत में बदल रहा है?
पहले खरगौन में बुलडोज़र चले और फिर दिल्ली में. दोनों जगह हुई हिंसा के बाद सरकार ने ये स्तब्ध करने वाली कार्रवाई की
प्रियदर्शन,
पहले खरगौन में बुलडोज़र चले और फिर दिल्ली में. दोनों जगह हुई हिंसा के बाद सरकार ने ये स्तब्ध करने वाली कार्रवाई की. तर्क दिया कि वह बस अतिक्रमण हटा रही है. दोनों जगह मुसलमानों के घर ढहाए गए. बीजेपी ने यह छुपाने की कोशिश तक नहीं की कि यह उन लोगों को दी गई सज़ा है जो उसकी नज़र में हिंसा के गुनहगार हैं. यह इस बात का उदाहरण है कि सरकारी व्यवस्था मौक़े, ज़रूरत, विचारधारा या दबाव में अपने ही नागरिकों के साथ किस हद तक निर्मम हो सकती है
न अतिक्रमण इस देश में नई चीज़ है और न अतिक्रमण हटाने पर होने वाली कार्रवाइयां. नई बात यह है कि पहले अतिक्रमण हटाने वाले अभियानों की मार सिर्फ़ गरीब झेलते थे, अब पहली बार बाक़ायदा एक समुदाय को इसके लिए चिह्नित किया गया. यह हिंदूवादी विकास की राजनीति का पहला चरण है.
सरकार ने इसके लिए जो तर्क चुना है, वह डरावना है. दिल्ली नगर निगम का कहना है कि वह बिना नोटिस के किसी भी अवैध निर्माण को उजाड़ सकता है. ध्यान से देखें तो आधी से ज़्यादा दिल्ली अवैध निर्माण की शिकार है. अमीर अपनी कोठियों के बाहर सड़क का हिस्सा क़ब्ज़ाए बैठे हैं और उसके बाहर चौबीस घंटे सड़क पर उनकी गाड़ियां खड़ी रहती हैं. दक्षिणी दिल्ली की कई कॉलोनियों में इस अदृश्य घुसपैठ और चलंत अतिक्रमण के कारण गाड़ी बैक करना लगभग नामुमकिन सा होता है. वहां इस मुद्दे पर पड़ोसियों के बीच टकराव और तकरार की ख़बरें आती रहती हैं. सैनिक फॉर्म जैसी कई बस्तियां तो बिल्कुल अवैध ज़मीन पर बसी हैं जहां किसी कार्रवाई की कोई कल्पना नहीं कर सकता. दरअसल यह अतिक्रमण नगर निगम के किसी अधिकारी को, किसी नेता को, दिखाई नहीं पड़ता. बल्कि वह उनके लिए फायदेमंद है. क्योंकि इस अतिक्रमण को अनदेखा करने की भी एक क़ीमत होती है जो बहुत सारे लोगों को अदा की जाती है.
अतिक्रमण इस देश र दिल्ली में उन लोगों का टूटता है जो सबसे कम साधनों पर हमारे सबसे ज़रूरी काम निबटाते हैं. हमारे घरों में सुबह अख़बार फेंकने वाले, हमारी गाड़ियां साफ़ करने वाले, हमारा कूड़ा उठाने वाले, हमारे कपड़ों पर इस्त्री करने वाले, हमारे लिए फल-सब्ज़ियां लाने वाले, हमारे घरों में सहायक की तरह अपनी सेवाएं देने वाले, हमारे घर बनाने वाले, उन्हें रंगने वाले- ये सब लोग न हों तो दिल्ली बिल्कुल बैठ जाए- रहने लायक न बचे. कभी इनकी बस्तियों और इनके घरों में जाकर देखिए- वे कितने कम साधनों में रहते हैं. कभी उनसे कागज़ मांगिए, उनके पास कुछ नहीं मिलेगा. वे हर साल- कई बार तो महीनों में ही- उजड़ने को अभिशप्त हैं. कभी उनकी बस्तियों में आग लग जाती है तो कभी उन पर बुलडोज़र चढ़ा दिया जाता है.
लेकिन जहांगीरपुरी की कहानी तो इन आप्रवासी मज़दूरों की फौरी झुग्गी-झोंपड़ियों की कहानी भी नहीं है. वहां बरसों से नहीं, दशकों से लोग रहते आए हैं. यहां उनके घर हैं, उनके पूजास्थल हैं, छोटा-मोटा ही सही, उनका कारोबार है और यह आश्वस्ति है कि भारत के नागरिक के रूप में वे देश की राजधानी में रहते हैं. इस आश्वस्ति की वजह से कई बार वह उद्धत नागरिक भाव उनमें भी जाग पड़ता है जो भारतीय लोकतंत्र का स्वभाव बन चुका है. लापरवाह अतिक्रमण, सरकारी ज़मीन पर दुकान या रेहड़ी लगाना या ऐसे कई छोटे-छोटे काम वे कर गुज़रते हैं जिनकी कानूनन वैधता नहीं होती.
लेकिन कोई लोकतांत्रिक समाज सिर्फ़ क़ानून के डंडे से नहीं चलता. चल नहीं सकता. जो लोग कानून की लाठी से समाज को हांकना चाहते हैं, वे दरअसल लोकतांत्रिक नहीं, तानाशाह प्रवृत्तियों के लोग होते हैं. और अक्सर क़ानून का इस्तेमाल वे अपने और अपने लोगों के पक्ष में करते हैं.
अतिक्रमण के सवाल पर लौटें. इस देश में सबसे ज़्यादा अतिक्रमण देवताओं और धार्मिक स्थलों के नाम पर किया गया है. बीस साल पहले दिल्ली-एनसीआर के गाज़ियाबाद इलाक़े की जिस बस्ती वसुंधरा में मैं रहने आया, वह सन्नाटे में डूबा इलाक़ा था. पीछे एक बहुत पतली सी गली थी जिससे लगे ऊबड़-खाबड़ ज़मीन के टुकड़े के पार हिंडन नहर बहा करती थी. लेकिन हमारे देखते-देखते इस सड़क पर तीन मंदिर बन गए. ये सारे मंदिर 'अत्यंत प्राचीन मंदिर' हैं. इनके अलावा एक साईं बाबा का मंदिर बन चुका है, हिंडन नहर के पार एक चर्च, एक गुरुद्वारा सब बन चुके हैं. यह कहना ठीक नहीं होगा कि ये ये सबके सब अवैध निर्माण हैं लेकिन जो शुरुआती मंदिर हैं, वह कहीं से इस आवासीय योजना का हिस्सा नहीं थे. इसी तरह कई सोसाइटीज़ में भी नागरिकों की पहल पर मंदिर बन चुके हैं जिन पर किसी को एतराज़ नहीं है.
दरअसल जो लोग बहुत सख़्ती से क़ानून पर अमल की बात करते हैं, वे क़ानून का अपने ढंग और अपनी मर्ज़ी से खूब इस्तेमाल करते हैं. उनको पता है कि कब किसे मुजरिम ठहराना है और कब किसे बेगुनाह बताना है. मुझे हरिशंकर परसाई याद आते हैं जिन्होंने अपने व्यंग्य में हनुमान जी को बार-बार किरदार बनाया है. हनुमान जी के बहाने वे सामाजिक पाखंड पर बहुत तीखी टिप्पणियां करते हैं. शायद यह उन्होंने ही कहीं लिखा था कि मंदिरों के नाम पर इस देश में सबसे ज़्यादा अवैध क़ब्ज़ा हुआ है. उनके एक व्यंग्य में हनुमान जी ईडी के निदेशक बना दिए गए हैं, लेकिन एक अन्य व्यंग्य में पुलिस उन्हें गहने चुराने के आरोप में तीन साल की सज़ा दिलवा देती है. न राम बचा पाते हैं और न सीता. 'इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर' में इंस्पेक्टर मातादीन चांद के थानों में हनुमान की मूर्ति रखवाता है और पुलिसिया कार्रवाई के गुर बताता है.
हरिशंकर परसाई क़रीब तीन दशक पहले गुज़र गए थे. वे फ़ासीवाद के बहुत सारे रूपों को पहचानते थे और उन पर चोट भी करते थे. लेकिन उन्होंने सोचा नहीं होगा कि जिस पुलिस राज का वे मज़ाक उड़ाते रहे हैं, वह भयावह बुलडोज़र राज में बदल जाएगा और उत्तर प्रदेश-मध्य प्रदेश से लेकर दिल्ली तक अतिक्रमण हटाने के नाम पर दमन के नए औज़ार में बदल जाएगा. डराने वाली बात यह है कि इस बुलडोज़र को शांति और विकास के नए प्रतीक की तरह पेश किया जा रहा है. भारत के दो दिन के दौरे पर आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने पहले साबरमती आश्रम जाकर चरखा चलाने का कर्मकांड किया और उसके बाद बुलडोज़र फैक्टरी पहुंच कर जेसीबी पर सवार हो गए. क्या ये चरखे वाले भारत का बुलडोजर वाले भारत में बदलने की कोशिश है? और क्या चरखे वाले भारत के पास प्रतिरोध का वह साहस बचा है जो इसे बुलडोज़र भारत बनने से रोक सके?