कांग्रेस में आत्म चिन्तन

भारत की अवधारणा का मूल मन्त्र सामूहिक स्वरूप में इसके उत्थान से ही जुड़ा रहा है जिसकी असली वजह इसकी विविधीकृत सांस्कृतिक धारा रही है। इसके अंतर्गत एक–दूसरे के मत को सम्मान देते हए सामूहिक रूप से एकमेव भाव की अभिव्यक्ति रही है।

Update: 2022-05-15 03:51 GMT

आदित्य चोपड़ा; भारत की अवधारणा का मूल मन्त्र सामूहिक स्वरूप में इसके उत्थान से ही जुड़ा रहा है जिसकी असली वजह इसकी विविधीकृत सांस्कृतिक धारा रही है। इसके अंतर्गत एक–दूसरे के मत को सम्मान देते हए सामूहिक रूप से एकमेव भाव की अभिव्यक्ति रही है। यह बिना किसी सन्देह कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश की स्वतन्त्रता का युद्ध इसी सिद्धान्त को सर्वोपरि रखते हुए लड़ा और अन्तिम क्षण तक कोशिश की कि किसी भी हालत में भारत का विभाजन न हो परन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि भारत को संयुक्त या विभाजित करने का अन्तिम फैसला अंग्रेजों को ही करना था और 1857 की प्रथम स्वतन्त्रता क्रान्ति के बाद से ही उन्होंने भारत को हिन्दू व मुस्लिम राष्ट्रीयताओं में बांटने की रणनीति पर चलना शुरू कर दिया था। कांग्रेस ने अंग्रेजों की इस रणनीति को काटने के भरसक प्रयास किये और हिन्दोस्तान को एक भौगोलिक राष्ट्र ( टेरीटोरियल स्टेट) बनाये रखने के लिए वे सभी प्रयास किये जिनसे इसमें फैले विविध धर्मों , पंथों और मजहबों की हैसियत इसकी एकाकी भारतीय राष्ट्रीता से बाहर परिभाषित न की जाती। कांग्रेस की इस विशाल और लोकमूलक भारतीय राष्ट्रीय परिकल्पना को मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने संकुचित व सीमित करके व्याख्यायित किया और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी के रूप में निरूपित करने की मु​हिम चलाई जिसे अंग्रेज सरकार का पूरा संरक्षण प्राप्त था। इसके बाद हम सभी जानते हैं कि भारत का आधुनिक इतिहास क्या है। 15 अगस्त 1947 भारत का बंटवारा हो गया और पाकिस्तान का निर्माण हो गया। भारत में प. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ और उसके बाद 1952 में पहली बार आम चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस पार्टी भारी बहुमत से जीती और 1967 तक यह क्रम निर्बाध तरीके से चलता रहा। इसके बाद स्व. इदिरा गांधी के नेतृत्व में 1980 के आते–आते कांग्रेस का दो बार विभाजन हुआ और असली कांग्रेस ही रही जिधर श्रीमती इन्दिरा गांधी रहीं। कहने को तो 1991 में केन्द्र में कांग्रेस के ही स्व. पी.वी. नरसिम्हाराव के प्रधानमन्त्री बनने के बाद भी एक बार कांग्रेस और टूटी तथा स्व. नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में प्रथक कांग्रेस का गठन हुआ मगर यह एक 'गुट' ही रहा। इसके बाद कांग्रेस को कभी अपने बूते पर लोकसभा में बहुमत नहीं मिल पाया औऱ वह अन्य सहधर्मी कहे जाने वाले दलों के साथ ही 2004 से 2014 तक सत्ता पर रही जिसके प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह रहे। यह दौर कांग्रेस के लिए सबसे संवेदनशील दौर रहा क्योंकि डा. मनमोहन सिंह मूलतः राजनीतिज्ञ नहीं थे। डा. मनमोहन सिंह सादगी से भरे हुए एक ऐसे सौम्य व सरल शासक थे जिन्हें राजनीतिक पेंचों के लिए अपनी पार्टी के हाई कमान की तरफ देखना पड़ता था। आम जनता में इसका प्रभाव राजनीतिक रूप से नकारात्मक ही रहा क्योंकि कांग्रेस को श्रीमती इदिरा गांधी ने इस तरह बदल डाला था कि वह सत्ता के शीर्ष पद पर बैठे हुए नेता के इशारों पर घूमा करती थी। इस शीर्ष पद अर्थात प्रधानमन्त्री की गद्दी पर बैठा हुआ नेता स्वयंभू माना जाता था जिसकी वजह उसकी अपार लोकप्रियता ही थी। हालांकि इंदिरा जी पहले प. नेहरू भी लोकप्रियता के मामले में शिखर पर थे परन्तु उनकी राजनीति स्वतन्त्रता आन्दोलन की महात्मा गांधी की विरासत से जुड़ी हई थी जिसमें जनतान्त्रिक तरीके से पार्टी के काम का बंटवारा किया जाता था। परन्तु इन्दिरा जी ने इस प्रणाली को उलट दिया और उनका फैसला ही अंतिम माना जाने लगा। स्व. राजीव गांधी के समय में भी यह संगठनामक ढांचा नहीं बदला औऱ कमोबेश इसी तरीके से काम होता रहा। परन्तु 2004 से 2014 के बीच जमीनी राजनीतिक परिस्थितियां भी बदल चुकी थीं। विपक्ष में बैठी भारतीय जनता पार्टी ने उसी कांग्रेस को जिसे स्वतन्त्रता आन्दोलन के काल में हिन्दू राष्ट्रीय पार्टी कहा जाता था, लगभग मुस्लिम परस्त पार्टी के रूप में स्थापित करना शुरू किया। इसमें भाजपा को सफलता मिलती गई। इसी का खामियाजा कांग्रेस आज तक भुगत रही है। दूसरे कांग्रेस पार्टी से ही जिस तरह पलायन दूसरी पार्टियों खासकर भाजपा में हुआ है उससे भी जनता के बीच यही छवि रही है कि कांग्रेसी सत्ता के बिना बिलबिलाने लगते हैं। इसमें किसी कांग्रेसी नेता का दोष नहीं है बल्कि स्वयं कांग्रेसियों का ही । अतः श्रीमती सोनिया गांधी का उदयपुर कांग्रेस चिन्तन शिविर में किया गया यह आह्वान पूरी तर समयानुकूल है कि आज आत्म निरीक्षण का समय है और पार्टी का कर्ज उतारने का समय है। प्रत्येक राजनीतिक दल के मार्ग मे संकटों का दौर आता है मगर सच्चा राजनीतिज्ञ वहीं होता है जो संकटों का डट कर मुकाबला करता है। क्योंकि देश को जो लोकतांत्रिक प्रणाली कांग्रेस ने ही इसे सौंपी है उसकी रक्षा और मजबूती के लिए राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी के रूप मे कांग्रेस का मजबूत होना बहुत जरूरी है। 

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