संबोधन में सिमटी आत्मीयता

समाज में रिश्तों के जितने रूप और नाम हैं, उससे हर घर-आंगन कई कृपणताओं के बावजूद आज भी अपने आत्मिक रंग में सराबोर है। भारत में हमारी जीवन पद्धति आज भी अपने चिरकाल की अस्मिता और मर्यादाओं को लेकर निरतंरता में विद्यमान है

Update: 2022-04-15 05:13 GMT

अशोक कुमार: समाज में रिश्तों के जितने रूप और नाम हैं, उससे हर घर-आंगन कई कृपणताओं के बावजूद आज भी अपने आत्मिक रंग में सराबोर है। भारत में हमारी जीवन पद्धति आज भी अपने चिरकाल की अस्मिता और मर्यादाओं को लेकर निरतंरता में विद्यमान है, क्योंकि उनके पास भले बड़े प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थाओं की डिग्री न हो, लेकिन सामाजिक-सह पारिवारिक ताने-बाने को शाश्वत रखने का हुनर और अनुभव आपसी रिश्तों में समन्वय बनाए हुए है। यही सूत्र रिश्तों के प्राणपुंज जैसे व्यावहारिक जीवन में रचते-बसते हैं। अनेक मतभेदों के बाद भी परस्पर सौहार्द की उड़ान ने रिश्तों की डोर में मनभेद को परे रखा है। हालांकि कई कारणों से ग्रामीण जीवन से नगरों की तरफ पलायन हो रहा है।

जमाने से पारिवारिक संबंधों में मां-बाबूजी, चाची-चाचा, दीदी-भाई, बुआ, मौसा-मौसी, नाना-नानी, दादा-दादी जैसे रिश्तों के संबोधन की प्रखर प्रचुरता थी। हालांकि ये संबोधन ग्राम्य जीवन में आज भी पूर्ववत हैं, लेकिन जो परिवार शहरों में जाकर रच-बस गए और वहां की संस्कृति में रम गए, उनकी आज की पीढ़ी में उपर्युक्त रिश्तों के संबोधन में कंजूसी के प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं। मां-बाबूजी की जगह मम्मी-पापा और कई रिश्तों का रूपांतरण अंकल-आंटी के रूप में हो चुका है। कई घरों में यह सुना जा सकता है कि दादी अब 'दादी मां' और नानी 'नानी मां' पुकारा जाना पसंद करती हैं। जबकि पुराने समय के संबोधन आत्मगौरव और प्रसन्नता का तरंग उपस्थित करता था।

नतिनी की तुतली आवाज में 'नाना' के संबोधन से मन हर्ष की सीमा पार कर जाता है, लेकिन अधिकतर घरों में नाना से 'नानू' और नानी से 'नानी मां' आमतौर पर सुना जा सकता है। अपनी पौराणिक परंपरा में रिश्तों के संबोधन में एक ओर आत्मीयता का आभास होता था, जबकि यह विभिन्न उत्तरदायित्वों के क्रमबद्धता से परिचय भी कराता था। संबोधन में हुए परिवर्तन के द्वंद्व-दौर में 'अंकल और आंटी' संबोधन ने विराट रिश्तों की परिधि में अजीब ऊहापोह ला दिया है। चाचा, मौसा, फूफा आदि गरिमापूर्ण रिश्ते सिमट कर औपचारिकता के आंगन में कुम्हला गए हैं। इसी तरह मौसी, बुआ, चाची जैसे संबोधनों के सिकुड़ते जाने से रिश्तों की मिठास में कमी जरूर आई है।

रिश्तों की बदलती भूमिका और स्वरूप पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो स्पष्ट दिखाई देता है कि पश्चिमी संस्कृति ने हमारी जीवन पद्धति के आयामों को प्रभावित किया है। यह समय की मांग है कि किसी भी स्रोत से प्राप्त होने वाली अच्छी चीजों को हम अपने जीवन में अवश्य अपनाएं, मगर अपनी अमूल्य सामाजिक और पारिवारिक विरासत को न भूलें या इसकी मूल संरचना से कोई छेड़छाड़ न करें। संसार में अपना ही एकमात्र देश है, जहां भोजन-व्यंजन, वस्त्र-परिधान, रिश्तों के नाम, सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-नीति की विशाल व्यापकता है।

अब भी मानस पटल पर वे स्मृति अंश जीवंत हैं कि बचपन में गर्मी की छुट्टी में 'नानी घर' जाने का कौतूहल कई दिनों पहले ही मन को तरंगित किए रहता था। वहां जाने पर हमउम्र बच्चों की टोली में नदी में नहाना, बगीचे में टिकोले तोड़ना, शाम को कबड्डी खेलना और रात में नानी से कहानी सुनते हुए सोना आपस में बांधे रखता था। मां की डांट-फटकार से बचाव के लिए नानी, मौसी की रक्षा पंक्ति सदैव तैयार रहने से मन कभी भारी नहीं होता था और उन्मुक्त मन नटखटपन की सीमा तोड़ दिया करता था।

भारी बस्ते के बोझ और संयुक्त परिवार के एकल परिवार में परिणत हो जाने से अब 'नानी घर' के अस्तित्व में ग्रहण लग गया है। सांसारिक रीति-रिवाजों के संचालन में सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना रिश्तों को मजबूती प्रदान करते थे। शादी-विवाह या अन्य आकस्मिक घटनाओं में रिश्तों के समूह की उपस्थिति से सभी प्रकार की सहायता के सूत्र जुट जाया करते थे। पीड़ित परिवार अपने ईद-गिर्द एकत्रित समूह में संजीवनी शक्ति अनुभव करते थे। रिश्तों में स्वत:स्फूर्त परस्पर सहयोग आज कृत्रिमता के करुण क्रंदन में लिप्त दिखता है।

मोबाइल संस्कृति ने आभासी दुनिया के हर क्षेत्र में जितनी अपनी पैठ बना ली है, उससे व्यक्ति आत्मकेंद्रित भाव में मुदित है। सुख-दुख में मिलना-जुलना और निरंतर बातें करते रहने से व्यक्ति मानसिक रूप से राहत महसूस करता था। चिट्ठी-पत्री लेखन अब अतीत की वस्तु हो गया है, जबकि इसके माध्यम से कभी अपनों का अपने से दूर रह कर भी समीपता का बोध कराता था। अब तो फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाट्सऐप आदि ने रिश्तों में असमंजस ला दिया है, जहां अपनत्व के दिखावे वाले भाव ने हमें अपनत्व के आंगन से दूर कर रखा है।

उपाय यही दिखता है कि सर्वस्व क्षीण होते सामाजिक रिश्तों की कड़ियों को हम जितना बचा सकें, वही उचित है। टूटे तारों को फिर से वापसी के चक्कर में जो बचा है, कम से कम उसे फिसलने न दें। बिखरते, दरकते, टूटते, तड़पते रिश्तोंं में टूट रोकने के सभी प्रकार के यत्न हमें करने चाहिए, ताकि भावी संतति के जीवनयापन में मर्म का प्रवाह बना रहे।


Tags:    

Similar News

-->