अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022: लैंगिक समानता का दंभ भरती फिल्मों का यथार्थ

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022

Update: 2022-03-08 05:59 GMT
चेतना शुक्ला।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर जब हम महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक क्षेत्रों में योगदान और संघर्ष का उसत्व मनाते हैं तो साथ ही हमें हिंदी साहित्य और सिनेमा का जेंडर की दृष्टि से पुनर्पाठ करने की भी आवश्यकता है। साहित्य और सिनेमा मात्र मनोरंजन नहीं करता बल्कि उस समय-काल की विचारधारा का परिचय व उसकी स्थापना भी करता है। अत: हमें आवश्यकता है कि हम महिलाओं की बदल रही छवि की सचेत पड़ताल करें कि कहीं जेंडर समानता की आड़ में पितृसत्तात्मक मूल्यों की पुनःस्थापना तो नहीं कर रही है।
ज्ञान और संचार के विभिन्न माध्यमों पर हमेशा से ही पितृसत्तात्मक विचारधारा का ही वर्चस्व रहा है, फिर चाहे सामाजिक मानसिकता की बात हो या कला या मीडिया की। जहां एक ओर हिंदी साहित्य महिलाओं के साहित्य को निजता की अभिव्यक्ति कह कर पुरुषों के बरक्स रखते हुए सिरे से खारिज करने का प्रयास करता है तो वहीं मीडिया और हिंदी सिनेमा महिलाओं की लाख उपलब्धियों के बाद भी जब उनके बारे में बात करता है तो उन्हें पारिवारिक संबंधों के आधार पर ही संबोधित करता है जैसे - बेटी, पत्नी, मां इत्यादि।
ऐसा सिर्फ प्रिंट और विज़ुअल मीडिया ही नहीं करते बल्कि हिंदी सिनेमा भी जब कभी किसी विख्यात महिला की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, कलात्मक या शैक्षिणिक उपलब्धियों को लेकर फिल्में बनता है ऐसे में उसके भी केंद्र में उस महिला की उपलब्धियां नहीं अपितु उसके परिवारिक संबंध होते हैं।
ऐसा दिखाते हुए पितृसत्तात्मक रूढ़िवादी विचारधारा की ही स्थापना की जा रही होती है कि महिलाएं अपनी नागिरक जिम्मेदारी निभाते हुए भी परिवार की जिम्मेदारी ज्यादा बेहतर निभा सकती हैं।महिलाओं की जेंडरगत भूमिका का इतना ज्यादा महिमा मंडन कर दिया जाता है कि जब कभी वह घर बाहर की भूमिका में समजस्य नहीं बैठा पाती तो स्वयं आत्मग्लानि व अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हैं।
जब पुरुषों की उपलब्धियों से प्रभावित फिल्में बनाई जाती हैं तो उनमें भी जेंडरगत भूमिकाओं पर चर्चा की जाती है किंतु पटकथा के केंद्र में पुरुषों की उपलब्धियां एवं योगदान ही होते हैं। पटकथा की भूमिका तैयार करने के लिए उसके पारिवारिक जीवन की भी चर्चा कर दी जाती है। परतुं उस किरदार को उसके सामाजिक योगदान के आधार पर परखा जाता है ना कि पारिवारिक योगदान के आधार पर।
इसी संबंध में हाल ही में आई शकुंतला देवी फिल्म की बात करें तो हम देखते हैं कि शकुंतला देवी विश्वविख्यात गणितज्ञ थीं। उनकी गणना क्षमता की दक्षता के कारण उन्हें मानव कम्प्यूटर की उपाधी मिली थी साथ ही वह लेखिका और ज्योतिषी भी थीं किंतु शंकुतला देवी फिल्म के केंद्र में उनकी यह उपलब्धियां नहीं अपितु उनके परिवारिक जीवन को केंद्र में रखा गया है।
फिल्म में दर्शाया गया है कि उनके, उनकी बेटी व अपनी मां के साथ संबंध कैसे थे, इसे दर्शाते हुए सरसरी नजर से उनकी उपलब्धियों पर भी चर्चा कर दी गई है क्योंकि उस पर बात किए बिना उनकी कहानी पूरी नहीं हो सकती थी।
जबकि शकुंतला देवी ने उस क्षेत्र में ख्याति अर्जित की थी, जिसे महिलाओं के लिए वर्जित माना जाता था यानि गणना का क्षेत्र। उनसे पूर्व या अभी भी इस क्षेत्र पर पुरुष का वर्चस्व कायम है और महिलाओं का गणित की समझ को लेकर मजाक बनया जाता है।
शकुंतला देवी मात्र अपने उपलब्धियों में ही नहीं अपितु अपने व्यक्तित्व में भी क्रांतिकारी महिला थीं जो उनके बचपन के डायलॉग से चरितार्थ हो जाता है जब उनकी मां पिता के कहने पर उन्हें बुलानी आती हैं और 'उनके न सुनने पर कहती हैं कि पिता घर के मालिक हैं उनकी बात को ऐसे अनसुना नहीं करते तब शकुंतला जवाब देती हैं कि यह घर तो मेरे कमाए पैसों से चलता है और जो घर चलता है वही घर का मालिक होता है तो मालिक तो मैं हुई।
मीडिया व फिल्मों ने जिस रूप में महिलाओं को चित्रित किया उससे इतर पुरुषों को प्रदर्शित करने की दृष्टि रखी...
यह पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़िवादी सोच पर तमाचा था जिसकी मान्यता है कि पुरुष ही घर का मालिक होता है फिर कमाई करता हो या न हो। इसी प्रकार जब उनकी बहन उन्हें शुभकामना देते हुए कहती है 'एक दिन बहुत बड़ी आदमी बनना' तब वो कहती हैं 'मैं बहुत बड़ी औरत बनुंगी'।
फिल्म का यह संवाद हिंदी भाषा के पक्षपात को दर्शाता है कि कैसे भाषा ने यह कल्पना ही नहीं की कि महिलाएं भी कभी कामयाब हो सकती हैं। उनकी उपलब्धियों व योगदान को परिभाषित करने लायक विशेषण तक नहीं गढ़े गए।
मीडिया व फिल्मों ने जिस रूप में महिलाओं को चित्रित किया उससे इतर पुरुषों को प्रदर्शित करने की दृष्टि रखी। जब भी कभी हम किसी विख्यात पुरुष की जीवन पर बनी फिल्म को देखते हैं तो पाते हैं कि फिल्मों में उनके जीवन की उपलब्धियों व योगदान को प्राथमिकता दी जाती है।
इस सिलसिले में यदि हम मंटो फिल्म की बात करें तो हम देखेंगे कि मंटो एक साहित्यकार थे। फिल्म में उनकी कहानियों व उस समय में उनकी कहानियों के कारण उन्हें जिन मुश्किलों का समना करना पड़ता है फिल्म की पटकथा उसी के इर्द-गिर्द घूमती है और साथ ही थोड़ा बहुत उनके परिवारिक जीवन को भी दिखा दिया जाता है।
अब यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या महिलाओं को संबंधों के परे नहीं देखा जा सकता, क्या उसे भी सिर्फ उसकी उपलब्धियों व योगदान के आधार पर नहीं समझा जा सकता। क्यों महिला के बारे में फिल्म बनाते समय निर्देशक की दृष्टि बदल जाती है, क्यों उसे लग जाता है कि समाज को उसकी उपलब्धियों से नहीं बल्कि उसके संबंधों से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। शायद यही कारण है कि शकुंतला देवी जैसी फिल्म के माध्यम से भी मां के किरदार को ही महिमा मंडित किया गया है।
एक महिला जिसके लिए गणना करना सिर्फ शौक नहीं बल्कि जुनून है और वह उसमें माहिर भी है किन्तु महिला होने के कारण उसे अपनी बेटी या अपने काम में किसी एक को चुनना पड़ता है। जैसा कि समाज में भी व्याप्त है कि महिला की प्राथमिकता उसका परिवार है और महिलाओं के पारिवारिक भूमिकाओं को इस प्रकार से महिमा मंडित किया जाता है कि यदि महिला तथाकथित भूमिकाएं उस रूप में नहीं निभा पाए तो वह स्वयं ही आत्मग्लानी से ग्रसित हो जाती है।
शकुंतला फिल्म में भी शकुंतला पूरे फिल्म में बेहतर मां के तमगे के लिए संघर्ष करती रहती है जिसमें उसकी अन्य उपलब्धियां नजर अंदाज होती रहती हैं। पितृसत्तात्मक विचारधारा ने पुरुषों के लिए समाज और महिलाओं के लिए परिवार को प्राथमिकता दी। जिसके कारण पुरुषों के लिए सामाजिक योगदान के बरक्स पारिवारिक जिम्मेदारियों को नगण्य माना गया। पुरुषों से उम्मीद की गई कि समाज कल्याण के लिए परिवार को त्याग देना उनके लिए सामान्य बात हो।
पुरुष कभी समाज के कल्याण के लिए परिवार को त्याग देता है तो कभी अपने व्यसनों के कारण और समाज ने इस मानसिकता को स्वीकृति के साथ बढ़ावा भी दिया है। चूकिं परिवार में बुजुर्गों की सेवा, बच्चों को पालने व घर को व्यवस्थित रखने के लिए कोई तो चाहिए, तो बड़ी ही चालाकी से पितृसत्ता ने महिलाओं के घरेलु काम व भूमिकाओं का महिमा मंडन किया जिससे महिलाएं बिना शिकायत स्वयं मुफ्त में गुलाम बनना स्वीकार कर लें।
आज जहां सिनेमा को सौ साल से भी ज्यादा हो चुके हैं और दुनिया में जेंडर बराबरी का मुद्द अपने उफान पर है ऐसे में महिला प्रधान फिल्मों को चित्रित करते हुए जब उन्हीं रूढ़िवादी मानसिकता का परिचय दिया जाता है तो दुख होता है। सिनेमा को लेकर यह प्रश्न भी उठता है कि जो सिनेमा इतने बड़े तबके को संबोधित कर रहा है वह कैसे अपने लाभ के लिए जेंडर संवेदशीलता का ढोंग करते हुए सामाजिक मान्यताओं को ही पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।
लेखिका, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में स्त्री अध्ययन विभाग मेंं अतिथि अध्यापक हैंं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Tags:    

Similar News

-->