International Day of Forests 2022: धधकते जंगल झुलसता जीवन

आज जंगलों को अंधाधुंध रूप से काटा जा रहा है

Update: 2022-03-21 16:57 GMT
देवेंद्रराज सुथार। आज जंगलों को अंधाधुंध रूप से काटा जा रहा है। लिहाजा मिट्टी में गर्मी, ओजोन परत की कमी आदि में वृद्धि हुई है। हमारी विकास प्रक्रिया ने हजारों लोगों को पानी, जंगल और भूमि से विस्थापित कर दिया है। ऐसे में जंगल की रक्षा करना न केवल हमारा कर्तव्य होना चाहिए, बल्कि हमारा धर्म भी होना चाहिए। उत्तराखंड में पिछले 12 वर्षों में जंगल में आग लगने की 13 हजार से अधिक घटनाएं सामने आई हैं और इनमें हर साल औसतन 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र में वन संपदा जलकर राख हो रही है। आरटीआइ से मिली जानकारी के अनुसार जंगल की आग को बुझाने के लिए केवल समय से बारिश का होना ही एकमात्र कारगर विकल्प है।
जंगल में आग लगने की एक वजह मानव जनित भी है। कई बार ग्रामीण जंगल में जमीन पर गिरी पत्तियों या सूखी घास में आग लगा देते हैं, ताकि उसकी जगह नई घास उग सके। लेकिन आग इस प्रकार फैल जाती है कि वन संपदा को खासा नुकसान होता है। दूसरा कारण चीड़ की पत्तियों में आग का भड़कना भी है। चीड़ की पत्तियां (पिरुल) और छाल से निकलने वाला रसायन, रेजिन बेहद ज्वलनशील होता है। जरा-सी चिंगारी लगते ही आग भड़क जाती है और विकराल रूप ले लेती है। तापमान में थोड़ी बढ़ोतरी मामूली बात लगती है, लेकिन जंगलों के सूखे पत्तों के लिए यह महत्वपूर्ण है। जितनी ज्यादा गर्मी बढ़ेगी, पेड़ों और पत्तियों में से पानी की मात्रा कम होती जाएगी और ये ईंधन का काम करेंगे। सूखी पत्तियों की रगड़ से आग का लगना और फैलना तेजी से होता है। भारतीय वन सर्वेक्षण ने वनाग्नि से हुई वार्षिक वन हानि 440 करोड़ रुपये आंकी है। जंगलों में लगी आग से कई जानवर बेघर हो जाते हैं और नए स्थान की तलाश में वे शहरों की ओर आते हैं। वनों की मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों में भी भारी कमी आती है और उन्हें वापस प्राप्त करने में भी लंबा समय लगता है।
वनाग्नि के परिणामस्वरूप मिट्टी की ऊपरी परत में रासायनिक और भौतिक परिवर्तन होते हैं, जिस कारण भूजल स्तर भी प्रभावित होता है। इससे आदिवासियों और ग्रामीण गरीबों की आजीविका को भी नुकसान पहुंचता है। आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग तीन करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए वन उत्पादों के संग्रह पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं। वनों में लगी आग को बुझाने के लिए काफी अधिक आर्थिक और मानवीय संसाधनों की जरूरत होती है, जिस कारण सरकार को काफी अधिक नुकसान का सामना करना पड़ता है। वनाग्नि से वनों पर आधारित उद्योगों एवं रोजगार की हानि होती है और कई लोगों की आजीविका का साधन प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। इसके अलावा वनों पर आधारित पर्यटन उद्योग को भी खासा नुकसान होता है। वनाग्नि से जलवायु भी प्रभावित होती है। इससे कार्बन डाइआक्साइड तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों का काफी अधिक मात्रा में उत्सर्जन होता है। इसके अलावा वनाग्नि से वे पेड़-पौधे भी नष्ट हो जाते हैं, जो वातावरण से कार्बन डाइआक्साइड को समाप्त करने का कार्य करते हैं।
वर्तमान में अतिशय मानवीय अतिक्रमण ने वनों में लगने वाली आग की बारंबारता को बढ़ाया है। पशुओं को चराना, झूम खेती, बिजली के तारों का वनों से होकर गुजरना आदि ने इन घटनाओं में वृद्धि की है। इसके अतिरिक्त, सरकारी स्तर पर वन संसाधन एवं वनाग्नि के प्रबंधन हेतु तकनीकी प्रशिक्षण का अभाव इसका प्रमुख कारण है। अव्यावहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों के नैसर्गिक अधिकारों को खत्म कर दिया है, लिहाजा ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है। कुछ समय पूर्व खाद्य एवं कृषि संगठन के विशेषज्ञों के दल ने अपनी विस्तृत रिपोर्ट में भारत में जंगल की आग की स्थिति को बेहद चिंताजनक बताया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि आर्थिक और पारिस्थितिकी के नजरिये से जंगल की आग पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता, न ही क्षेत्रीय स्तर पर इस समस्या से निपटने के लिए कोई कार्ययोजना है। जंगल की आग पर आंकड़े बहुत सीमित हैं, साथ ही वे विश्वसनीय नहीं हैं। इसके अलावा, आग की भविष्यवाणी करने की भी कोई व्यवस्था नहीं है तथा इसके खतरे के अनुमान, आग से बचाव और उसकी जानकारी के उपाय भी उपलब्ध नहीं हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि वनों में लगी आग से उन क्षेत्र विशेषों का भौगोलिक, आर्थिक एवं सामाजिक परिवेश व्यापक स्तर पर प्रभावित होता है। अत: इन घटनाओं को न्यूनतम किए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए। आपदा प्रबंधन के समुचित उपायों के साथ-साथ आग के प्रति संवेदनशील वन क्षेत्र एवं मौसम में वनों में मानवीय क्रियाकलापों को बंद या न्यूनतम किया जाना चाहिए तथा संवेदनशील क्षेत्रों में आधुनिकतम तकनीकों से युक्त संसाधनों के साथ पर्याप्त आपदा प्रबंधन बल की तैनाती की जानी चाहिए। जंगल धू-धू कर जलते रहते हैं, वन संपदा खाक हो जाती है और वन विभाग सदैव की तरह मूकदर्शक बनकर असहाय बना बैठा रहता है। यदि वनों में आग लगने के बाद इंद्र देवता की कृपादृष्टि न हो तो न जाने कब तक जंगल धधकते रहें। ऐसे में राज्य सरकार को वास्तव में वनों की सुरक्षा को लेकर संजीदा होने तथा जमीनी वस्तुस्थिति को समझते हुए जंगलों की आग से निबटने के लिए सभी पहलुओं का गंभीरता से अध्ययन कर ठोस रणनीति बनानी होगी।
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