हस्तक्षेप यह ईश्वरीय

याद करें सन् 2011 को! पांच साल राज कर मनमोहन सरकार 2009 में लोकसभा चुनाव जीती हुई थी।

Update: 2021-02-06 05:22 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। याद करें सन् 2011 को! पांच साल राज कर मनमोहन सरकार 2009 में लोकसभा चुनाव जीती हुई थी। सरकार का इकबाल भरपूर था। कॉमनवेल्थ खेल जैसी वैश्विक धूम थी। अमेरिका-भारत एटमी करार से डॉ. मनमोहन सिंह का वैश्विक जलवा बना हुआ था। तभी अचानक आरटीआई में एक संशोधन की हल्की चिंगारी बनी। अरविंद केजरीवाल जैसे एक्टिविस्टों का हल्ला हुआ। मैंने तब अपने सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में केजरीवाल को बुला कर आरटीआई को ले कर बातचीत की। धरना-प्रदर्शन हुआ। केजरीवाल ने फिर अन्ना हजारे से संपर्क बनाया और 2011 खत्म होते-होते आरटीआई की चिंगारी भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में तब्दील हो गई। सन् 2012 के मध्य में अन्ना हजारे आंदोलन का चेहरा बने और फिर जो हुआ वह दस साला मनमोहन राज के हस्र की दास्तां है। अपना मानना है कि पहले कार्यकाल में कांग्रेस-मनमोहन सरकार लेफ्ट आदि सबको साथ ले कर चलते हुए थी। सोनिया गांधी, अहमद पटेल, चिदंबरम, प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल आदि याकि कांग्रेस हाईकमान अहंकार-घमंड में नहीं था। न ही क्रोनी पूंजीवाद मुखर था। मगर 2009 में अच्छी सीटों के साथ दुबारा चुनाव जीतने के बाद सरकार और कांग्रेस के चेहरों में यह मुगालता, यह घमंड बना कि वोटों के प्रबंध में (मुस्लिम, दलित, आदिवासी, गरीब आदि) उनके पास जितने-जैसे नुस्खे हैं उसके आगे विपक्ष या भाजपा की चुनौती का कोई मतलब नहीं है। जब आडवाणी जैसे लौहपुरूष के मजबूत नेतृत्व के नारे को मतदाताओं ने पप्पू नेतृत्व करार दिया तो भाजपा में और है कौन!


और डिवाइन इंटरवेंशन याकि ईश्वरीय हस्तक्षेप हुआ जो आरटीआई की चिंगारी, भ्रष्टाचार, जन लोकपाल, अन्ना हजारे, रामदेव, संघ, नरेंद्र मोदी का क्रमशः रोल बना और वह हुआ जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी!

क्या वैसा ईश्वरीय हस्तक्षेप अब नहीं है? भारत की राजनीति, भारत देश आज जिस मुकाम पर है क्या उसकी छह महीने पहले कल्पना थी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छह साल चाहे जो किया, वे सत्ता और ताकत की हर कसौटी में इंदिरा गांधी से भी अधिक ताकतवर हैं लेकिन आज क्या दशा है? इंदिरा गांधी इमरजेंसी लगाने के बाद भी वैश्विक तौर पर इतनी बदनाम नहीं हुई थी, जितने आज नरेंद्र मोदी वैश्विक पैमाने पर हैं! तभी यह भारत के इतिहास में पहली बार है कि विदेश मंत्रालय को वैश्विक हस्तियों के वैश्विक नैरेटिव पर स्यापा करना पड़ रहा है। वैश्विक सोशल मीडिया और नैरेटिव में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की वह स्थिति बन गई है, जो किसी लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री की शायद ही कभी बनी हो। इकोनॉमिस्ट जैसी वैश्विक पत्रिका उनके राज में प्रेस स्वतंत्रता की स्थिति पर रपट लिखते हुए शुरुआत ईदी अमीन राज से कर रही है!

बहरहाल, दुनिया को एक तरफ रखें और सोचें कि पिछले छह महीनों में जो हुआ है क्या वह अहंकार, घमंड की सत्ता को ईश्वरीय श्राप नहीं है? नरेंद्र मोदी ने किसी से भी बात नहीं करके अपनी सर्वज्ञता में देश को बदलने के तीन कृषि कानून पहले तो अध्यादेश से लागू कराए और फिर राज्यसभा में उप सभापति हरिवंश के जरिए विपक्ष को दबा कर ध्वनि मत से जैसे बिल पास करवाए वह न केवल संसदीय इतिहास की सर्वाधिक कलंकित कार्रवाई थी, बल्कि खम ठोंक सत्ता का यह अहंकार प्रदर्शन भी था कि देश के सबसे बड़े आबादी समूह याकि किसानों के वे भाग्य विधाता है।

तभी अहंकार की अति में ईश्वरीय हस्तक्षेप हुआ और अप्रत्याशित तौर पर किसान सड़क पर उतर आया। मनमोहन सरकार के सातवें साल में दिल्ली में आंदोलन की जो चिंगारी लगी थी उसकी पुनरावृत्ति मोदी सरकार के छठे-सातवें साल में है। तब और अब का फर्क यह है मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी और कांग्रेस हाईकमान ने नर्म, मुलायम, संवाद के साथ विरोध-प्रदर्शन को संभाला। आंदोलनकारियों को जंतर-मंतर, रामलीला मैदान में बैठने दिया। मीडिया-अखबारों को खरीदा नहीं और न यह नैरेटिव चलवाया कि केजरीवाल-किरण बेदी, अन्ना हजारे या आंदोलनकारी देशद्रोही, खालिस्तानी हैं।
उलटे भारत के लोकतंत्र की तब वैश्विक ख्याति बनी कि क्या जिंदादिल लोकतंत्र है! डॉ. मनमोहन सिंह किसी के भी दिल-दिमाग में जानी दुश्मन नहीं हुए। भारत के लोकतंत्र पर, जनता की जागरूकता पर दुनिया ने ताली बजाई। मनमोहन सरकार के मंत्रियों ने आंदोलनकारियों से बात की, मंत्रियों को एयरपोर्ट भेजा। आडवाणी, सुषमा स्वराज, जेटली याकि विपक्ष के नेताओं को बार-बार बुला कर चिदंबरम, मुखर्जी ने बात कर-करके रास्ता निकालने, समाधान, सलाह के वे सब काम किए जो लोकतंत्र की अनिवार्यताएं हैं।

याद करें सन् 2011-12 की घटनाओं को। क्या तब एक भी दफा सुना गया कि आंदोलन करने वाले देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग हैं, खालिस्तानी हैं, पाकिस्तानी हैं? क्या आंदोलन की छाया में समाज में विभाजकता, हिंदू बनाम मुस्लिम, खालिस्तानी, वामपंथी-नक्सली, कांग्रेसी बनाम संघी जैसे देश को काटने-बांटने वाले उस्तरे लंगूरों ने चलाए! भारत तब बिना लंगूरों के था। मनमोहन सरकार पर एक भी आक्षेप नहीं लगा कि वे तानाशाह हैं, गोदी मीडिया वाले हैं, आंदोलनकारियों की जगह पर पानी-बिजली-इंटरनेट काट दिया गया या उन्हें सीमा पर ही रोक दिया गया और दिल्ली की किलेबंदी बॉर्डर जैसी हुई! मनमोहन सिंह और कांग्रेसियों में समझ आ रहा था कि उनकी कला घटती हुई है और विपक्ष व नरेंद्र मोदी की चढ़ती कला है बावजूद इसके किसी मंत्री, किसी सत्तावान के मुंह से नरेंद्र मोदी और भाजपाईयों या केजरीवाल के खिलाफ वैसे जुमले नहीं निकले जैसे इस समय राहुल गांधी या किसान नेताओं या आंदोलनकर्ताओं के लिए निकल रहे हैं?

क्या मैं गलत लिख रहा हूं? तो फर्क क्यों? कई कारण हैं। मोटे तौर पर नरेंद्र मोदी की बुनावट, समझ और गुजरात में राज अनुभव और अजेय होने के अहंकार की मकड़ी का वह मकड़जाल है, जिससे न वे अब बाहर निकल सकते हैं और न देश निकल सकता है। लगातार गलतियां होती जाएंगी।

सचमुच भारत फंस गया है। सन् 2011 से 2014 आंदोलन ने, जन खदबदाहट ने देश में विकल्प बनाया था, जनता जाग्रत और एकजुट हुई थी वही 2020-21 से जो शुरुआत है तो उससे देश में विकल्प नहीं बनेगा, बल्कि समाज, राजनीति बिखरेगी। आर्थिकी रसातल में जाएगी। भारत के दुश्मन चीन और पाकिस्तान के हौसले बुलंद होंगे। गरीबी, भुखमरी, असंतोष, हताशा बढ़ेगी। नरेंद्र मोदी का हर फैसला उलटा पड़ेगा और तमाम प्रोपेगेंडा, मेहनत, चुनाव जीतने के बावजूद देश में टकराव और विभाजकता बढ़ेगी। दूसरा रास्ता है ही नहीं। इसलिए सत्ता अहंकार में मोदी राज का ईश्वरीय हस्तक्षेप क्या परिणाम लिए होगा यह सोचना कंपकंपाहट वाला है!


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