'पार्ट शिफ्टर' फिल्मी दुनिया के गुमनाम 'केरेक्टर' की दिलचस्प दास्तां
एक बेहद तेज रफ्तार ओर रोचक फिल्म की कल्पना कीजिए
एक बेहद तेज रफ्तार ओर रोचक फिल्म की कल्पना कीजिए. बहुत ही तेज रफ्तार. पेस तेज होने के साथ-साथ यह एक रात में खत्म होने वाली कहानी है. फिल्म सांय-सांय, धांय-धांय चल रही है. एक के बाद एक तेजी से घटती घटनाएं. एक इंसीडेंट खत्म नहीं होता कि दूसरा कुछ घट जाता है. इन घटनाओं में थ्रिल है, उतार-चढ़ाव हैं, सस्पेंस है, सब कुछ है. जो एक एक्शन और रोमांच से भरी फिल्म में होना चाहिए. फिल्म आपको हिलने भी नहीं दे रही है.
हम आपको ऐसी ही एक वास्तविक घटना दो चार कराते हैं और फिल्म प्रदर्शन से जुड़े एक बेहद रोचक, दिलचस्प, बेहद महत्वपूर्ण और गुमनाम केरेक्टर से मिलवा रहे हैं. इसका कोई नाम नहीं है, इसे हम 'पार्ट शिफ्टर' कहकर बुला सकते हैं. वैसे फिल्म प्रदर्शन से बहुत से लोग जुड़े रहते हैं लेकिन सब उन्हें जानते पहचाने हैं, इसलिए यहां पार्ट शिफ्टर की बात. पुराने समय में हर फिल्म के रिलीज़ के दौरान हर बड़े शहर (फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के नज़रिए हर एक सेंटर) में यह महत्वपूर्ण रोल अदा करते थे.
जब तक फिल्म टॉकीज़ से उतर नहीं जाती थी, इनकी भूमिका जारी रहती थी. रोमांच से भरपूर भूमिका. थ्रिल का यह सिलसिला रोज 11 बजे के आसपास यानि पहले शो के प्रारंभ होने के साथ शुरू होता था और अंतिम शो की समाप्ति के आधे घंटे बाद तक चलता रहता था. इस काम को अंजाम देता था 'पार्ट शिफ्टर'. इसके बिना पंद्रह-बीस साल पहले तक फिल्म का प्रदर्शन लगभग असंभव था, या फिर बहुत ही कॉस्टली.
पुराने दौर में 'पार्ट शिफ्टर' की जरूरत इसलिए पड़ती थी, क्योंकि पहले टॉकीज़ में फिल्मों का प्रदर्शन रील के माध्यम से होता था. फिल्म को कैमरों की निगेटिव रील पर शूट किया जाता था. फिर उसे डेवलप कर पॉजिटिव रील का रूप में यानि प्रिंट के रूप में तबदील किया जाता था. इसी प्रिंट को शहरों, नगरों और कस्बों के सिनेमाघरों में पहुंचाया जाता था. अपवाद छोड़कर सामान्यत: एक फिल्म 16 से 20 रील की होती थी, दो रीलों को मिलाकर एक पार्ट बनता था.
प्रिंट लिमिटेड होते थे, अत: एक प्रिंट से दो या अधिक टॉकीजों में फिल्म दिखाई जाती थी. ढाई से तीन घंटे की अवधि की फिल्म के एक प्रिंट से एक साथ सिर्फ आधे घंटे के अंतराल से दो टॉकीजों में दिखाया जाता था. सवाल है ये कैसे संभव हो सकता है? इसी सवाल का जवाब है 'पार्ट शिफ्टर'. इस असंभव को संभव बनाते थे 'पार्ट शिफ्टर'.
वैसे सुनने वालों के लिए ये भले ही रोचक विषय की तरह हो, इसे करने वालों के लिए यह बेहद ही मुश्किल टास्क था. हिमालय की चोटी पर चढ़ने जैसा मुश्किल. हिमालय की चोटी पर चढ़ने वाले तो फिर भी झंडा फहरा कर, वापिस आकर सूकून की सांस ले सकते थे, 'पार्ट शिफ्टर' को यह भी नसीब नहीं था. जानते हैं कौन थे ये फिल्मी योद्धा, जिन्हें कोई नहीं जानता. जिनकी कोई पहचान नहीं, जिन्हें कोई क्रेडिट नहीं. फिल्म प्रदर्शन के संदर्भ में 'पार्ट शिफ्टर' एक बेहद रोचक और इंटरेस्टिंग केरेक्टर है.
आईए एक 'पार्ट शिफ्टर' मिलते हैं, इनका नाम है आलम नूर, ये भोपाल के बहुत पुराने 'पार्ट शिफ्टर' हैं. फिल्मों के डिजि़टल रिलीज़ की परिपाटी शुरू होने के बाद 'पार्ट शिफ्टर' का रोल खत्म हो गया है, इसलिए अब आलम फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर के रिप्रजेंटेटिव का काम कर रहे हैं.
चलिए आलम नूर की ज़ुबानी ही सुनते हैं 'पार्ट शिफ्टर' की कहानी
'चूंकि पहले फिल्मों के प्रिंट लिमिटेड होते थे, इसलिए फिल्म पहले ए सेंटर में लगती थी. ए सेंटर जहां एक से ज्यादा सिंगल स्क्रीन टॉकीज़ होते थे. सेंटर पर एक या दो प्रिंट ही भेजे जाते थे. आपने शायद ध्यान दिया होगा. एक शहर के एक टॉकीज़ में फिल्मों के शो का टाइम एक सा नहीं होता था. टाइम अलग-अलग होता था. अलग-अलग आज भी होता है, पर पहले अलग कारण थे, आज अलग. अभी एक साथ प्रदर्शन संभव है, पहले नही था. पहले शो के टाइम में अंतर रखना मजबूरी होता था. यह अंतर लगभग 30 मिनिट का होता था.
फिल्म चार टॉकीज़ में लगी है और दो प्रिंट आए हैं. यानि एक प्रिंट को शटल की तरह इधर से उधर भटकना है. मान लें, टॉकीज नंबर एक से टॉकीज़ नंबर दो की दूरी लगभग 10 किलोमीटर है. टॉकीज़ एक में पहला शो शुरू हुआ 11 बजे, दो में शुरू होगा 11.30 बजे. ऐसे ही हर शो में अंतर रहेगा. मान लें रिलीज़ फिल्म के प्रिंट में 16 रील थीं. एक रील 10 मिनिट की, एक पार्ट में दो रील यानि एक पार्ट 20 मिनिट का हुआ. कुल आठ पार्ट हुए यानि कुल 160 मिनिट (2.30 घंटे). टॉकीज़ एक में 11 बजे फिल्म का प्रदर्शन शुरू हुआ.
एक पार्ट या दो रील 20 मिनिट में खत्म हो गई. जैसे ही एक प्रोजेक्टर का पार्ट खत्म होता, दूसरा प्रोजेक्टर चालू हो जाता था. अब यहां 'पार्ट शिफ्टर' की एंट्री होती है. ऑपरेटर ने स्पूल में फिल्म रिवाइंड की और स्पूल थमा दिया 'पार्ट शिफ्टर' को. उसने अपना स्कूटर उठाया और एक पार्ट का स्पूल लेकर टॉकीज नंबर दो की ओर भागा. उसे वहां पहुंचने में माना 10 मिनिट लगे. वहां पहुंच कर वो पूरा पार्ट चलवाएगा, प्ले करवाएगा. इस बीच दूसरा 'पार्ट शिफ्टर' टाकीज़ एक से दूसरा पार्ट लेकर वहां पहुंचेगा.
इधर पहला 'पार्ट शिफ्टर' पार्ट वन वापिस लेकर टॉकीज़ नंबर एक पर पहुंचेगा. वहां से तीसरा पार्ट लेकर फिर टॅाकीज़ नं. दो पर पहुंचेगा. इस तरह उसके एक शो में चार चक्कर लगेंगे. दोनों 'पार्ट शिफ्टर' के आठ फेरे. चार शो में 16 फेरे और शो पांच हुए तो बीस फेरे.' फिल्म बड़ी हुई तो फेरे भी और ज्यादा. 20 रील की फिल्म में चारों शो में बीस फेरे.
ये स्पूल लेकर इधर से उधर अनवरत बिना रूके भागना-दौड़ना, ट्रेफिक, भीड़ और शोर, कल्पना कीजिए कितना मुश्किल होता होगा. लेकिन 'पार्ट शिफ्टर' की परेशानी यहीं खत्म नहीं होती.
आलम बताते हैं 'आपने ध्यान दिया होगा. प्रोजेक्टर रूम टॅाकीज़ में सबसे ऊपर होते हैं. एक टॅाकीज में नीचे से ऊपर जाने के लिए 'पार्ट शिफ्टर' को लगभग अस्सी से सौ सीढि़यां चढ़ना पड़ती थीं. वो भी बहुत तेजी के साथ, लगभग दौड़ते हुए. भोपाल की बात करें तो सरगम में तो 100 से ज्यादा सीढि़यां हैं, 125 के आसपास. आप सोच सकते हैं कितना मुश्किल काम होता होगा.'
ये कहते हुए आलम भाई के चेहरे पसीने की बूंद आ जाती हैं. मानों अपने पुराने दिनों से खुद ही खौफ़ खा रहे हों. एक और बात वो कहते हैं, इतने हाड़तोड़ का का महनताना था महज़ 200 रूपए हफ्ता. 'पार्ट शिफ्टर' की मुश्किल तब और बढ़ जाती थी जब एक प्रिंट तीन टॉकीज़ में दिखाई जाए. ऐसा होने पर 'पार्ट शिफ्टर' की संख्या बढ़ जाती थी. एक 'पार्ट शिफ्टर' के फेरे तो नहीं थे, लेकिन हर फेरा ज्यादा मुश्किल भरा जरूर हो जाता था.
इसके अलावा टॉकीज़ की दूरी जितनी ज्यादा शटलर की तकलीफ और टेंशन उतना ही ज्यादा. टॉकीज़ में पहुंचकर वो स्पूल ऑपरेटर को थमाएगा, प्रोजेक्टर पर फिल्म दिखाने वाले को ऑपरेटर कहते थे, फिर वापस लेगा और अपने दूसरे मुकाम की ओर चल देगा.
एक बहुत ही मार्मिक किस्सा सुनाते हैं आलम नूर
'बात पुरानी है 1990 की. संजय दत्त की तेजा फिल्म अल्पना और सरगम टॉकीज में लगी थी. नाइट शो (लास्ट शो) था. मेरा आखिरी फेरा था. दौनों के बीच की दूरी 18 किलोमीटर के करीब होगी. रात के 12 से ज्यादा बज चुके थे. अल्पना से निकला और मुश्किल से एक किलोमीटर दूर भारत टॉकीज़ तक पहुंचा होउंगा. थकान बहुत थी, स्कूटर पर ही नींद लग गई. एक्सीडेंट होना ही था. नींद खुली तो थाने में था.
लोगों ने समझा दारू पीकर चला रहा होगा, इसलिए अपने आप गिर गया. पुलिस को बताया 'पार्ट शिफ्टर' हूं, ऐसा-ऐसा काम है मेरा. पुलिस वाले नहीं माने, इस बीच घर वालों को खबर लग गई. वो आए, दूसरे लोग भी आ गए थे, तब जाकर पुलिस ने छोड़ा. वो तो अच्छा हुआ भारत टॉकीज़ के सामने गिरा था, सब पहचानते थे. इसलिए वो लोग खुद भी थाने पहुंच गए और घर के लोगों को भी खबर कर दी. इसके अलावा मेरे पास जो फिल्म का स्पूल था वो भी समय पर सरगम टॉकीज़ पहुंचा दिया.'
फिल्मों के डिजि़टलाइज़ होने के बाद इस काम की जरूरत ही खत्म हो गई. इसके लिए सबसे ज्यादा आभारी शायद 'पार्ट शिफ्टर' ही हो रहे होंगे. बहरहाल.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान, फिल्म और कला समीक्षक
फिल्म और कला समीक्षक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं. लेखक और निर्देशक हैं. एक फीचर फिल्म लिखी है. एक सीरियल सहित अनेक डाक्युमेंट्री और टेलीफिल्म्स लिखी और निर्देशित की हैं