सूचना बनाम जोखिम

सूचना का अधिकार कानून बनाने के पीछे सरकार का मकसद था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, सरकारी अफसर मनमानी और बेवजह कामों को लटकाए रखने की प्रवृत्ति से बाज आएंगे।

Update: 2021-10-13 01:45 GMT

सूचना का अधिकार कानून बनाने के पीछे सरकार का मकसद था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, सरकारी अफसर मनमानी और बेवजह कामों को लटकाए रखने की प्रवृत्ति से बाज आएंगे। मगर हकीकत यह है कि लागू होने के बाद से ही यह कानून सवालों के घेरे में बना हुआ है। इस कानून को लागू हुए सोलह साल हो गए। पिछले कुछ सालों में तो अधिकारी सूचना का अधिकार कानून के तहत मांगी गई जानकारियों से साफ मुकरते देखे गए हैं। सबसे चिंता की बात यह है कि इस कानून के तहत सूचनाएं एकत्र करने वाले अनेक कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक संस्था ने अपने अध्ययन में बताया है कि पिछले सोलह सालों में करीब सौ ऐसे कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई है। एक सौ नब्बे लोगों पर जानलेवा हमले हुए हैं। हालांकि कई सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याओं को लेकर पूरे देश में आंदोलन जैसा उठ खड़ा हुआ था। तब सर्वोच्च न्यायालय ने प्रशासन को ताकीद की थी कि वह सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करे। मगर इस दिशा में अब तक कोई पहल नहीं दिखी है।

छिपी बात नहीं है कि सूचना का अधिकार कानून भ्रष्ट अफसरों, नेताओं, कारोबारियों, ठेकेदारों आदि के लिए परेशानी पैदा करने वाला है। इससे अनेक बड़े घोटालों और अनियमितताओं का पर्दाफाश हुआ है। शुरू में इस कानून का प्रभाव नजर आया था, पर फिर सरकारी बाबुओं ने इससे बचने का रास्ता निकाल लिया। वे मांगी गई सूचनाएं देने में टालमटोल करते देखे जाते या फिर देश की सुरक्षा, गोपनीयता आदि का हवाला देते हुए साफ मना कर देते हैं। फिर उन कार्यकर्ताओं को सूचना आयुक्त के कार्यालयों में अपील करनी पड़ती है।
मगर विचित्र है कि सूचना आयुक्त भी इस मामले में सरकारी अधिकारियों के पक्ष में ही झुके नजर आते हैं। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पिछले साल सूचना आयुक्तों ने पंचानबे फीसद मामलों में सरकारी अधिकारियों पर जुर्माना नहीं लगाया, जबकि उन पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए था। सूचना का अधिकार कानून के तहत अधिकारियों को तीस दिन के भीतर मांगी गई सूचना उपलब्ध करानी होती है। ऐसा न करने पर ढाई सौ रुपए रोज के हिसाब से और अधिकतम पच्चीस हजार रुपए तक जुर्माना लगाया जा सकता है, जिसका भुगतान उन्हें अपने वेतन से करना पड़ता है। मगर सूचना आयुक्तों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार का ही नतीजा है कि सरकारी अधिकारी सूचनाएं न देने की ढिठाई दिखाते रहते हैं।
आज तक कुछ विभागों को लेकर बहस चलती रहती है कि उन्हें सूचना का अधिकार कानून के दायरे में रखा जाए या नहीं। छिपी बात नहीं है कि सरकारें खुद नहीं चाहतीं कि भ्रष्टाचार, घोटालों और अनियमितताओं आदि से जुड़ी सूचनाएं सार्वजनिक हों, ऐसे अधिकारियों को दंड मिले। सरकारी अनिच्छा की वजह से ही सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले बढ़े हैं। संविधान हर नागरिक को सूचना का अधिकार प्रदान करता है, उसे जानने का अधिकार है कि सरकारी विभागों में कामकाज कैसे चल रहा है, योजनाओं की गति क्या है और उनमें कितनी पारदर्शिता बरती जा रही है। मगर उसके इस अधिकार की सुरक्षा के लिए सरकारें तत्पर नहीं दिखाई देतीं। उल्टे इसके लिए काम कर रहे लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में जिम्मेदार सरकार का दायित्व है कि वह न सिर्फ अपने नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करे, बल्कि अनियमितताओं को रोकने की दिशा में काम करने वाले लोगों की सुरक्षा का भी पुख्ता इंतजाम करे।


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