युद्ध के दौर में मुद्रास्फीति : कोई नहीं जानता कि अर्थव्यवस्था के वास्तविक आंकड़े हैं क्या, कैसी हो नीति

लेकिन यूक्रेन संकट पर हमारे रुख से जो आर्थिक समस्याएं पैदा हुई हैं, उसके लिए जिम्मेदार तो हम खुद हैं।

Update: 2022-05-21 01:50 GMT

खुदरा मुद्रास्फीति का 7.8 फीसदी का मौजूदा आंकड़ा चिंता का कारण जरूर है, लेकिन बहुत ज्यादा इसलिए नहीं, क्योंकि महंगाई फिलहाल पूरी दुनिया की सच्चाई है। यह जानना जरूरी है कि स्वतंत्रता मिलने के बाद, एक गरीब देश होने के बावजूद, भारत अपने सटीक सांख्यिकीय आंकड़ों के लिए गर्व करता रहा था। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अचूक सांख्यिकीय आंकड़ों की वह परंपरा धीरे-धीरे खत्म होती चली गई।

आज देश की अर्थव्यवस्था से संबंधित आंकड़े इतने गूढ़ हो चुके हैं कि कोई नहीं जानता कि वास्तविक आंकड़े हैं क्या। मौजूदा परिदृश्य पर सोचें, तो जिज्ञासा होती है कि क्या आज हमारे पास बहुत अधिक नकदी है? या कृषि क्षेत्र में उत्पादन कम रह गया है? या कि हमारी अर्थव्यवस्था के लिए ये दोनों बातें सही हैं? मुश्किल यह है कि सरकार की तरफ से इन दोनों मुद्दों पर जो प्रतिक्रियाएं आई हैं, वे एक दूसरे से पूरी तरह अलग हैं।
मौजूदा मुद्रास्फीति बहुत अधिक चिंतित करने वाली इसलिए नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कृषि/खाद्य पदार्थों की कीमत अगर लंबे समय तक बढ़ती रहती है, तो इससे जुड़ा व्यापार कृषि क्षेत्र के हित में होता है। अगर खाद्य पदार्थों की बढ़ी कीमत का लाभ उत्पादकों को होता है, तब सिर्फ शहरी मध्यवर्ग को नुकसान होता है। ऐसे में, जायज सवाल यही है कि क्या ग्रामीण भारत में बसे कृषि उत्पादकों को वाकई अपने उत्पादों की ऊंची कीमत मिल रही है।
इस मामले में खाद्यान्न निर्यात से जुड़ा सरकार का फैसला सच्चाई बताने के लिए काफी है। पहले गेहूं निर्यात बढ़ाने की बात कहने वाली सरकार ने बाद में शहरी बाजार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए कलाबाजी खाई और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। जब पूरी दुनिया गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के हमारे फैसले के खिलाफ हुई, तो सरकार ने निर्यात में मामूली रियायत दी। क्या इस पूरे मामले में कभी किसानों से सुझाव लिए जाने की जरूरत भी महसूस की गई? समस्या दरअसल कहीं और है।
रूस, बेलारूस और चीन मिलकर पोटाश और दूसरे आवश्यक उर्वरकों का भारी मात्रा में उत्पादन करते हैं। अगर किन्ही वजहों से इन उर्वरकों की आपूर्ति रुकती है या फिर इनके दाम बढ़ते हैं, तो कृषि उत्पादों की बढ़ी हुई कीमत का लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे में, मुद्रास्फीति को हतोत्साहित करने वाली नीति चाहिए, जो कृषि की बढ़ती लागत का किसानों के हित में समाधान निकाले और निर्यात को आगे बढ़ाए।
ऐसे में, बेहतर तो यही होता कि एक तरफ निजी गेहूं निर्यात को जारी रखते हुए किसानों को आर्थिक लाभ उठाने का मौका दिया जाए, दूसरी ओर, खेती की बढ़ती लागत पर गहरी नजर रखी जाए और संभव हो, तो किसानों को सब्सिडी का लाभ दिया जाए। ईंधन के क्षेत्र में तो विचित्र स्थिति है। एक तरफ रूस से कम कीमत पर पेट्रोलियम खरीदा जा रहा है, दूसरी ओर, सरकार का राजस्व बढ़ाने के लिए घरेलू स्तर पर पेट्रो उत्पादों पर टैक्स लगातार बढ़ाया जा रहा है।
पेट्रो उत्पादों पर लगे टैक्स में अगर भारी कटौती हो, तो उसका दो स्तरों पर प्रभाव पड़ेगा। पहला असर यह पड़ेगा कि टैक्स घटने से सरकार का राजस्व घट जाएगा। लेकिन दूसरा असर यह होगा कि इससे तमाम वस्तुओं की लागत घटेगी, जिससे कुल उत्पादन बढ़ेगा, और जिससे आखिरकार सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा। ऐसे में, पेट्रो उत्पादों के मामले में वित्त मंत्रालय का आकलन पूरी तरह गलत है। लेकिन यही काफी नहीं है।
यूक्रेन मुद्दे पर रूस के साथ खड़े होने की हमें सिर्फ कूटनीतिक ही नहीं, आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ रही है। ऊंचाई पर जाती जिस मुद्रास्फीति से आज हम परेशान हैं, वस्तुतः उसके बीज तभी पड़ गए थे, जब महामारी की पहली लहर के समय पूरे देश में लॉकडाउन लगाना पड़ा था और करोड़ों कामगार पैदल चलकर अपने गांव पहुंचे थे। हमारा देश उस आर्थिक सदमे से बाहर निकल ही रहा था कि रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल दिया।
हालांकि दूसरे धनी देशों की तुलना में हमारा आर्थिक प्रदर्शन तुलनात्मक रूप से बेहतर रहा है। पर अब हमें अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र पर कठोर नजर रखने की जरूरत है। संगठित क्षेत्र के पास भारी नकदी है, जबकि उसने खुद को मूलतः कृषि और विनिर्माण क्षेत्रों तक ही सीमित कर रखा है। जाहिर है, रिजर्व बैंक को ब्याज दर बढ़ाने के रूप में पहले ही हस्तक्षेप करना चाहिए था। विदेशी विनिमय बाजार थोड़ा जटिल है।
रुपये में कम और धीमी गिरावट से निर्यात को फायदा होता है, लेकिन रुपये में भारी टूट से निवेशकों में बाजार से अपना पैसा निकाल लेने की होड़ मच जाएगी। निर्यात ही ऐसा एक क्षेत्र है, जिसे रुपये के टूटने का लाभ होता है। लेकिन गेहूं निर्यात पर जिस तरह प्रतिबंध लगाया गया, उससे साफ है कि हम निर्यात के मोर्चे पर मौजूदा स्थिति का लाभ उठाने में भी शायद बहुत सक्षम नहीं हैं। रूस से रूबल के माध्यम से पेट्रोलियम खरीद भी दूरदर्शी सौदा नहीं है।
यूक्रेन मुद्दे पर हमारा राजनीतिक रुख भले ही हमारे हित से प्रेरित हो, लेकिन इस मामले में हमारी आर्थिक नीति भी अगर हमारी राजनीति से ही चालित हो, तो वह अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर नुकसानदेह है। याद रखना चाहिए कि सुषमा स्वराज ने वर्ष 2017 में बांग्लादेश से प्राकृतिक गैस की खरीद के मामले में बातचीत की थी। भारत को बांग्लादेश से उसी तरह प्राकतिक गैस उत्पादन के क्षेत्र में समझौता करना चाहिए, जिस तरह वह नेपाल के साथ मिलकर विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में काम कर रहा है।
इससे हमारी ऊर्जा नीति मुद्रास्फीति को बेअसर कर पाएगी। इस देश की बड़ी आबादी के लिए करीब 7.8 फीसदी की खुदरा मुद्रास्फीति बहुत ज्यादा है। लेकिन जब पूरी दुनिया ही भीषण महंगाई का सामना कर रही है, तब मुद्रास्फीति का मौजूदा आंकड़ा असहनीय नहीं होना चाहिए। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति सही दिशा में है, लेकिन हमारी आर्थिक और विदेश नीतियों में सुधार की जरूरत है। पहले कोविड, और अब यूक्रेन संकट ने पूरी दुनिया को ही हिला दिया है।
महामारी अब बेशक कमोबेश नियंत्रण में हो, पर उसकी भारी कीमत हम सब चुका रहे हैं। सभी देश आर्थिक सुस्ती और मुद्रास्फीति से जूझ रहे हैं और भारत इसका अपवाद नहीं है। लेकिन यूक्रेन संकट पर हमारे रुख से जो आर्थिक समस्याएं पैदा हुई हैं, उसके लिए जिम्मेदार तो हम खुद हैं।

सोर्स: अमर उजाला

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