भारत की खरी-खरी
जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर देशों के रवैए को लेकर भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है।
जलवायु संकट से निपटने के लिए अमीर देशों के रवैए को लेकर भारत की चिंता गैरवाजिब नहीं है। ग्लासगो में चल रहे अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन (सीओपी 26) में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछड़े देशों की मदद की वकालत की और अमीर देशों को स्पष्ट संदेश दिया कि धरती को बचाने की अपनी जिम्मेदारी से वे बच नहीं सकते। दरअसल कार्बन उत्सर्जन घटाने के मुद्दे पर अमीर देशों का जैसा रुख बना हुआ है, वह इस संकट को और बढ़ाने वाला ही नजर आता है।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा। गौरतलब है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी। इसके लिए 2009 में एक समझौता भी हुआ था, जिसके तहत अमीर देशों को हर साल सौ अरब डालर विकासशील देशों को देने थे। पर विकसित देश इससे पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी धक्का लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि जब तक वे विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे।
ग्लासगो सम्मेलन के पहले दिन सबसे बड़ी चिंता यही उभरती दिखी 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा। यह चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि इस सम्मेलन से ठीक पहले इटली में समूह-20 के नेताओं की बैठक में सदस्य देशों के नेता इस बात पर तो सहमत हो गए कि वैश्विक तापमान डेढ़ डिग्री से ज्यादा नहीं बढ़ने देना है, पर 2050 तक कार्बन उत्सर्जन शून्य करने को लेकर कोई सहमति नहीं बन पाई।
इससे साफ हो गया कि कार्बन उत्सर्जन शून्य करने की न तो किसी की तैयारी है और न ही कोई देश अपने हितों को देखते हुए इसके लिए बड़े प्रयासों का जोखिम लेना चाहता है। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि धरती को बचाने के लिए बड़े लक्ष्यों को लेकर अगर अमीर देशों का ऐसा ही रवैया बना रहेगा तो कैसे हम जलवायु संकट से निपटेंगे?
सम्मेलन के पहले दो दिनों में मोटे तौर पर जो चीजें सामने आई हैं, उनसे लगता नहीं कि इस बार भी कोई ऐसी सहमति बन पाएगी जो कार्बन उत्सर्जन को शून्य तक ले जाने की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों में मददगार हो सके। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पहले ही कह चुके हैं कि कार्बन उर्त्सजन शून्य तक ले जाने के लक्ष्य का मुद्दा ऐसा है जिस पर जल्दबाजी में कुछ नहीं कहा जा सकता। देखा जाए तो समूह-20 के लिए यह लक्ष्य व्यावहारिक रूप से मुश्किलें पैदा करने वाला साबित हो रहा है, क्योंकि अस्सी फीसद कार्बन उत्र्जन यही बीस देश कर रहे हैं। चीन, भारत, ब्रिटेन, रूस सहित कई देशों में बिजली उत्पादन का बड़ा हिस्सा कोयले पर ही निर्भर है।
दुख की बात यह है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों को जो पहल करनी चाहिए, वह होती दिख नहीं रही। अब तक जितने भी सम्मेलन हुए, उनका लब्बोलुआब यही देखने में आया कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लक्ष्य हासिल करने के लिए अमीर देश विकासशील देशों पर ही दबाव डालते रहे हैं। जबकि संसाधनों के घोर अभाव के बावजूद भारत जैसे विकासशील देश ने ऊर्जा के विकल्पों पर अच्छा काम करके दिखाया है। ग्लासगो सम्मेलन तार्किक नतीजे पर पहुंचे, इसके लिए विकसित राष्ट्रों को नजरिया बदलने की जरूरत है।