विविधता के प्रवाह की ताकत है भारत का नया संसद भवन, पुराने संसद भवन में था इसका अभाव

Update: 2023-07-16 02:24 GMT

 राकेश सिन्हा: भारत के नए संसद भवन की एक विशेषता यह भी है कि वह भारतीय राष्ट्र की विविधता को जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है। पुराने संसद भवन में इसका सर्वथा अभाव था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन भाषण में इस पक्ष पर जोर दिया। इसका कारण है। विविधता भारत के लिए पहचानों का जंगल नहीं होकर सतत् प्रवाह के समान है। भारत को दुनिया में यही अपवाद बनाता है। बहुलता हमारे लिए घबराहट का नहीं, आत्मविश्वास का कारण रहा। यही आत्मविश्वास नए संसद भवन के उद्घाटन में दिखाई पड़ा। जब पुराने संसद भवन का निर्माण हो रहा था, तब साम्राज्यवादी भारतीयता को समझने और उसे स्वीकार करने में अपनी ही बौद्धिकता से जूझ रहे थे।

उपनिवेशवाद के कई आयाम थे। यह राजनीतिक दासता तक सीमित नहीं था। यह दासता दिखाई पड़ती है, इसलिए साम्राज्यवाद इसका पर्याय बन गया था। उपनिवेशवादी अलग-अलग स्तरों पर काम कर रहे थे। भारत का अध्यात्म, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और विचार-प्रणाली, तीनों ही उनके निशाने पर था। ऐसा करने में न तो उन्हें संकोच था, न ही अपराधबोध।

वे हमें हीन और अपने आपको श्रेष्ठता का प्रतिमान मानते थे। लेकिन भारत की विविधता के प्रवाह ने उन्हें नतमस्तक होने के लिए बाध्य कर दिया। जिस समाज का ‘स्व’ जीवंत होता है, वह कभी पराजित नहीं होता है। भारत उसका अनुपम उदाहरण है। इसके राज, सत्ता और संपदा पर आधिपत्य ने इसके ‘स्व’ को पराजित तो दूर, भ्रमित तक होने नहीं दिया। सन 1872 में देश की पहली जनगणना हुई। तब बंगाल में जनगणना के प्रभारी अधिकारी एच वेभरले ने रिपोर्ट में एक सवाल खड़ा कि एक हिंदू क्या है?

ब्रिटिश काल की जनगणना की कुछ विशेषताएं थीं। उस कार्य में बड़ी संख्या में बौद्धिकों की भागीदारी होती थी। सूक्ष्म स्तरों पर समाज की प्रवृत्तियों और परंपराओं को वे समझने की कोशिश करते थे। उनका उद्देश्य जो भी रहा हो, उनके विश्लेषण में भारत का वैशिष्ट्य उभर कर सामने आता रहा। वेभरले का वह प्रश्न इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण था।

जनगणना करने वाले लोगों से पूछते थे कि धर्म क्या है तो उनका उत्तर तो हिंदू होता था, लेकिन उनके अध्यात्म, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में घोर अंतर होता था। वे तो उस मन, बुद्धि, विचार के थे कि जैसे ईसाई या इस्लाम की कुछ विशेषताएं होती हैं, जिसके कारण कोई साफ-साफ ईसाई या मुसलिम नजर आता है, वैसी ही कुछ विशेषताएं हिंदुओं की भी होंगी।

लेकिन ऐसा नहीं था। इसलिए उन्हें निराशा तो हुई, लेकिन उनकी उत्सुकता भी बढ़ गई। 1872 में उठाया गया प्रश्न आगामी जनगणनाओं में और भी अधिक प्रबल हो गया। 1881 और 1891 की जनगणना में दो विद्वान जनगणना आयुक्तों क्रमश: बौर्डिलोन और जेजे बेन्स ने इसी प्रश्न का अपनी-अपनी तरह से उत्तर ढूंढ़ने का प्रयास किया, पर वे अपने उत्तर से खुद ही असंतुष्ट रहे। बेन्स ने निष्कर्ष निकाला कि दूसरों (इस्लाम/ईसाई) को अलग कर या हटा कर शेष को हिंदू माना जा सकता है।

1911 में बंगाल के जनगणना अधीक्षक ने पहले और वर्तमान, दोनों के विश्लेषणों और जमीनी यथार्थ को देखते हुए लिखा कि ‘सभी विश्लेषण अपूर्ण और बिना किसी निष्कर्ष के हैं। और इस प्रश्न (हिंदू क्या है?) का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है।’ 1921, 1931 और 1941 की जनगणनाओं के प्रांतीय और राष्ट्रीय रपटों में इस प्रश्न पर बहस चलती रही और सभी में हिंदुओं की विविधता और मानसिक एकता ने उन्हें उलझाए रखा। यह यूरोप का भारतीय यथार्थ के साथ जमीन पर साक्षात्कार था।

भारत की विविधता में स्थानीयता का महत्त्व है। स्थानीयता सिर्फ भूगोल या चौहद्दी नहीं होकर लोगों की अपने आपको परिभाषित करने की प्रक्रिया है। जो लोग एकरूपता में जीते रहे हैं, वे इस प्रयोगधर्मिता को नहीं समझ सकते हैं। उन्हें इसमें पहचान की प्रतिद्वंद्विता नजर आती है, लेकिन हकीकत में सूक्ष्म सामाजिक जीवन आध्यात्मिक चेतना और संस्कृतियों का प्रवाह है जो स्थूल सभ्यता की बुनियाद बनता है।

इसी प्रवाह से एकरूपतावादी डरते हैं। इसलिए वे सांस्कृतिक चेतना को ही स्थानीयता से काटने में अपनी समृद्धि और सिद्धि मानते हैं। संस्कृति और विरासत पूजा पद्धतियों के अंतर को विरोधाभासी बनने नहीं देती है। इसके अनंत उदाहरण औपनिवेशिक काल में पाकिस्तान आंदोलन से पूर्व विद्यमान था। 1921 की जनगणना रिपोर्ट में मद्रास में डुडेकला संप्रदाय का उल्लेख है। इसकी संख्या 71,612 थी। उनका इस्लाम में धर्म परिवर्तन हुआ था। पर वे हिंदू नाम रखते थे। वे मस्जिद नहीं जाते थे और हिंदू देवता और मुसलिम संतों की आराधना करते थे। 1931 की जनगणना में मथिया और कुनबी का उल्लेख मिलता है।

उनका भी इस्लाम में धर्म परिवर्तन हुआ था। लेकिन वे स्थानीयता से नहीं कट पाए। वे अथर्ववेद को मानते थे और मृतकों का दाह-संस्कार करते थे। विवाह में ब्राह्मणों से कर्मकांड कराते थे। 1911 की बंगाल जनगणना रिपोर्ट में ओ माल्ले ने लिखा कि धर्म परिवर्तन के बाद भी मुसलिम अपने घरों में काली की पूजा करते थे। इसी वर्ष के राष्ट्रीय जनगणना रिपोर्ट में मोलोनी ने नागोर की चर्चा की, जहां अल्ला-भगवान की मूर्ति के साथ जुलूस निकलता था और सात ऐसी यात्रा में शामिल होना हज के बराबर माना जाता था।

कलकत्ता के एक काली मंदिर में ईसाई दर्शन के लिए जाते थे और चढ़ावा देते थे। उसे फिरंगी काली मंदिर कहा जाता था। 1921 में आठ सौ पचास लोगों ने अपने आपको नास्तिक, स्वतंत्र मत और अज्ञेयवादी घोषित किया था। उन्हें अपने जीवन मूल्यों की अगाध स्वतंत्रता और समान सम्मान प्राप्त था। 





Written by जनसत्ता

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