विश्व इतिहास का गौरवशाली अध्याय है भारत का स्वतंत्रता संग्राम, लगातार 100 साल तक संघर्ष के बाद मिली ये आजादी

वर्ष 1757 में प्लासी की लड़ाई जीत कर अंग्रेज भारत में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे

Update: 2022-08-14 17:44 GMT

भारत डोगरा

वर्ष 1757 में प्लासी की लड़ाई जीत कर अंग्रेज भारत में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। इसके बाद के लगभग सौ वर्षों में उन्होंने विभिन्न उपायों से लगभग सारे भारत पर या तो सीधे अपना कब्जा कर लिया, अथवा विभिन्न राजे-रजवाड़ों को अपने नियंत्रण में कर लिया।
अंग्रेजों की सफलता को रोकने के प्रयास में कुछ भारतीय शासकों ने उन्हें जबरदस्त टक्कर दी। मैसूर के हैदर अली ने उन्हें कई बार हराया। उनके बेटे टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों को प्रमुख दुश्मन के रूप में खूब पहचाना। वह उन्हें हरा तो नहीं सका पर उसने उनसे जबरदस्त टक्कर ली। 1799 में अंतिम दम तक अंग्रेजों से बहुत बहादुरी से लड़ते हुए उसकी मौत हुई। विभिन्न मराठा सरदारों में यशवंतराव होलकर ने अंग्रेजों का 1805-06 के दौरान अच्छा सामना किया। अंग्रेज उस समय होल्कर को हरा नहीं सके और उसके राज्य का एक बड़ा हिस्सा उसे वापिस कर दिया। 1817 में पूना और नागपुर में अंग्रेजों पर हमला कर मराठों ने अपनी खोई ताकत प्राप्त करने का फिर प्रयास किया। 1845 में पंजाब पर अंग्रेजों का हमला हुआ तो हिन्दू, मुसलमान, सिख सबने एक होकर बहुत बहादुरी से उनका सामना किया।
किन्तु अधिकतर भारतीय राजाओं ने आसानी से घुटने टेक दिए और प्रतिरोध के इन कुछ उदाहरणों के बावजूद लगभग सौ वर्षों के अन्दर अंग्रेज लगभग पूरे देश पर नियंत्रण कर चुके थे। अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शोषण, लूट और उत्पीड़न पर आधारित इस अंग्रेजी शासन को भारतीय जनता ने कभी स्वीकार नहीं किया और निरंतर तरह-तरह के विद्रोह लोगों की ओर से होते रहे। अंग्रेजी राज के स्थापित होते ही ये संघर्ष शुरू हो गए और अंग्रेजों के भारत से चले जाने तक चलते रहे। इन संघर्षो में सभी धर्मों और समुदायों की भागेदारी थी। बार-बार बेहद साहस का परिचय देते हुए भारतीय स्वतंत्रता सेनानी अवसर पड़ने पर बड़े से बड़ा बलिदान देने से पीछे नहीं हटे।
प्रायः 1857 के विद्रोह से पहले हुए संघर्षो की उपेक्षा होती है, पर सच्चाई यह है कि इससे पहले भी विदेशी शासन के विरूद्ध लगभग 40 बड़े और सैकड़ों छोटे विद्रोह हो चुके थे। 1857 में एक साथ अनेक स्थानों पर अंग्रेजी शासन के विरूद्ध जबरदस्त विद्रोह हुआ जिसके प्रमुख केन्द्र दिल्ली, मेरठ, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झांसी, फैजाबाद और आरा थे। पर इसके साथ ही यह कितने ही अन्य शहरों, कस्बों और गांवों में फैल गया था। उत्तर में पंजाब से लेकर दक्षिण में नर्मदा तक, पूर्व में बिहार से लेकर पश्चिम में राजस्थान तक यह विद्रोह भभक उठा। हैदराबाद और बंगाल में भी छिटपुट विद्रोह हुए।
मई में बड़ा विद्रोह शुरू होने से पहले मार्च 1857 में मंगल पांडे शहीद हो चुके थे। मई में मेरठ और बाद में बरेली के सिपाही दिल्ली पहुंचे और उन्होंने दिल्ली के सिपाहियों के साथ मिलकर यहां अपना केन्द्र बनाया तथा बूढ़े और उपेक्षित मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। अंतिम मराठा पेशवा के पुत्र नानासाहब के साथ अनेक अन्य भारतीय राजाओं ने भी बहादुरशाह जफर को सम्राट घोषित किया।
दिल्ली में विद्रोहियों ने प्रशासन की एक 10 सदस्य समिति बनाई जिसमें 6 सैनिक और 4 नागरिक थे। इसका नेतृत्व पहले अंग्रेज सेना के तोपखाने में सूबेदार रहे बख्त खान ने संभाला, जो बरेली के विद्रोही सैनिकों को दिल्ली लाये थे। किन्तु 30 सितम्बर 1857 को एक घनघोर युद्ध के बाद अंग्रेजों ने फिर दिल्ली पर कब्जा कर लिया। इसके बाद उन्होंने 25,000 से अधिक विद्रोहियों को फांसी पर लटकाया और अनेक हत्यायें की।
नाना साहब ने अपने योग्य और बहादुर सहयोगियों तात्या टोपे और अजीमुल्लाह की मदद से कानपुर से अंग्रेजों को खदेड़ दिया, किन्तु उनकी यह सफलता कुछ समय तक ही रही। अंग्रेजों ने कानपुर में नाना साहब को हराया और 1859 में नाना साहब नेपाल की ओर अज्ञातवास में चले गए। तात्या टोपे ने साहसपूर्ण छापामार युद्ध जारी रखा, पर 1859 में वे भी पकड़े गए और उन्हें फांसी दी गई।
अवध की बेगम हजरत महल के नेतृत्व में सैनिकों ने किसानों और जमींदारों की सहायता से अंग्रेजों को लखनऊ के मुख्य शहर से खदेड़ दिया। पहले मद्रास में विद्रोह का प्रचार करने वाले मौलाना अहमदुल्लाह इन दिनों फैजाबाद में बस गये थे और उनकी भी साहसपूर्ण भूमिका अवध क्षेत्र में देखी गई। अवध के महत्व को देखते हुए अंग्रेजों ने शीघ्र ही बहुत ज्यादा शक्ति यहां लगा दी। अंग्रेजी सेना से लड़ते हुए लगभग 1,50,000 लोग मारे गए जिसमें से लगभग 1,00000 सामान्य नागरिक थे।
आरा के एक 80 वर्षीय जमींदार कुंवर सिंह ने साहस और रण कौशल का अभूतपूर्व परिचय देते हुए बिहार में अग्रणी भूमिका निभाई। ग्वालियर और इंदौर के बहुत से सैनिक अपने शासकों को छोड़ विद्रोहियों से मिल गए। राजस्थान और महाराष्ट्र के अनेक छोटे सरदार भी अपनी जनता की भावनाओं के अनुकूल चलते हुए विद्रोहियों से आ मिले।
वर्ष 1857 की शौर्यगाथा के सबसे बड़े और प्रेरणादायक प्रतीक के रूप में चमकी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई। रानी स्वयं तो बहुत साहसी थी ही, उतनी ही साहसी उनकी सखियां भी थीं। झांसी की लड़ाई में महिलाओं को तोपें चलाते और गोला-बारूद बांटते हुए देखा गया। झांसी से रानी को भागना पड़ा तो तात्या टोपे और अपने अफगान रक्षकों की सहायता से उसने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। अंत में 17 जून 1858 को रानी और उसकी एक मुस्लिम सहेली ने अंग्रेजों से अंतिम दम तक लड़ते हुए शहादत प्राप्त की।
किसानों, दस्तकारों, मजदूरों आदि जनसाधारण ने इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर हिस्सा लिया। धनुष, तलवार, भाला, लाठी, खंजर, हंसिया जो भी हथियार उन्हें मिला उसी को लेकर उन्होंने युद्ध किया। उन्होंने सूदखोरों के बही-खाते जला दिये और शोषण-उत्पीड़न के प्रतीक अनेक कार्यालयों पर भी हमला किया। 1859-60 में बंगाल में नील के किसानों का महान आंदोलन हुआ।
शिक्षित वर्ग द्वारा देश की हालत में सुधार और महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार के लिए अनेक संस्थायें आरंभ की जाने लगी। दादाभाई नौरोजी ने 1866 में लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की। बंगाल में 1876 में सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी जैसे नेताओं के प्रयास से इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की गई। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था थी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसकी स्थापना अनेक भारतीय नेताओं के सहयोग से 1885 में एक सेवानिवृत अंग्रेज अधिकारी ए. ओ. हयूम ने की। 1886 में कांग्रेस के 436 प्रतिनिधि विभिन्न स्थानीय संगठनों और समूहों द्वारा चुने गये थे। अपने पहले लगभग 20 वर्ष में कांग्रेस ने लोगों में राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने, राष्ट्रीय स्तर पर कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर जनमत बनाने और सीमित राजनीतिक तथा प्रशासनिक सुधारों की मांग करने पर ध्यान दिया। साथ ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद की अर्थशास्त्रीय आलोचना तैयार की जिसमें दादा भाई नौरोजी की विशेष भूमिका रही।
इन्हीं दिनों स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) ने भारतवासियों का आत्म सम्मान जगाने में और उन्हें सार्थक बदलाव की राह दिखाने में अति प्रेरणादायक कार्य किया। रांची और सिंहभूमि के क्षेत्र में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में बहुचर्चित आदिवासी विद्रोह हुआ। 1896-97 में महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में अकाल से तबाह हो रहे किसानों की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित करने के लिए आंदोलन चलाए गए।
इसी समय बंगाल के विभाजन की घोषणा अंग्रेज सरकार ने की तो इसका जमकर विरोध हुआ। इसे धार्मिक और क्षेत्रीय स्तर पर लोगों को बांटने की साजिश के रूप में देखा गया। हिन्दु-मुसलमानों ने अपनी एकता के प्रतीक के रूप में एक दूसरे की कलाई पर राखी बांधी। विशाल सार्वजनिक सभाओं और प्रदर्शनी के साथ-साथ विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के प्रसार के उपाय अपनाए गए। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई और विदेशी कपड़ा बेचने वाली दुकानों पर धरने दिए गए। अनेक स्वदेशी स्टोर और कारखाने खोले गये। स्वदेशी आंदोलन को देश के अनेक अन्य प्रान्तों में भी पहुंचाया गया।
इन दिनों अनेक मुस्लिम नेताओं जैसे अब्दुर्रसूल, हसरत मोहानी, मौलाना आजाद आदि की सार्थक और साहसपूर्ण भूमिका सामने आई। मौलाना मुहम्मद अली, हकीम अजमल खान, हसन इमाम, मौलाना जफर अली खान और मौलाना मजहरूल हक के नेतृत्व में उग्र राष्ट्रवादी अहरार आंदोलन की स्थापना हुई। वहीं, 1915-17 के दौरान तिलक के नेतृत्व में एक होम लीग ने होम रूल या स्वशासन का आंदोलन चलाया। एनी बेसेंट और सुब्रमन्यम अय्यर के नेतृत्व में एक दूसरी होम लीग ने भी ऐसा ही आंदोलन चलाया।
अमेरिका और कनाडा से कार्य कर रहे कुछ स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत में सशस्त्र विद्रोह के लिए गदर पार्टी का गठन किया। मैक्सिको, जापान, चीन, फिलीपिन्स, सिंगापुर आदि में बसे भारतीय भी इस पार्टी के सदस्य बने। साथ ही गदर पार्टी ने आर्थिक समानता, हिन्दू-मुस्लिम एकता और विश्व बंधुत्व पर जोर दिया।
21 फरवरी 1915 को सशस्त्र विद्रोह की तिथि निश्चित हुई थी पर ब्रिटिश सरकार को इस बारे में पता चल गया और उसने अनेक प्रमुख व्यक्तियों की गिरफ्तारी कर ली जिससे यह योजना विफल हो गई। करतार सिंह, सराभा सिंह सहित गदर पार्टी के 42 सदस्यों को फांसी हुई, 114 को उम्र कैद की सजा दी गई और बहुतों को लंबी जेल सजाएं दी गईं।
इस बीच दक्षिण अफ्रिका से लौटकर महात्मा गांधी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गये थे। सन 1917 में वे राजेन्द्र प्रसाद, मजहरूल हक आदि के साथ चम्पारण गए, जहां नील के किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। यहां के किसानों के आंदोलन के फलस्वरूप सरकार उनकी समस्याओं को कम करने के लिए बाध्य हुई।
अगले वर्ष गुजरात के खेड़ा जिले में फसल खराब होने के बावजूद लगान वसूल की जाने लगी, तो गांधी के नेतृत्व में हुए प्रयासों से लगान में छूट मिली। सरदार पटेल भी यहां गांधीजी से जुड़े।महात्मा गांधी ने आरंभ से ही अहिंसा के तौर-तरीकों और सत्याग्रह पर जोर दिया। उन्होंने हिन्दू- मुस्लिम एकता और छुआछूत के विरोध और स्वदेशी को सदा महत्व दिया।
भारतीयों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन करने वाले रौलेक्ट एक्ट के विरूद्ध गांधी ने 1919 में एक सत्याग्रह सभा बनाई जिसमें सदस्यों ने इस कानून का पालन न करने की शपथ ली। इस वर्ष देश में जबरदस्त राष्ट्रवादी उभार आया। उधर सरकार ने अपनी दमनकारी नीतियों को तेज किया। 13 अप्रैल को अमृतसर मे जलियांवाला बाग में शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे निहत्थे लोगों पर अंग्रेज फौजी अफसर डायर ने मशीन गनों और राईफलों से तब तक गोलियां बरसाईं जब तक गोलियां खत्म नहीं हो गईं। लगभग 1000 लोगों की मृत्यु हुई और कई हजार घायल हुए। इसके बाद भी दमन चक्र जारी रखा गया। लोगों की सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गये और उन्हें पिंजरों में कैद किया गया।
इसी वर्ष खिलाफत आंदोलन आरंभ हुआ। इसमें महिलाओं ने भी आगे बढ़कर हिस्सा लिया। पूरे देश मे विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। खादी स्वतंत्रता का प्रतीक बन गयी। संयुक्त प्रान्त में बटाईदारों ने जमींदारों की अनुचित मांगे पूरी करने से इंकार कर दिया। असम के चाय बगानों के मजदूरों ने हड़ताल की किन्तु जब आंदोलन जोर पकड़ रहा था तभी आंदोलनकारियों द्वारा चौरी-चौरा, गोरखपुर में पुलिस की गोली के जबाव में 22 पुलिसकर्मियों को मार दिया गया। इसे हिंसा की कार्यवाही मानते हुए अहिंसा पर बहुत जोर देने वाले महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन की वापस ले लिया। उफान पर जा रहे आंदोलन को रोकने पर बहुत से लोगों को निराशा हुई।
वर्ष 1927 के आसपास कांग्रेस में दो युवा नेताओं जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस में समाजवादी विचार फैलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1928 में बारदोली में सरदार पटेल के नेतृत्व में टैक्स न देने का आंदोलन किसानों ने चलाया और उन्हें सफलता भी मिली। इसी वर्ष मजदूरों की अनेक हड़तालें हुईं जिनमें लगभग 5 लाख मजदूरों ने भाग लिया। बंबई की कपड़ा मिलों में कम्युनिस्ट नेतृत्व में डेढ़ लाख मजदूरों की हड़ताल 5 महीनों तक चली। 1929 में 31 प्रमुख मजदूर और कम्युनिस्ट नेताओं को मेरठ षड़यंत्र केस के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लंबी जेल सजाएं दी गईं।
1929 को जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस का लक्ष्य घोषित किया गया। नागरिक अवज्ञा आंदोलन 1930 में प्रसिद्ध दांडी मार्च से आरम्भ हुआ। 6 अप्रैल को दांडी पहुचकर महात्मा गांधी ने समुद्री तट से मुठ्ठी भर नमक उठाया और इस प्रकार नमक-कानून को तोड़ा। देश के अन्य भागों में भी नमक कानून तोड़ा गया। फिर कुछ भागों में जंगल कानून तोड़ा गया। अनेक जगह पर लगान और अन्य कर देने से लोगों ने इनकार कर दिया।
उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रान्त में 'सीमांत गांधी' या खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में पठान लाल कुर्त्ती वाले सत्याग्रहियों (खुदाई खिदमतगारों) ने बहुत उत्साहवर्धक भूमिका निभाई। चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों ने अपने इन पठान भाईयों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। नागालैंड में रानी गिडालू ने बहुत साहसपूर्ण संघर्ष किया। लाठी-गोली से निर्मम दमन करते हुए सरकार ने लगभग एक लाख सत्याग्रहियो को गिरफ्तार कर लिया। सैंकड़ों लोग मारे गये और हजारों घायल हुए।
दक्षिण भारत में विशेष रूप से अधिक दमन हुआ। आंध्र में एलोरा नामक स्थान पर पुलिस की गोलियों से अनेक लोग मारे गये। 1932-34 मे सविनय अवज्ञा के दूसरे दौर मे फिर इतनी ही गिरफ्तारियां और दमन हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 8 अगस्त 1942 को बंबई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की एक मीटिंग में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया गया। 9 अगस्त को गांधी जी और अन्य प्रमुख कांग्रेस नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।
इसके विरोध में पूरे देश में हड़ताल हुई, विरोध प्रदर्शन हुए।, ब्रिटिश शासन के प्रतीकों पर अनेक स्थानों पर विद्रोहियों का अस्थाई कब्जा हो गया, बलिया, मिदनापुर, सतारा इन जिलों के कुछ भागों में तो समानांतर सरकार तक बना ली गई। इस दौरान स्वतंत्रता की लड़ाई की कोई एक लहर नहीं थी और कुछ अन्य लहरों पर आगे बढ़ते हुए शहीद भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस जैसे वीर विशेष रूप से भारतवासियों की आंख के तारे बने।
विशेषकर शचिन्द्रनाथ सान्याल के प्रयासों से क्रान्तिकारियों ने 1923 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम से एक अखिल भारतीय पार्टी की स्थापना की थी। इस संगठन को शीघ्र ही एक बड़ा धक्का लगा जब काकोरी केस में अनेक प्रथम पंक्ति के नेता गिरफ्तार हो गए। रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्लाह और दो अन्य क्रान्तिकारियों को फांसी की सजा दी गई और अन्य को लंबी जेल सजायें दी गईं।
इसके बावजूद विशेषकर कानपुर और लाहौर में क्रान्तिकारियों ने अपने संगठन के प्रयास जारी रखे। लाहौर में भगत सिंह, सुखदेव और भगवतीचरण वोहरा ने और कानपुर में राधामोहन गोकुल और हसरत मोहानी आदि नेताओं ने न केवल संगठन को मजबूत किया अपितु उसके समाजवादी रूझान को और स्पष्ट किया। उन्होंने काकोरी के फरार विख्यात क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद और अन्य क्षेत्रों के क्रान्तिकारियों से मिलकर भारतीय स्तर का संगठन बनाने के प्रयास भी किये। कानपुर के जनप्रिय नेता गणेश शंकर विधार्थी ने उन्हें सहायता की और साथ ही उनमें और कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन के बीच एक पुल की तरह काम भी किया। सितंबर में दिल्ली में चार प्रान्तों के क्रान्तिकारियों की बैठक के बाद हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का गठन किया गया।
जनवरी 1929 में सेंट्रल असेम्बली में लोकतंत्र विरोधी और मजदूर विरोधी बिल पेश होने थे। तय किया गया कि भगत सिंह और बटुकेशवर दत्त इस मौके पर असेम्बली में इस तरह से और इस किस्म के बम फेकेंगे जिससे किसी के जीवन की क्षति न हो और फिर गिरफ्तारी देकर अदालत के मुकदमे के माध्यम से अपनी बात को देश की जनता तक पहुंचाएंगे। यह कार्य तो योजनाबद्ध तरीके से हो गया, पर बाद में अनेक अन्य साथी भी पकड़ लिये गए। उन्होंने तब भी हार न मानकर अदालत और यहां तक की जेल से भी बडे़ साहस और चतुराई से अपने संदेश को जनता तक पहुंचाया।
ये युवक भारतीय जनता के लाडले बन गये। उनकी लम्बी और कष्टदायक भूख हड़ताल ने पूरे देश को चिन्तित किया। 63 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद क्रांतिकारी जतीनदास शहीद हुए। 23 मार्च 1931 को जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई तो जनता पर इसकी व्यापक और गहरी प्रतिक्रिया हुई। इन क्रांतिकारियों के बलिदान ने विशेषकर युवा वर्ग को बहुत प्रेरणा दी और आजादी की लड़ाई को एक नई ऊर्जा दी।
चन्द्रशेखर आजाद इलाहाबाद के एक पार्क में अंतिम समय तक लड़ते हुए पुलिस द्वारा मारे गये। बंगाल में सूर्यसेन ने चटगाँव क्षेत्र में क्रांतिकारियों के व्यापक स्तर के संगठन प्रयास किये। उन्हें कुछ महत्त्वपूर्ण सफलतायें भी मिली पर बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी दे दी गई।
1939 में विशेष परिस्थितियों में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद सुभाष चन्द्र बोस और उनके अनेक वामपंथी समर्थकों ने फारवर्ड ब्लाक की स्थापना की। 1941 में वे भारत की आजादी के लिए विदेश से प्रयास करने के लिए देश से बाहर चले गये। उन्हें सोवियत संघ से पहली उम्मीद थी पर बाद में मजबूरी में उन्हें जर्मनी और जापान से सहायता लेनी पड़ी। उन्होंने सिंगापुर में क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस की सहायता से आजाद हिन्द फौज की स्थापना की। इसका आरंभिक कार्य जनरल मोहन सिंह ने किया था। अनेक एशियाई देशों में रहने वाले भारतीय और भारतीय सैनिक इसमें सम्मिलित हुए।
साहस और शौर्य की अनेक गाथाओं के बावजूद इस जल्दबाजी में तैयार की गई सेना के लिए ब्रिटिश सेना को हराना संभव नहीं था, विशेषकर जब जापन स्वंय हार चुका था। फिर भी इन शौर्यगाथाओं ने भारत की आजादी की लड़ाई को बहुत प्रेरणा दी। जब आजाद हिंद सेना के गिरफ्तार सैनिकों पर मुकदमे चलाए गए तो पूरे देश में उनके समर्थन की जैसे बाढ़ आ गई। कलकत्ता में उनके समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर आ गए और सरकार कुछ करने में असमर्थ थी।
उधर फरवरी 1942 में बंबई में भारतीय नौसेना के जहाजियों ने विद्रोह कर दिया और बड़ी बहादुरी से लड़े। वायुसेना में भी हड़तालें हुईं। बंबई में उनके समर्थन में बड़े व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें हुईं। सरकार को सेना बुलानी पड़ी और दो दिनों में 250 से अधिक लोगों को गोली से मारा गया।
पर इन घटनाओं से स्पष्ट हो गया कि कितना ही दमन हो अब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य अधिक दिन नहीं टिक सकता है। पर भारत से जाते-जाते भी ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने दो काली करतूतें कर दी। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बंगाल में अकाल की स्थिति की न माफ की जा सकने वाली उपेक्षा की गई, जिसके कारण कुछ ही महीनों में लगभग तीस लाख लोगों की मौत हुई। दूसरी त्रासदी यह हुई कि अनेक दशकों से अंग्रेज शासक जिस सांप्रदायिकता को तरह-तरह से फैला रहे थे और प्रोत्साहित कर रहे थे उसने अंत में देश का बंटवारा ही करवा दिया। इस कारण लाखों परिवार विस्थापित हुए और बहुत बड़ी संख्या में लोग मारे गये।
इन दो महान आपदाओं के कारण भारतीय स्वाधीनता का रंग कुछ फीका पड़ गया था। फिर भी इसमें कोई शक नहीं है कि 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता का दिन एक महान ऐतिहासिक दिन था, जब हम लगभग दौ सौ वर्षों के विदेशी शासन से मुक्त हुए और अपने भाग्य के निर्धारक स्वंय बने।
सोर्स-  नवजीवन

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